विगत दिनों मध्य मुंबई में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद आदि जैसे संगठनों के कार्यकर्त्ताओं ने ‘लव जिहाद’ एवं धर्मांतरण के विरोध में विशाल रैली आयोजित की. इन संगठनों का आक्रोश वाजिब है. निरंतर प्रकाश में आती घटनाओं से प्रतीत होता है कि भारत दुनिया में ‘लव जिहाद की प्रयोगशाला’ बन गया है. किंतु इसके पार्श्व पहलू पर गंभीर विमर्श अभी भी नदारद है.
इस वीभत्स समस्या से सम्बंधित विमर्श अधिकांश प्रत्यक्ष घटनाओं एवं कानून के अनुपालन पर आधारित होते हैं. जिसके लिए पूरी तरह दोषारोपण जिहादियों पर किया जाता है जबकि सनातन समाज अपनी भूमिका के विश्लेषण से बचता रहा है. वेदांतसूत्र (2.1.34) पुष्टि करता है, “वैषम्यनैर्धृणये न सापेक्षत्वात्”, अर्थात् भगवान् किसी भी जीव के प्रति पक्षपात नहीं करते. जीवात्मा अपने कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी है. अतः ऐसी संगठित-श्रृंखलाबद्ध घटनाओं से निपटने हेतु सनातन समाज को सर्वप्रथम अपना मूल्यांकन करना होगा.
विचारणीय है कि हमेशा देर रात की ‘डिस्को पार्टी और हुक्का बार’ में पकड़ी जाने वालीं लड़कियां हिंदू समाज से ही क्यों होतीं हैं? जिहादी उन्हें जबरदस्ती तो नहीं लाते, स्पष्टतया उनकी मर्जी शामिल होती होगी. जिस समाज के युवा बद्रीनाथ, केदारनाथ, त्रंबकेश्वर , काशी जैसे पवित्र तीर्थ स्थलों पर तीर्थयात्रा के बजाय छुट्टी मनाने और ‘वीकएंड पर एन्जॉय’ के लिए जाने लगे, अपने देवस्थानों में नाचने-गाने के भद्दे वीडियो बनाये, अपने देवी-देवताओं के लिए स्टैंडअप-कॉमेडी के नाम पर सुनाये जाने वाले घटिया लतीफ़ो पर तालियां पीटकर ख़ुशी जाहिर करें, उनके पतित मानसिक स्तर को सहज़ समझा जा सकता है.
यह किसी समाज के नैतिक पतनशीलता का सर्वाधिक पुख्ता प्रमाण है कि वह अपने सांस्कृतिक मूल्यों को अस्वीकृत एवं अपमानित करना शुरू कर दे. एक ओर जहां धर्मांध जिहादी हिंदू लड़कियों को अपनी कामवासना की पूर्ति के पश्चात् पैंतीस टुकड़ों में काटने पर आमादा हैं, उसका प्रतिकार कम से कम एक चारित्रिक रूप से पतनशील समाज तो बिल्कुल नहीं कर सकता. जिस समाज का युवा क्षणिक मनोरंजन के लिए अपने धर्म-संस्कृति को अपमानित करने वाले सिनेमा देखने का मोह नहीं त्याग पा रहा है, वह कैसे अपने समाज के रक्षार्थ खड़ा होगा?
वास्तव में सनातन समाज के नैतिक पतन का एक प्रमुख कारण उस पर विकृत सिनेमाई प्रभाव है. जैसा कि श्री गोलवरकर (गुरूजी) लिखते हैं, “आज हम नाच, गान, चलचित्र तथा नाटकों को संस्कृति मानने लगे हैं. इस प्रकार के ‘सांस्कृतिक कार्यक्रम’ अपने देश में सभी जगह चलते हुए दिखते हैं. निःसंशयरूपेण हल्के मनोरंजन का दूसरा नाम ‘संस्कृति’ हो गया है. यह इतनी हास्यास्पद एवं अपमानकारक सीमा तक पहुँच गया है कि नैतिक दुश्चरित्रता के कीचड़ में फँसे हुए चलचित्र के कुख्यात नट-नटी हमारे सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडलों में सम्मिलित किए जाते हैं.” यह राष्ट्र के नैतिक-वैचारिक पतनशीलता का ही प्रमाण है कि जहां शिक्षा-साहित्य सम्मेलनों तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों में प्रतिनिधित्व हेतु प्राध्यापकों, शिक्षाविदों, वैज्ञानिकों, धर्म-मर्मग्य, लेखकों एवं पत्रकारों आदि के बजाय सिनेमाई कलाकारों एवं तथाकथित ‘सोशल मिडिया सेंसेशन और इन्फ्लुएंसर’ को विमर्श हेतु आमंत्रित किया जाए. हालांकि यथार्थ भी यही है कि आज राष्ट्रीय परिदृश्य पर इन सिनेमाई भाँडों एवं सोशल मिडिया पर भडैती करने वालों को कला-साहित्य एवं संस्कृति का प्रतिनिधि समझा जा रहा है.
बॉलीवुड से प्रेरित पतनशीलता का ही प्रभाव है कि सिकिता, अपाला, घोषा, लोपामुद्रा आदि विदुषी नारियों की परंपरा टिकटाक-इंस्टाग्राम स्टारों में बदल गई है. संचार माध्यमों द्वारा निर्मित कृत्रिम माहौल में सुषमा स्वराज, द्रौपदी मुर्मू, साध्वी ऋतंभरा, एम.एस.सुब्बुलक्ष्मी, अवनी चतुर्वेदी जैसी नारियों के बजाय नग्न-अर्धनग्न सिनेमाई अभिनेत्रियों को आदर्श के रूप में परोसा जा रहा हैं, जिनके सिद्धांत भी बड़े विचित्र होते हैं. उदाहरणस्वरूप पिछले दिनों स्वनामधन्य ‘सदी के महानायक’ की पत्नी जो खुद भी अभिनेत्री होने के साथ राज्यसभा की सांसद हैं, अपनी नातिन को सार्वजनिक रूप से नारी-अधिकारों का ज्ञान देते हुआ बता रहीं थीं कि बिना विवाह के गर्भवती होने में भी कोई बुराई नहीं हैं. फिर ऐसे व्यक्तित्वों से प्रेरित हिंदू लड़कियां यदि पथभ्रष्ट होकर जिहाद के मामलों में फँस रही हैं तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
दूसरी बड़ी समस्या पश्चिमपरस्त मानसिकता का प्रसार-प्रचार है. यह सही है कि सनातन समाज बहुत हद तक ग्रहणशीलता रहा है. भारत में ब्रिटिश सत्ता प्रारंभ होने के साथ ही सर्वप्रथम सनातन समाज के उच्च वर्ग ने अंग्रेजी भाषा और उससे संबंधित पश्चिमी संस्कारों को स्वीकार करना शुरू किया. प्रगतिशीलता का यह प्रभाव अधोनिष्यंद (ट्रिकल-डाउन) सिद्धांत के अनुरूप मध्य एवं निम्न वर्ग तक बढ़ता गया. आज वही पश्चिमपरस्त-प्रगतिशील मानसिकता सनातन समाज का कोढ़ बन गई है. देश में भारतीय भाषाओं को पिछड़ापन एवं अंग्रेजी को आधुनिकता का पर्याय माना जाता है. नतीजतन अभिभावकों में अपने बच्चों को अंग्रेज बनाने की होड़ लग गई है. भाषा संस्कारों की वाहक है. जब समाज पश्चिमी भाषा स्वीकारेगा तो उसके संस्कार सनातनी कैसे होंगे?
यहाँ मुख्य समस्या युवाओं की मानसिकता में बाह्य प्रेरणाओं द्वारा रोपित सनातन धर्म एवं संस्कृति के प्रति विलगाव एवं अपमान की भावना है. अपनी इस दुर्स्थिति के लिए सनातन समाज की संस्कारहीन आधुनिकता दोषी है, जिसके लिए सरकार तथा क़ानून से पूर्व परिवार एवं अभिवावकों को कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिए. दरअसल समस्या एवं निदान दोनों सनातन समाज के अंदर हैं, जबकि उसकी तलाश वे बाहरी विकल्पों में कर रहें हैं. यहाँ आवश्यकता आत्मसाक्षात्कार की है.
किसी भी समाज में नैतिकता प्रसार का प्राथमिक स्रोत परिवार होता है. कोई बच्चा जन्म के साथ नैतिकता एवं मूल्यों की गठरी साथ लेकर नहीं आता है, बल्कि इसे अपने माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा दी गई प्राथमिक शिक्षा एवं व्यवहार के माध्यम से प्राप्त करता है. बच्चे दुनिया में सबसे दृढ़ पर्यवेक्षक होते हैं. जो भी अपने परिवार के सदस्यों को देख-सुनकर सीखते हैं, कमोबेश उसी अनुरूप उनका व्यक्तित्व ढलने लगता हैं. परिवार द्वारा दिया गया मनोवैज्ञानिक परिवेश, जिसके अंतर्गत किसी बच्चे का मानसिक एवं बौद्धिक विकास होता है, ही निर्धारित करता है कि एक बच्चे का व्यहार समाज के प्रति कैसा होगा एवं वह किन चारित्रिक गुणों के अनुरूप अपना विकास करेगा.
किसी व्यक्ति के जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण अवस्था समाजीकरण की प्रक्रिया है. मूलतः समाजीकरण ऐसी प्रक्रिया है जो किसी व्यक्ति को समाजिक मानदंडों, सांस्कृतिक प्रतिरूपों एवं नैतिक मानवीय मूल्यों के अनुरूप स्वयं को ढालने से जुड़ी है.इसके अंतर्गत वह अपने जीवन में महत्वपूर्ण व्यक्तियों अर्थात् माता-पिता, गुरुजनों, बड़े भाई-बहन आदि से सामाजिक सांस्कृतिक धार्मिक परंपराओं को जानता समझता और उससे तादात्म्य स्थापित करता है.समाजीकरण एक संरचनात्मक व्यवस्था होती है. बच्चे के लिए उसका परिवार समाजीकरण का मुख्य अभिकर्ता होता है तथा पीढ़ियों से यह उत्तरदायित्व नियमबद्ध एवं निर्धारित स्वरूप में प्रसारित होता रहा है. इसे भारतीय समाज के संदर्भ में समझना अपेक्षाकृत सरल है. जैसे भारत में संयुक्त परिवार प्रथा की जड़ें इतनी गहरी हैं कि पिछले ढाई हजार सालों से भी अधिक समय बीतने के बावजूद अपने विश्वासों के साथ कमोबेश अभी भी यथावत है.
दूसरा मुख्य बिंदू सांस्कृतिक अवधारणा के प्रति आस्था का है. जैसा कि जंतुविज्ञानी कोनराड लॉरेंज लिखते हैं, “संस्कृति क्या है? यह ऐतिहासिक रूप से विकसित सामाजिक नियमों और धार्मिक कृत्यों की एक प्रणाली है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनी रहती है क्योंकि भावनात्मक रूप से उन्हें मूल्य के रूप में महसूस किया जाता है. मूल्य क्या है? स्पष्टत: सामान्य और स्वस्थ जन उस उच्च मूल्य के रूप में किसी चीज की सराहना करने लायक होते हैं जिसके लिए जीवित रहा जाता है और जरूरी हुआ तो मर जाया जाता है. ऐसा किसी अन्य कारण से नहीं होता है, बल्कि इस कारण से होता है कि इसका विकास सांस्कृतिक अनुष्ठानीकरण में हुआ था और इसे उन्हें एक सम्मानित बुजुर्ग द्वारा सौंप दिया गया था.” यही सनातन समाज कमजोर पड़ रहा है और यही नारियों की भूमिका बढ़ जाती है.
किसी भी समाज में सांस्कृतिक परंपरा एवं संवाद को जारी रखने का मुख्य आधार महिला होती है. माँ, दादी-नानी, मौसी-बुआ एवं बड़ी बहन आदि के रूप में महिलाओं की छवि, उनके अधिकारों के उपयोग के अवसर तथा सकारात्मक माहौल ही संस्कारों एवं मूल्यों की गुणवत्ता के लिए सर्वाधिक आवश्यक है. अतः भारतीय परिवारों में मूल्यों की स्थापित संरचना के बने रहने के लिए महिला सशक्तिकरण एवं उसकी आधारिक भूमिका का विस्तार आवश्यक है. साथ ही सनातन नारी समाज का दायित्व यहाँ अधिक बड़ा है क्योंकि अब धर्म-संस्कृति की ध्वजा उसके चारित्रिक दृढ़ता पर आधारित है. उसे पश्चिम् के उपभोक्तावाद एवं कुंठित नारीवाद का प्रतिकार कर सनातन समाज को संबल देना होगा.
ध्यात्वय है कि सन् 2000 में संविधान समीक्षा के लिए गठित ‘वेंकटचलैया समिति’ ने ‘अपने बच्चों की शिक्षा तथा शारीरिक और नैतिक विकास के मामले में माता अथवा पिता का उत्तरदायित्व निभाना और पारिवारिक मूल्यों की भावना विकसित करने’ को मौलिक कर्तव्यों (अनु.51अ) में शामिल करने की सिफारिश की थी. वास्तव में सनातन मूल्यों से ओत-प्रोत परिवार और शिक्षण संस्थानों के उज्जवल परिवेश में ही पतनशील सनातन समाज अपना चारित्रिक पुनर्निर्माण कर सकता है. इस तरह पारिवारिक संस्कारों से पुष्ट बच्चे भावी जीवन में मिलने वाली कठिन परिस्थितियों एवं विपरीत परिवेश में भी अपनी चारित्रिक दृढ़ता को कायम रख सके.
दूसरा बिंदू पाठ्यक्रम, शिक्षा पद्धति एवं शिक्षण संस्थान हैं. शिक्षण संस्थानों के नैतिक-चारित्रिक उत्थान के बगैर सबल व्यक्तित्व निर्माण का प्रक्रम अधूरा रहेगा. अतः सरकार को चाहिए कि वह प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालय स्तर के वामपंथ प्रचलित सनातन मूल्य विरोधी पाठ्यक्रम को संशोधित एवं परिमार्जित करके उसे राष्ट्रीय संस्कारोन्मुख बनाये. सनातन समाज को इसके लिए अपने राय या रोष से, चाहे जैसे भी संभव हो शासन सत्ता पर दबाव बनाना चाहिए. किंतु भारत में शिक्षा एवं शिक्षण संस्थानों की दुर्गति देखकर परिवारों की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है.
श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप के अनुसार,
“कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण: l
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति: ll (अध्याय-4, श्लोक-17), अर्थात् ‘कर्म की बारीकियों को समझना अत्यंत कठिन है. अतः मनुष्य को चाहिए कि वह यह ठीक से जाने कि कर्म क्या है, विकर्म क्या है और अकर्म क्या है.’ आत्मसाक्षात्कार एवं स्वमूल्यांकन करते हुए अपने आगामी भविष्य के लिए कर्तव्य निर्धारण का प्रयास ही वह बिंदू जिस पर सनातन समाज को अविलंब वैचारिक मंथन की सर्वाधिक आवश्यकता है. साथ ही, हिंदू लड़कियों की भावुकतापूर्ण गलतियों की आड़ में संगठित जिहादी कृत्यों की अनदेखी भी नहीं होनी चाहिए. केंद्र सरकार को त्वरित रूप से धर्मान्तरण एवं लव जिहाद के विरुद्ध कठोर दंडात्मक क़ानूनों का प्रणयन करना चाहिए. हालांकि कानून एक बाह्यप्रेरणा है जबकि नैतिकता तथा संस्कार आंतरिक. सनातन समाज के सुखद-सुदृढ़ भविष्य का आधार कानून नहीं बल्कि नैतिकता एवं संस्कार ही बन सकते हैं. उन्हें इसी में प्रयत्न करने की आवश्यकता है.
[युगवार्ता से साभार]