इतिहासकार का कार्य अतीत की घटना तथा उसके प्रभाव की व्याख्या है. डेविड थाम्सन लिखते हैं, “वर्तमान का पूर्णत्व अतीत का ही परिणाम हैं.” आज जो देश राजनीतिक वंशवाद का दंश झेल रहा हैं उसकी पृष्ठभूमि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ही रखी जा चुकी थी. स्वतन्त्र भारत में वंशवाद के विषय में दो धाराएं विद्यमान रहीं हैं. पहली धारा सरदार पटेल की गाँधीवादी एवं दक्षिणपंथी धारा, जहाँ संतान जिस योग्य हो उसे उसी अनुकूल प्रतिष्ठा मिलेगी. दूसरी है नेहरूवादी और समाजवादी धारा, जहाँ बेटी ‘गूंगी गुड़िया’ हो, बेटा पायलट हो या नौवीं फेल, लेकिन पिता के बाद पीएम- सीएम की कुर्सी पर तो उसी का अधिकार है.
जे.बी. कृपलानी की आत्मकथा “माई टाइम्स” भारत में राजनीतिक वंशवाद की इस ऐतिहासिक प्रमाणिकता को व्यक्त करती है. 1929 में कांग्रेस अध्यक्ष पद पर अपने पुत्र जवाहरलाल को बैठाने के लिए मोतीलाल नेहरू ने गाँधी जी के माध्यम से हस्तक्षेप करवाया और सरदार पटेल को अपना नाम वापस लेना पड़ा. इस प्रकरण का उल्लेख सम्मानित पत्रकार रामबहादुर राय भी अपनी किताब ‘नीति और राजनीति’ (पेज 250) में करते हैं. ‘भारतीय राजनीति के दो आख्यान’ (1920 से 1950 तक) में ‘प्रियंवद’ लिखते हैं, “कटु सत्य यही है कि पटेल के मुकाबले 1929 के अध्यक्ष के लिए जवाहरलाल का चुना जाना, भारतीय राजनीति में लोकतांत्रिक पद्धति का अतिक्रमण और वंशवाद की विधिवत स्थापना का चुनाव भी था, जिसे गांधी ने स्वयं अपनी देखरेख में संपन्न किया था.” यह भारत में राजनीतिक वंशवाद की शुरुआत थी.
फ्रैंक मोरिस ने 1960 में एक बार लिखा था, “ऐसा बिल्कुल ही नहीं लगता कि पंडित नेहरू परिवारवाद को आगे बढ़ाएंगे, यह उनके चरित्र और उनके पूरे करियर को देखते हुए कहीं से फिट नहीं बैठता,” लेकिन वे गलत थे. पं. जवाहरलाल नेहरू ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया और इंदिरा गाँधी को 1955 में कांग्रेस कार्यकारिणी में शामिल कर लिया गया. 1957 के चुनावों तक तो वे इतनी हावी हो गयी कि उम्मीदवारों के चयन में हस्ताक्षेप तक करने लगीं. 1959 में राष्ट्रीय आंदोलन के तमाम सेनानियों को दरकिनार करते हुए इंदिरा सीधे कांग्रेस अध्यक्ष ‘नियुक्त’ कर दी गयी(इसे ‘निर्वाचन’ कहना सही नहीं होगा). कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में इंदिरा गाँधी की नियुक्ति का अर्थ ही था, अगला प्रधानमंत्री. यह नियुक्ति तत्कालीन प्रधानमंत्री एवं ‘गाँधी जी के राजनीतिक उत्तराधिकारी’ की देख- रेख में हुआ, इसलिए स्वतंत्र भारत में राजनीतिक वंशवाद के प्रणेता की उपाधि के लिए नेहरू जी सबसे उपयुक्त व्यक्ति हैं. याद करिये ये वहीं नेहरू थे जो 1929 के लाहौर अधिवेशन में घोषणा कर चुके थे कि, “मैं एक समाजवादी हूँ और राजाओं और राजकुमारों में मेरा विश्वास नहीं है.” किंतु आजाद भारत में एक आधुनिक किस्म के राजतन्त्र की स्थापना से नहीं चूके. दिनों दिन अपनी प्राचीन तर्क परम्परा को त्याग कर व्यक्ति पूजक बनता ये राष्ट्र क्या इसके विश्लेषण का प्रयास करेगा ? ऐसी स्थिति पर ही डॉ राममनोहर लोहिया लिखते हैं, ‘…. एक और सवाल कि श्री नेहरू कभी भी इतने महान थे क्या कि मेरी पीढ़ी के असंख्य नर- नारियों की कामना बनने के योग्य होते.'(भारत विभाजन के गुनहगार’ के पेज 89)
कुलदीप नैयर अपनी आत्मकथा ‘एक ज़िन्दगी काफ़ी नहीं’ में पं. नेहरू के उन तरीकों का सूक्ष्म वर्णन करते हैं, जिससे उन्होंने अपनी बेटी इंदिरा को राजनीति में आगे बढ़ाया. इंदिरा गाँधी ना सिर्फ शास्त्री जी जैसे वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा करती थीं बल्कि सरकार के काम काज में अनाधिकृत रूप से हस्तक्षेप करती थीं.(पेज-149 एवं 166). समझा जा सकता हैं कि मनमोहन सरकार (2004-2014) में सोनिया गाँधी का सरकार के कार्यक्षेत्र में अनाधिकृत दखल उसी परंपरा का निर्वहन था. नैयर, इंदिरा गाँधी के उस अहंकार पूर्ण असभ्य व्यवहार के विषय में भी लिखते हैं ज़ब उन्होंने लालबहादुर शास्त्री के अंतिम संस्कार को दिल्ली में होने से रोकने की कोशिश की. इससे क्षब्ध ललिता शास्त्री ने ज़ब आमरण अनशन की धमकी दी तब वे पीछे हटी (पेज- 212). नेहरू परिवार के खुद को स्वयंभू सत्ताधीश मानने का यह एक कुख्यात उदाहरण है.
हालांकि इस घातक वंशवाद के लिए सिर्फ नेहरू ही जिम्मेदार नहीं थे, इसका उत्तदायित्व उतना ही जयप्रकाश नारायण, आचार्य कृपलानी जैसे अन्य आदरणीय नेताओं का भी था, जिन्होंने चुपचाप इस राजनीतिक अत्याचार को सह लिया. साथ ही परोक्ष रूप से उन्होंने इंदिरा गाँधी के लिए मैदान खुला छोड़ दिया. ‘स्क्रीवेन’ लिखते हैं, “इतिहासकार भविष्यवक्ता नहीं है और न उससे भविष्यवाणी की अपेक्षा करनी चाहिए. इतिहास में सार्वभौमिक परिकल्पना संभव है, भविष्यवाणी नहीं.” फिर भी इस कल्पना की धृष्टता की जा सकती है कि अगर जेपी जैसे लोकनायक वंशवाद के विरुद्ध खड़े हो गये होते अथवा उन्होंने दलगत राजनीति से पलायन ना किया होता तो इंदिरा गाँधी सत्ता के पटल पर हावी ना हो पाती, बिहार आंदोलन (आपातकाल) इसका प्रमाण है.
इस नज़रिये से देखें तो वंशवाद की ये जो घातक विरासत इस देश की राजनीति पर मुसल्लत कर दी गयी हैं उसके दोषी मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गाँधी के साथ ही जे पी एवं कृपलानी जैसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी थे. इन्होंने इस वंशवाद के प्रवर्तकों की भाँति आगे आने वाली पीढ़ी को इसका तर्क उपलब्ध कराया. जैसे इन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी वैसे ही देश में शुरू हुई वंशवादी साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष कर सकते थे. तब संभवतः परिस्थितियां ऐसी ना होती.उपरोक्त सभी नाम भारत की आधुनिक राजनीति में सम्मानित स्थान रखने वाले हैं, किंतु आलोचनाओं से परे नहीं हैं. लार्ड ऐक्टन मत है, ‘किसी भी मनुष्य तथा कारण को इतिहास में अमरदंड से बचने मत दो, क्योंकि गलतियों के संबंध में कठोर दंड देने का अधिकार इतिहासकार को प्राप्त है. मृत व्यक्तियों को सहानुभूति की अपेक्षा कठोर दंड देना ही उचित है. कठोर दंड देने का एकमात्र अभिप्राय उनकी गलतियों को शाश्वत बनाने से रोकना है.’
नेहरू परिवार के वंशवादी सत्ता को वैध करने के लिए कांग्रेस के स्वतंत्रता संघर्ष एवं गाँधी जी की विरासत का अवलम्बन लिया गया. इस विरासत को अधिकृत करने की शुरुआत जवाहरलाल नेहरू ने की जिसे बाद में उनके वंशजों ने पूर्णता तक पहुँचा दिया. आज हालात ये हैं कि गाँधी जी सामान्य जनता की नज़र में नेहरू परिवार की विरासत हो गये हैं. गाँधी जी के सहयोग से मोतीलाल नेहरू ने वंशवाद के जिस विष बीज का रोपण किया था वहीं अब एक सुदृढ़ जड़ो वाला वटवृक्ष बन गया है जिसकी शाखाएं समाजवाद, वामपंथ से लेकर दक्षिणपंथ, हर जगह फैल गयी है. नेहरू परिवार के बाद वंशवादी सत्ता के स्थापना में क्षेत्रीय दलों के नेताओं विशेषकर “आधुनिक समाजवादियों” ने निष्ठापूर्वक योगदान दिया. वर्तमान स्थिति यह हैं कि ये व्याधि कर्क रोग की भांति तरह लोकतंत्र को तेजी से नष्ट करती जा रही है.
प्रसंगवश एक बहुप्रचारित घटना की चर्चा भी आवश्यक हैं. यह बात कहीं जाती रही है कि पं. नेहरू ने अपने गिरते को ध्यान में रखकर जेपी को सरकार सँभालने के लिए कई बार बुलाया लेकिन जेपी ने राजनीति से पलायन का रास्ता चुना, जिसके बाद इंदिरा को सामने आना पड़ा. यह तर्क संभवतः परोक्ष रूप से वंशवाद की आलोचना के विरुद्ध गढ़ा गया लगता है.आपातकाल- सेनानी एवं वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय भी इसको स्वीकार नहीं करते. बाबूजी बताते हैं, “ज़ब भुवनेश्वर में नेहरू जी को अटैक आया तो उस समय ये चर्चा होने लगी कि नेहरू के बाद कौन? कुछ लोगों ने अटकल से जेपी का भी नाम चलाया. लेकिन जेपी ने पलायन का रास्ता चुना या जेपी का वो स्वभाव था, ये दोनों बातें अगर देखें तो मैं कहूंगा कि, जेपी ने पलायन का रास्ता नहीं चुना. जेपी अपने स्वभाव में जी रहे थे. दूसरी बात ये कि जेपी नेहरू के करीब थे, नेहरू उनको मानते थे, ये बात सही है. लेकिन नेहरू ने कभी जेपी को अपने बाद स्थापित करने की कोशिश नहीं की. कोशिश की होती और प्रस्ताव दिया होता, फिर जेपी छोड़कर चले गये होते तो उसको पलायन कहते. लेकिन जेपी ने 1955 में राजनीति ही छोड़ दी थीं. विनोबा भावे के आगमन पर गया सम्मलेन में जेपी ने राजनीति छोड़ भूदान आंदोलन से जुड़ने की घोषणा की, तो सक्रिय या दलगत राजनीति से तो उन्होंने पलायन किया, लेकिन नेहरू के उत्तराधिकार से पलायन किया, ऐसा नहीं था. रही बात पं. नेहरू के उत्तराधिकारी की तो उनके सबसे करीब लाल बहादुर शास्त्री थे, और शास्त्री जी ने स्वीकार किया है कि नेहरू जी इंदिरा गाँधी को अपने उत्तराधिकारी के रूप में विकसित कर रहे थे या आगे बढा रहे थे. उनके उत्तराधिकारी होने में मेरा कोई स्थान नहीं था. और हुआ भी यही, शास्त्री जी के गुजरने के बाद इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री बनी.”
दुनिया भर के लोकतान्त्रिक देशों की प्रगतिशीलता का एक सामान्य मापक वंशवाद भी है. जो लोकतंत्र जितना पिछड़ा हैं वहाँ राजनीतिक वंशवाद उतना ही मजबूत है. यूरोप एवं अमेरिका के लोकतंत्र विकसित अवस्था में हैं जहाँ वंशवाद को बिलकुल भी तरजीह नहीं मिलती. स्पष्टतया भारत इस पैमाने पर एक पिछड़ा लोकतंत्र ही है. वैसे तो यह वंशवाद भारत में सभी क्षेत्र, राजनीति, शिक्षा, खेल, व्यवसाय आदि में गहरे तक पैवस्त हो चुका है, लेकिन नुकसान इसने सबसे अधिक राजनीति का किया है. राजनीति में प्रबुद्ध तर्कों, वैचारिक स्तर, सामाजिक- सांस्कृतिक मूल्यों को आत्मसात करने की योग्यता का जैसे अकाल पड़ता जा रहा है. बहुलता हुई हैं तो अहंकार की, अमर्यादित भाषा और आचरण की, विघटनकारी सोच की.
राजनीति किसी भी राष्ट्र के संचालन का वैचारिक ईंधन उपलब्ध कराती हैं. राजनीति के दूषित होने से राष्ट्र का वैचारिक वातावरण विषाक़्त हो जाता हैं जिससे समाज, अर्थव्यवस्था, नीति निर्धारण सबकुछ कुप्रभावित होता है. प्रसिद्ध क्रांतिकारी नेता सचिन्द्रनाथ सान्याल अपनी आत्मकथा ‘बंदी जीवन’ में लिखते हैं, “अहंकार को सुसंयत करना बड़ा कठिन काम है, इसी से प्रायः सभी जगह अनेक अनर्थों की सृष्टि इसी अहंकार से हुई है.” असल में राजनीतिक वंशवाद भी स्थापित नेताओं एवं दलों के उस अहंकार का परिणाम है जिसमें वे जनता के समर्थन और भावनात्मक लगाव को अपनी जागीर समझने लगते हैं.1975 का आपातकाल इसी वंशवाद के अहंकार की उपज था, ज़ब वंशवाद की नींव पर सत्ता पर काबिज़ समूह लोकतंत्र में स्वच्छाचारिता को अपना अधिकार समझने लगा था.
ऐसा नहीं हैं कि प्रगति की इस दौड़ में वंशवाद पीछे रहा है. लेकिन 21वीं सदी के पहले दशक से वंशवाद ने इस देश में वीभत्स रूप धारण कर लिया. इस वंशवाद को सबसे अधिक पोषण जातिवादी राजनीति से मिलता रहा है.जहाँ जातिवाद के सहारे हर क्षेत्रीय से लेकर राष्ट्रीय दल का नेतृत्व अपने परिवार को राजनीति में स्थापित करने में लगा है. पिछले डेढ़ दशकों में वंशवाद अब परिवारवाद के नये कलेवर में उपस्थित हुआ है. रही परिवारवाद की बात तो उससे वामपंथी हो या दक्षिणपंथी, सत्तारूढ़ या विपक्ष, कोई भी दल इस दुर्दमय व्याधि से अछूता नहीं है. कई मायनों में परिवारवाद, वंशवाद से अधिक ख़तरनाक हैं. परिवारवाद ने सामान्य पृष्ठभूमि से आने वाले योग्य व्यक्तियों के उन्नति की राह और दुष्कर कर दी हैं.
उत्तर प्रदेश के एक ‘आधुनिक समाजवादी’ परिवार से दो दर्जन से ज्यादा लोग मुख्यमंत्री, विधायक, सांसद, ब्लाक प्रमुख, मेयर जैसे सभी पदों पर काबिज़ रहे हैं. ऐसे ही बिहार के एक नेता ने अपनी पार्टी में कार्यकारिणी से लेकर अध्यक्ष, राज्यसभा सांसद, विधायक सभी पदों को अपने “नैसर्गिक प्रतिभा संपन्न” बेटे- बेटियों के लिए आरक्षित कर दिया है. 2012 में सपा और 2015 में राजद को मिली जीत पार्टी के संस्थापको के जीवन भर की कमाई सामाजिक- राजनीतिक पूंजी का प्रतिफल था, जिसे इन दलों के प्रमुखों ने अपने आधुनिक ‘राजकुमार’ पुत्रों को सौंप दी. ये करते हुए उन्हें ना तो समाजवाद-जेपी- लोहिया के संघर्षो का ख्याल आया, जिनके नाम पर इन्होंने अपनी राजनीति स्थापित की और ना ही अपने उन वरिष्ठ साथियों एवं जमीनी कार्यकर्ताओं का ध्यान रहा जिनके त्याग एवं परिश्रम ने उन्हें राजनीतिक शक्ति में परिणित किया. यह दुर्दमय रोग तमिलनाडु, कर्नाटक, मेघालय हर जगह फैला हैं. यहाँ भी पिता या परिवार की राजनीतिक विरासत पर अधिकार कर लोग नेता बन बैठे हैं.
जिस दिन वंशवाद की उपज इन आधुनिक राजकुमारों को अपने दलों का ‘स्वामित्व’ ( ये शब्द इसलिए क्योंकि ये राजनीतिक दल अब निजी व्यावसायिक संगठन सरिखे बन गये हैं) वंशानुगत आधार पर हस्ताँतरित किया गया उस दिन देश के हर उस मेहनतकश, ईमानदार, योग्य आम आदमी का अपमान किया गया जिसने अपने दम पर जीवन में योग्यताएं अर्जित की हैं. ये थोपा गया नेतृत्व सम्मान के योग्य नहीं क्योंकि सम्मान किसी पिता जागीर नहीं जिसे वो अपने पुत्र को हस्ताँतरित कर दें. सम्मान निजी योग्यता पर निर्भर करता हैं जो हर व्यक्ति अपने लिए स्वयं अर्जित करता है.
समस्या इसमें नहीं है कि एक नेता का बेटा नेता क्यूँ नहीं बन सकता, बिल्कुल बन सकता है. और कई बार वंशवादी राजनीति करने वाले दल ऐसा तर्क देते भी हैं. लेकिन यहाँ आपत्ति उस प्रक्रिया के लिए हैं जहाँ विधायक या सांसद और उसके बाद मंत्री, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के पद के लिए एक ऐसे व्यक्ति को चुनाव किया जाता हैं जिसके पास ना सार्वनिक जीवन का अनुभव हैं और ना ही जनता से प्रत्यक्ष, ना सामाजिक सरोकार के मुद्दों की समझ हैं और ना ही इन संवैधानिक पदों की गरिमा का ख्याल है. ज़ब किसी डॉक्टर का बेटा डॉक्टर या इंजिनियर बनता है तो वो उस प्रक्रिया को पूरा करता हैं यानि बारहवीं तक की पढ़ाई पुरी करता हैं फिर एक प्रतियोगी परीक्षा पास करता हैं उसके बाद विषय विशेष में महारत हासिल करता है. अगर एक डॉक्टर अपने चेम्बर में अपनी कुर्सी पर अपने बेटे- बेटी को ले जाकर सीधे बैठा दे तो समाज का कल्याण हो चुका. बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री इस मामले में निःसंदेह प्रशंसा योग्य और राजनीतिक रूप से अनुकरणीय हैं, जिन्होंने वंशवाद को प्रश्रय नहीं दिया.
देश की वर्तमान राजनीति में राजनेताओं (Statesmen) की जो कमी है उसकी मूल वजह यही वंशवादी- जातिवादी राजनीति है. वे जो अभाव, गरीबी का अर्थ नहीं जानते, जिन्होंने जिंदगी में कोई ऐसा दिन ना जिया हो जिसमें एक आम आदमी के संघर्ष का अर्थ ना हो ऐसे लोग कैसे जन आकांक्षाओं के लिए खड़े होंगे यह समझना कठिन है. कितना हास्यास्पद हैं ना कि जो एक दिन भूखा ना रहा हो वो देश को भूख का अर्थशास्त्र बता रहा हैं. वर्तमान में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का ही उदाहरण ले तो यह लोकतंत्र के उत्सव से अधिक वंशवादियों का जलसा लग रहा हैं, जहां अपने कार्य और व्यक्तित्व के बजाय बाप- दादा के नाम पर सत्ता कब्ज़ाने की कवायद चल रही है.
उत्तर प्रदेश में एक नेता, जो विदेश से पढ़कर आये हैं, जिनके पिताजी मुख्यमंत्री से लेकर केंद्र में कैबिनेट मंत्री तक रहे हैं, यहाँ तक कि अपने पिता की कृपा से वे स्वयं भी मुख्यमंत्री रहे हैं, आश्चर्यजनक रूप से ज़ब खुद को पिछड़ा बताते हैं, तो जहनियत पर शक- सुब्हा होना लाज़मी हैं. संभवतः ये देश दुनिया का इकलौता मुल्क हैं जहाँ जनता का एक बड़ा वर्ग पढ़ लिखकर, आर्थिक रुप सुदृढ़ होकर भी खुद को पिछड़ा साबित करने की होड़ में लगा हैं. सूचना क्रांति के इस युग में जहाँ प्रगति के अंधी दौड़ चल रही हैं, हमारा समाज और उसके नेता पिछड़ा बनने के लिए लालायित हैं. ऐसे ही लग्न से अगर हम क्षद्र सोच से चिपके रहे तो एक दिन अपने देश को जरूर सबसे ‘पिछड़ा’ बनाकर छोडेंगे. यही विदेश से शिक्षा प्राप्त “तथाकथित समाजवाद” के भविष्य एवं मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार नेताजी, ‘वर्चुअल रैली’ का अर्थ ही नहीं जानते.
पं.जवाहरलाल नेहरू अपनी किताब ‘द डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में लिखते हैं, “अकसर यह कहा जाता है कि हिंदुस्तान एक ऐसा देश है, जहां कई बड़े अंतर्विरोध हैं.” यह कथन बहुत हद तक सही भी हैं. पिछले कुछ वर्षों से, विशेषकर एनडीए सरकार के पिछले कार्यकाल के आखिरी वर्षों से, कई विपक्षी नेता, विशेषकर क्षेत्रीय दलों के, संविधान एवं लोकतंत्र बचाने के लिए परेशान है मानो इनके बिना सब ख़तम हो जाएगा. वैसे यह वे लोग हैं जिनके दलों में आतंरिक लोकतंत्र की बात तो छोड़िये, अपनी आतंरिक दलीय व्यवस्था में ये लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों का सम्मान तक नहीं करते.
वैसे वंशवाद के प्रतीक विपक्ष के ये नेता एनडीए के लिए अधिक मुफिद साबित हो रहे हैं. आज अगर भाजपा या एनडीए गठबंधन सत्ता में स्थापित हुआ हैं तो उसकी वजह उसका संघर्षशील नेतृत्व है. कल्पना कीजिये कि यदि 2014 एवं 2019 के चुनावों में यदि वर्तमान प्रधानमंत्री के समक्ष उन्हीं के जैसे स्वयं के संघर्षों से उभरा नेता प्रतिद्वंदी होता तब भी क्या भाजपा इतनी आसानी से सत्ता में आती. असल में इस समय भाजपा की मुख्य शक्ति उसके केंद्र से लेकर राज्यों के मुख्यमंत्री तक साधारण पृष्ठभूमि एवं अपनी योग्यता के कारण सम्मानित नेता हैं. भाजपा का काडर आधारित दल होना भी युवाओं के विशेष आकर्षण का कारण हैं, जिन्हें ये उम्मीद होती हैं कि उनकी मेहनत उन्हें एक दिन शीर्ष पर पहुँचा सकती हैं. जबकि अन्य दलों में चाटुकारिता के नित्य परिश्रम के अलावा ‘दल -स्वामी परिवार’ की कृपा दृष्टि की भी नित्य आवश्यकता होती हैं, अगर चूके तो सीधे नेपथ्य में फेंक दिये जाएंगे.
किंतु यहाँ भारतीय जनता का दोष अधिक हैं जो राजा- महाराजाओं, तुर्को, मुग़लों और अंग्रेजों से प्रताड़ित होने के बाद भी इन आधुनिक राजकुमारों को बर्दाश्त कर रही है. भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री समाज की सारी कठिनाइयों को झेलकर निचले तबके से आये हैं. वो कठिन फैसले लेने के लिए जाने जाते हैं. अगर वो संविधान संशोधन के माध्यम से यह नियम लागू करवा लें कि अमेरिकी राष्ट्रपति पद की भांति भारत में कोई भी व्यक्ति दो बार से अधिक राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल, मुख्यमंत्री के पदों को ग्रहण नहीं कर सकता तो यह उनकी एक महान उपलब्धि होंगी. साथ ही भारत के लोकतंत्र के लिए यह जीवन रक्षक औषधि होगी.
वंशवादी राजनीति का आधार अब उत्तर भारत में दरकने लगा हैं. उत्तर प्रदेश और बिहार, जहाँ वंशवाद की नयी पौध का प्रमोचन (launch) किया गया, बुरी तरह असफल होता दिख रहा हैं. उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम इसकी वक्तव्य की पुष्टि कर रहे हैं. आज कोई भी जातिवादी नेता या दल ये दावा नहीं कर सकता कि उसकी पुरी जाति उसके पक्ष में ख़डी हो जाएगी. शिक्षा के प्रसार से भावुक जातिवादी अपीलों का तिलष्म टूटने लगा हैं. भारत के एक पूर्व प्रधानमंत्री के सुपुत्र और खुद को जाट समुदाय का स्वयंभू नेता मानने वाले एक महाशय पिछले लोकसभा चुनाव में बुरी तरह हारे. प्रकृति के नियम संचालन में किसी भी चीज की अति नहीं हो सकती, संभवतः वंशवाद भी अपनी उच्चतम बिंदु पर पहुंचकर अब ढलान की ओर अग्रसर है. फ्रेडरिक नीत्शे कहते हैं, “चूंकि तुम कायर हो इसलिये तुम्हें लग रहा है कि तुम्हारे अन्दर अभी शैतान घुसा हुआ है. वहीं तुम्हें मजबूर करता है कि तुम इबादत करो. वहीं कहता है -तुम ईश्वर को स्वीकार करो.” अब समय है कि जनता इस जातिवादी भावुक कायरता से बाहर आकर इन स्वयंभू राजनीतिक खुदाओं को उनकी सही जगह दिखाये.