
लेकिन क्या होता है जब वही औसत व्यक्ति लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत जनप्रतिनिधि एवं नीति निर्माता बन जाये. उस पर लोकतांत्रिक मूल्यों के संवाहन एवं उसके रक्षा का दायित्व आ पड़े. तो परिणाम यह होगा कि वह राष्ट्रीय हितों के लिए एक दुःस्वप्न साबित होगा. ऐसी कल्पना भी एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए वीभत्स ही सकती है. परन्तु पिछले दिनों ऐसा विद्रूप दृश्य बिहार विधानसभा में प्रदर्शित हुआ.
महागठबंधन सरकार में परिवहन मंत्री शीला मंडल सदन में पूछे गए एक प्रश्न का उत्तर देने के लिए ज़ब खड़ी हुई तब विधानसभा अध्यक्ष अवध बिहारी चौधरी ने कहा, ‘ये उत्तर नहीं दे पाएंगी.’ असल में पहली बार विधायक और मंत्री बनी शीला मंडल की स्थिति यह है कि सदस्यों की बात तो छोड़ ही दीजिए उनके विभाग से सम्बंधित प्रश्नों के उत्तर देने की स्थिति में विधानसभा अध्यक्ष अवध चौधरी तक चिंतित हो जाते हैं.
यह स्थिति अकेले शीला मंडल की नहीं है. ‘लालू के लाल’ और मीडिया में बहुत ही मुखर दिखने वाले उनके बड़े पुत्र तेज प्रताप यादव महागठबंधन की सरकार में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय का प्रभारी हैं. लेकिन अपने विभाग से सम्बंधित प्रश्नों के सम्बन्ध में सदन में वे सरकार के लिए अकसर असहज स्थिति पैदा कर देतें हैं. आलम यह है कि विधानमंडल के दोनों सदनों में उनके मंत्रालय से संबंधित अधिकांश प्रश्नों का उत्तर राजस्व एवं भूमि सुधार मंत्री आलोक मेहता को देना पड़ता है.
इसी प्रकार भाकपा माले के विधायक महानंद सिंह द्वारा बालू अवैध बालू खनन के विषय में सदन में पूछे गए प्रश्न के जवाब में मंत्री रामानंद यादव जब उत्तर देने में असमर्थ महसूस करने लगे तो उन्होंने विधायक को अलग से आकर मिलने के लिए कहा. समान रूप से एक सदस्य द्वारा किये गये प्रश्न के जवाब में सहकारिता मंत्री सुरेंद्र यादव ने भी प्रश्नकर्ता विधायक को अपने कक्ष में आकार बात करने के लिए आमंत्रित किया. इस सूची में बिहार के शिक्षा मंत्री प्रो. चंद्रशेखर भी शामिल हैं, जो आए दिन मनुस्मृति और रामचरितमानस को लेकर नए-नए वितंडा पैदा करते रहते हैं. धार्मिक विषयों पर निरंतर गाल बजाकर चर्चा में रहने वाले चंद्रशेखर सदन में अपने विभाग से संबंधित प्रश्नों के जवाब में गड़बड़ा जाते हैं.
लोकतंत्र के मंदिर में ऐसे विद्रुप दृश्य बड़े अरुचिकर लगते हैं. ऐसे सदस्यों को एक राज्य की सबसे बड़ी पंचायत में देखना कष्टकर है. किंतु इसकी वज़ह क्या है? प्रथमतः इस अयोग्य राजनीतिक जमात के निर्वाचन का कारण जातिवाद एवं धार्मिक ध्रुवीकरण है. जातिवाद और सांप्रदायिकता का सबसे विघटनकारी स्वरुप इन पर आधारित जनप्रतिनिधित्व है. 1995 में कांग्रेस नेता वी एन गाडगिल ने कहा था, ‘भारत में आप मत नहीं डालते, बल्कि अपनी जाति को चुनते हैं.’ अगर हम थोड़ी देर के लिए पिछड़ावाद-दलितवाद के आंदोलन को स्वीकार भी लें तो क्या बिहार की 10 करोड़ से अधिक की आबादी में एक ऐसा व्यक्ति महागठबंधन के घटक दलों को नहीं मिला जो जनप्रतिनिधित्व की प्रतिष्ठा के अनुकूल हो.
वास्तव में यह ना सिर्फ लोकतांत्रिक भ्रष्टाचार है बल्कि एक तरह की अनैतिक हिंसा भी है. सहज़ ही एक प्रश्न ध्यान में आता है कि ऐसे अयोग्य लोग नीति निर्णायन में किस प्रकार योगदान देते होंगे?
ऐसे कुपात्र ना सिर्फ प्रशासनिक भ्रष्टाचार में सहयोगी होते है बल्कि भ्रष्टाचार का कारक और अवलंबन भी होते हैं. भ्रष्टाचार के घुन से खोखली हो चुकी नौकरशाही के लिए मंत्रालयों में आसीन ऐसे जनप्रतिनिधि स्वार्थपूर्ति और अराजकता फैलाने के लिए सर्वाधिक सुभेद्य होते हैं.
इस दुरावस्था हेतु जनता को आलोचना का अधिकार नहीं है क्योंकि सर्वप्रथम उसे खुद के गिरेबान में झांकना चाहिए. आज सुशासन और सहभागी लोकतंत्र की उम्मीद में निराश जनता ने क्या अपना मूल्यांकन किया है कि इस भ्रष्ट राजनीतिक वातावरण के लिए वह खुद कितनी बड़ी जिम्मेदार है. ऐसे अयोग्य लोग जो जननिर्वाचन के माध्यम से संसद और विधानसभाओं में पहुंचते हैं उसकी वज़ह आम जनता ही है.
ना बूथ की लूट हुई, ना कोई हिंसा और ना ही जोर-जबरदस्ती क्योंकि मीडिया के अतिसक्रियता के इस दौर में और मोबाइल में मौजूद कैमरे की वजह से ऐसी चीजें तो बिल्कुल ही संभव नहीं हो पाती है. परंतु फिर भी लोकतंत्र अपमानित हुआ. इसका अर्थ यह है कि ऐसे लोग जनता के मतपत्र से चुनकर आते हैं और इन्हें चुनने वाली जनता का नैतिक स्तर स्वयं छिछला है. आज देश में शिक्षा और जागरूकता के निम्न स्तर होने का भी आरोप नहीं लगाया जा सकता. सत्य तो यह है जातिवाद एवं सांप्रदायिकता के दुर्दमय रोग से पीड़ित समाज का मानसिक स्तर निम्न श्रेणी तक जा पहुंचा है जो जाति-मजहब की विकृत सोच से ऊपर ही नहीं उठ पा रही है. ऐसे अयोग्य जनप्रतिनिधियों के चयन की जवाबदेही तो जनता को उठानी ही पड़ेगी.
इस देश में चपरासी से लेकर सफाई कर्मी तक के लिए योग्यता निर्धारित की गई बस नीति-नियंता जनप्रतिनिधि ही इसके अपवाद हैं. कम से स्नातक तक की शिक्षा प्राप्त, सार्वजनिक जीवन का अनुभव, समाज सेवा, नीति नियमन, प्रशासनिक कार्यानुभव जैसे मानकों के न्यूनतम आधार निर्वाचित जनप्रतिनिधित्व के लिए तो आवश्यक होने ही चाहिए. देश की दुर्दशा में यह कानूनन संरक्षित अयोग्यता की स्थिति बदलनी चाहिए और नहीं, यदि जनता भी इस चलायमान विनाश पर्व में आनंदित है तो फिर उसकी मर्जी.
इन अयोग्य जनप्रतिनिधियों के चयन का दूसरा प्रमुख कारण वंशवाद एवं परिवारवाद है. ये परिवारवाद एवं जातिवाद का सामूहिक दुष्कृत्य है. जिनके विषैले प्रहारों से लोकतंत्र की आत्मा घायल है. स्वतंत्र भारत के लोकतांत्रिक इतिहास पर गौर करें तो यह दुर्गुण किसी दल या व्यक्ति विशेष से सम्बंधित नहीं है बल्कि देश की पूरी राजनीतिक व्यवस्था ही इस कीचड़ में सनी है. विपक्षी राजनीतिक दल चाहतें हैं कि लेखक, पत्रकार, कलाकार, सामाजिक कार्यकर्ताओं समेत पूरी जनता सत्ता के खिलाफ उसका मोर्चा संभाल लें. लेकिन उसे अपने सुरक्षित आवरण से ना निकलना पड़े. जनता विकल्प के रूप में किसे अपनाये इस सम्बन्ध में विपक्ष जनता को विकल्पहीन रखना चाहता है. उसका पक्ष बस वंशवाद की उपज ये अकर्मण्य वर्ग है. वह चाहता है कि बस एंटी-इनकम्बेंसी से प्रेरित जनता किसी दिन सत्ता उसे सौंप दें.
वास्तव में जनतंत्र में जिम्मेदारी तय करना और जिम्मेदारी स्वीकार करना दोनों कठिन होते हैं. राजनीतिक वर्ग को निरंतर कोसने वाली जनता कभी भी आत्मसाक्षात्कार का जोखिम नहीं उठाती ताकि जिम्मेदारी को स्वीकार करने और उसके निर्वहन दोनों से बची रहे. ख़ैर इस मुद्दे पर तब तक सार्थक बहस नहीं हो सकती ज़ब तक आम जनता इसके विरोध में लामबंद नहीं होती. क्योंकि उसकी चुप्पी राजनीतिक वर्ग को ऐसे कुकृत्यों के लिए प्रोत्साहित करती रहेगी. वैसे भी ये मसला सिर्फ परिवारवाद-वंशवाद से जुड़ा हुआ नहीं है बल्कि लोकतान्त्रिक मूल्यों एवं मर्यादाओं के हनन का भी है.
कॉडर आधारित राजनीतिक दलों या संगठनों में सर्वोच्च पद पर पहुंचने की एक सोपानवत प्रक्रिया है. भारत के राजनीतिक परिदृश्य में मात्र वामपंथी दल और भाजपा ही इस परंपरा के संवाहक रहें हैं लेकिन अब भाजपा में भी यह परंपरा मृतप्राय है. उसका यह दुर्गुण सत्ता जनित अहंमन्यता का परिणाम है. जैसे निकट ही पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वर्गीय सुषमा स्वराज की पुत्री को दिल्ली भाजपा के विधि प्रकोष्ठ का सह-संयोजक नियुक्त किया गया.यह उनके राजनीति के स्थापित करने की शुरुआत है. देखते जाइये तथाकथित संस्कारी दल वंशवाद को कोसते-कोसते खुद इसे कैसे स्थापित करता है.
किंतु इसका विद्रुप पक्ष यह है कि सबसे ज्यादा परिवारवादी तो समाजवादी हैं. वे समाजवादी जिनका सैद्धांतिक आधार ही न्याय, समता और समष्टिवाद आदि पर आधारित है. लेकिन यथार्थ यह है कि आज यही वर्ग सबसे बड़ा व्यक्तिवादी, परिवारवादी और सत्तालोभी है. अगर वास्तव में ऐसे वर्ग द्वारा कभी भारत में वास्तविक समता और सामाजिक न्याय की स्थापना हुई तो इस राजनीतिक वंशवाद का औचित्य स्वयंसिद्ध होना वरना इतिहास देखेगा की निजी हितों, परिवारवाद के नाम पर किस तरह लोकतांत्रिक मूल्य की बली चढ़ा दी गईं.
अमेरिकी चिंतक ‘हेनरी डेविड थोरो’ कहते हैं, ‘हर व्यक्ति यह बताए कि किस तरह की सरकार का वह सम्मान करेगा, और यह उसे पाने की दिशा में एक कदम होगा.’ यह विचार जनता और विपक्ष दोनों के लिए महत्वपूर्ण है. आज बिहार में सत्तासीन और केंद्र में विपक्ष में बैठे वर्ग को अपनी विफलताओं के लिए आम जनमानस को कोसने से पूर्व आत्ममूल्यांकन की जरुरत है. उसे स्वयं से यह प्रश्न पूछने की जरुरत है कि क्या वास्तव में वो वर्तमान सत्ताधारी दल का विकल्प बनने के योग्य है?
जनता के लिए यह दौर बड़ी दुविधा भरी स्थिति का मुजाहिरा करा रहा है. एक तरफ सत्ता में पिछले एक दशक से वह वर्ग काबिज है जिनमें संवेदनहीनता एवं सर्वसत्तावाद की भावना इस तरह घर कर चुकी है जहां उन्हें अपने अहंकार के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखता और दूसरी तरफ वे लोग हैं जो विकल्प बनने की योग्यता प्रदर्शित नहीं कर रहे हैं. कम से कम इस उत्साहहीन, पराजित एवं स्वार्थी दशा में तो बिल्कुल ही नहीं. विपक्ष को यह समझना ही होगा कि जनता परिवर्तन को उद्यत हो सकती है बशर्ते वह उसके समक्ष नेतृत्व की योग्यता प्रदर्शित करे. अन्यथा यह सर्वसत्तावाद का दौर अभी लंबा खींचने के आसार हैं.
[तहलका से साभार]