दुगिन की नई दृष्टि

रामबहादुर राय

जो खबर है, वह अत्यंत साधारण सी लगती है। पर कदापि ऐसा नहीं है। साधारण इसलिए लगती है क्योंकि किसी विदेशी मेहमान के आने की उसमें प्रारंभिक तैयारियों की सूचना भर है। दिल्ली के लिए यह आम बात है। विदेशी मेहमान जो भी हो, उसकी तैयारियों का ताम-झाम उसके कद और पद से हमेशा जुड़ा रहता है। उसका महत्व उस समय सामने आता है जब इन तैयारियों में कोई बहुत खास व्यक्तित्व सक्रिय हो और उसका नाम सामने आ जाए। ठीक ऐसा ही कुछ दिनों पहले हुआ। रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भारत यात्रा पर आने वाले हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का निमंत्रण स्वीकार किया है। उनकी यात्रा के लिए जो प्रबंधन संबंधी बातचीत चल रही है वह अचानक इसलिए चर्चित हो गई है क्योंकि उसमें अलेकजेंडर दुगिन का नाम जुड़ गया है। पिछले कुछ सालों से अलेकजेंडर दुगिन दुनिया की तेज निगाहों में हैं। इसके बहुत कारण हैं। कुछ सही होंगे और कुछ अनुमान आधारित होंगे। उनके बारे में धारणा बन गई है कि वे राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के दिल और दिमाग हैं। उन्हें रास्ता दिखाते हैं और उस पर चलने की तरकीब भी बताते हैं।

ऐसे दुगिन से एक बातचीत ‘दी संडे गार्जियन’ अखबार के 24 से 30 नवंबर के अंक में छपी है। यह बातचीत ‘द बिग स्टोरी’ शीर्षक पेज पर है। अखबार ने दुगिन को घुमावदार अखबारी भाषा के सहारे रणनीतिक मामलों में पुतिन का गुरू बताया है। उनका परिचय दिया है कि वे राजनीति विज्ञान के विद्वान, दार्शनिक, रूसी राष्ट्रवाद के चिंतक और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रशंसक हैं। बातचीत में प्रश्न जितने रोचक हैं उससे अधिक रोचकता उत्तर में झलकती है। वह संक्षेप में इस प्रकार है:

प्रश्न: आपने रूस और भारत में नए तरह के संबंधों की बात लिखी है। सभ्यतागत संबंध का नया प्रकार क्या होगा?

उत्तर: परंपरागत रूप से भारत और रूस के संबंधों का इतिहास प्रगति की अवधारणा पर आधारित रहा है। रूस तब सोवियत संघ था। जो समाजवाद के आधार पर मानवता का प्रतिनिधित्व करना चाहता था। सोवियत संघ का समाजवाद पूंजीवादी व्यवस्था के विरोध में था और पश्चिम के विरोध में भी था। दूसरी तरफ भारत वामपंथ की ओर झुका हुआ था और उसका नेतृत्व कांग्रेस कर रही थी। वह सोवियत संघ के विचारों से सहमत थी। तब भारत और सोवियत संघ में हर व्यक्ति पूंजीवाद के परे लेकिन पश्चिम  के नरेटिव में ही सोचता था। अब वह पुराना पैमाना बदल गया है। जो परिवर्तन हुआ है उसे आत्मसात अब तक नहीं किया जा सका है उसे समझने की जरूरत है। पहली बात यह है कि प्रगति का कोई एक वैश्विक  स्वरूप नहीं है। जो पश्चिम का नरेटिव है वह औपनिवेशिक है। जैसे ही इसके बारे में हम सजग होते हैं तो पुराने संबंधों का समीकरण बदल जाता है।

प्रश्न: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में आपके विचार क्या हैं?

उत्तर: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत वैश्विक मामलों में एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभर रहा है। अपने आंतरिक मामलों में भारत अपनी परंपरागत संस्कृति और जीवनमूल्यों की ओर लौट रहा है। ऐसा भारत रूस के लिए अनजाना है। यह भारत अपनी वैदिक जड़ों से जुड़ रहा है और उसी रफ्तार में पश्चिम के राजनीतिक-सामाजिक सिद्धांतों से विलग हो रहा है। इसी तरह रूस भी अपने ईसाई जीवनमूल्यों से जुड़ने लगा है। जिसमें चर्च और ईसाइयत जीवनमूल्य महत्वपूर्ण हैं। रूस ने जो नीति अपनाई है उसकी आधारशिला रूसी समाज के परंपरागत जीवनमूल्य हैं। ऐसा ही भारत में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में घटित हो रहा है। इस प्रकार रूस और भारत एक नई परिस्थिति में हैं। परंपरागत रूस और परंपरागत भारत के संबंधों का पुनर्निर्धारण का यह समय है।

प्रश्न: इसका आधार क्या हो?

उत्तर: भारत और रूस में संबंधों का पैमाना नया होना चाहिए। उसे बढ़ाने और स्वरूप देने वाले वे लोग होने चाहिए जो नए रूस और नए भारत को जानते हैं। यह एक नई परिस्थिति है। इसके लिए नई टीम होनी चाहिए। जिसमें राजनयिक होंगे, विद्वान होंगे विशेषज्ञ होंगे। यह एक नई चुनौती है। इस संवाद में भारत और रूस के वे विद्वान शामिल होने चाहिए जो परंपराओं को समझते हैं। यह काम अफसर नहीं कर सकते।

प्रश्न: यह कैसे संभव होगा?

उत्तर: मैंने दो किताबें लिखी हैं, ‘थ्योरी ऑफ मल्टीपोलर वर्ल्ड’ और ‘मल्टीपोलर वर्ल्ड आर्डर’। इनमें नई वैश्विक परिस्थितियों का विश्लेषण है। नए सिद्धांत का प्रस्ताव है।

प्रश्न: क्या आपने इस बारे में पुतिन से बात की है?

उत्तर: उन्होंने सभ्यतागत जीवनमूल्यों का समर्थन किया है। वास्तव में ये विचार उनके ही हैं।

 

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