दार्शनिक रूसो ने सन् 1750 ई. में पेरिस की विख्यात साहित्यिक संस्था ‘डी एकेडमी'( Academy of De Jon) द्वारा आयोजित निबंध प्रतियोगिता के लिए लिखित अपने निबंध, जिसने उसे विख्यात बना दिया, में यह निष्कर्ष दिया है कि, ‘विज्ञान और कला ने मनुष्य का पतन किया है. वर्तमान समाज की सब बुराइयों का मूल सभ्यता की उन्नति, ज्ञान का प्रेम और सभ्य समाज का कृत्रिम जीवन है.’
रूसो अपनी आलोचना में काफी हद तक सही हैं. किंतु कोई विचार सर्वव्यापी अथवा सर्वसुग्राह नहीं होता. रूसो के उपरोक्त विचार के साथ भी ऐसा ही है.नि:संदेह विज्ञान ने समाज को अधोपतन की ओर धकेला है. लेकिन यह भी सत्य है कि विज्ञान ने सभ्यता को आधुनिक और उन्नत बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है. जैसे निरंतर भ्रष्टाचार में धँसते भारतीय राजनीति के लिए यह वरदान है क्योंकि तकनीकी ने चुनाव सुधारों के लिए प्रभावी भूमिका निभाई है. सुधारों के इतिहास के सिंहावलोकन से इस तर्क की पुष्टि होती है.
सर्वप्रथम 1989 में चुनाव में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन ईवीएम के प्रयोग की व्यवस्था हुई. प्रायोगिक तौर पर पहली बार इसका प्रयोग 1998 में राजस्थान मध्य प्रदेश और दिल्ली विधानसभा के चुनाव में हुआ. 1999 में गोवा वह पहला राज्य बना जिसके विधानसभा चुनाव में ईवीएम का पूरे राज्य में इस्तेमाल किया गया. 1993 में फर्जी मतदान को रोकने के लिए चुनाव आयोग द्वारा फोटो पहचान पत्र (EPIC) जारी करने का निर्णय लिया गया.
1999 में कुछ खास तरह के मतदाताओं हेतु डाक मतपत्र के द्वारा मतदान की व्यवस्था की गईं. वर्ष 2002 में विभिन्न कारणों से विदेश में प्रवासरत भारतीयों को वोट देने का दान करने का अधिकार प्रदान करने का प्रावधान किया गया. 2003 में सशस्त्र सेना में कार्यरत मतदाताओं को प्रॉक्सी के जरिए मतदान का विकल्प चुनने की सुविधा उपलब्ध कराई गई.
2003 के प्रावधान के तहत निर्वाचन आयोग द्वारा राजनीतिक दलों को अपने प्रचार एवं विभिन्न मुद्दों पर जनता को संबोधित करने के लिए टेलीविजन एवं दूसरे इलेक्ट्रॉनिक मिडिया पर समय आवंटन करने का प्रावधान किया गया. इसके अतिरिक्त वर्ष 2004 में चुनाव आयोग ने दृष्टिबाधित मतदाताओं को बिना किसी सहायक के मतदान करने की सुविधा प्रदान करने के लिए ब्रेल लिपिबद्ध ईवीएम की शुरुआत की. इसके लिए पहला प्रयोग आंध्र प्रदेश की आसिफनगर विधानसभा उपचुनाव के समय हुआ. सन् 2005 में बिहार, झारखंड एवं हरियाणा के विधानसभा चुनावों, 2006 में केरल, तमिलनाडु, पुडुचेरी, असम तथा पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में एवं 2008 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में इसका इस्तेमाल किया गया. 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान आयोग द्वारा ईवीएम में ब्रेल लिपि का प्रयोग किया गया.
2009 के प्रावधानों के अनुसार लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं के चुनाव के दौरान एग्जिट पोल अर्थात जनमत सर्वेक्षण करने और इसके परिणामों को प्रकाशित करने पर रोक लगा दी गई. वर्ष 2013 में निर्वाचन आयोग से परामर्श के पश्चात केंद्र सरकार ने मतदाता सूची में नामांकन के लिए ऑनलाइन फाइलिंग का प्रावधान किया. जिसे मतदाता पंजीकरण (संशोधन) नियम, 2013 कहा जाता है.
इसके पश्चात और सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुरूप भारतीय निर्वाचन आयोग द्वारा ‘उम्मीदवारों में से कोई नहीं’ (नोटा) का मतदाता पत्रों/ईवीएम में प्रावधान किया गया. 2013 के मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ मिजोरम दिल्ली और राजस्थान के राज्य विधानसभाओं के विधानसभाओं के चुनाव में नोटा लागू कर दिया गया. तथा विस्तृत रूप से 16वीं लोकसभा (2014) के आम चुनाव में इसका प्रयोग किया गया.
ईवीएम से जुड़े विवादों के पश्चात वर्ष 2013 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से मतदाता निरीक्षण पेपर ऑडिट ट्रायल (वीवीपीएटी) की शुरुआत की गई. तब उच्चतम न्यायालय ने इसे ‘स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव की अपरिहार्य जरूरत’ कहा था. असल में वीवीपीएटी ईवीएम से जुड़ी एक स्वतंत्र प्रणाली है जो मतदाताओं को इसकी अनुमति देती है कि वह सत्यापित कर सके कि उनका मत उनके द्वारा समर्थित उम्मीदवार को ही पड़ा है. यह प्रणाली मतदाता को पेपर रसीद के आधार पर अपने मत को चुनौती देने की सुविधा प्रदान करती है. 2013 में वीवीपीएटी का प्रथम प्रयोग नागालैंड के नोकासेन विधानसभा चुनाव क्षेत्र में किया गया.
मतदान से सम्बंधित मतदाताओं में उत्पन्न भ्रम के निवारण हेतु एक पुख्ता उपाय करते हुए चुनाव आयोग ने 1 मई, 2015 के बाद होने वाले किसी भी प्रकार के चुनाव में ई.वी.एम. तथा मतपत्रों पर उम्मीदवारों की तस्वीर, उनके नाम एवं पार्टी का चुनाव चिन्ह प्रकाशित करने का निर्देश जारी किया था. जल्दी ही यह व्यवहार में भी लागू हुआ जब जून 2015 में होने वाले विभिन्न राज्यों के उपचुनाव में प्रथम बार उम्मीदवारों की तस्वीर वाले मतपत्रों का प्रयोग किया गया.
इसके पीछे कारण यह था कि कई बार एक ही चुनाव क्षेत्र में एक ही नाम से अनेक उम्मीदवार खड़े हो जाते हैं. हालांकि नियमों के अनुरूप यद्यपि दो या दो से अधिक एक ही नाम वाले उम्मीदवारों के नाम के साथ उपयुक्त उपसर्गों का प्रयोग किया जाता है. लेकिन फिर भी चुनाव आयोग ने यह संज्ञान लिया कि इसके बाद भी भ्रम की स्थिति बनी रहती थी. इसका एक बड़ा उदाहरण आंध्र प्रदेश का है. जब जगनमोहन रेड्डी को हराने के लिए उनके विरोधियों द्वारा बड़ी संख्या में उनके नाम वाले लोगों को उसी विधानसभा से उतार दिया गया ताकि स्थानीय मतदाता भ्रमित हो जायें. उम्मीदवार की तस्वीर उसके नाम तथा उसके चुनाव चिन्ह के बीच होता है. हालांकि आयोग ने यह व्यवस्था दी थी कि यदि कोई उम्मीदवार अपनी तस्वीर देने में सक्षम ना हो पाए तब भी उसका नामांकन इस आधार पर खारिज नहीं किया जाए.
वर्ष 2018 में केंद्र सरकार ने चुनावी बांड योजना की अधिसूचना जारी की जिसकी घोषणा 2017 के बजट में की गई थी. जिसका मुख्य उद्देश्य राजनीतिक वित्तपोषण में अवैध धनराशि के आगमन को निरुत्साहित करना तथा पूर्ण पारदर्शिता को प्रोत्साहित करना था.
19वीं सदी साम्राज्यवाद का दौर था. 20वीं सदी में विचारधाराओं को जोर था और 21वीं सदी सूचना-तकनीक की क्रांति का युग है. उन्नत तकनीकी आज प्रगति का पर्याय बन चुका है जिसे कोई भी राष्ट्र या समाज अस्वीकार करने की स्थिति में नहीं है. उपरोक्त तथ्यों के आधार पर प्रतीत होता है कि तकनीकी भारत के चुनावी सुधारों एवं इसकी प्रक्रियागत विकास के लिए खासी उपयोगी साबित हुई है. किंतु इसकी कुछ सीमाएं भी हैं और सुधारों की दिशा में कुछ अवरोध भी.
लोकतांत्रिक शासन पद्धति विश्व के लिए वरदान है किंतु इसके कुछ नकारात्मक पक्ष भी हैं. लोकतंत्र में निर्णयन प्रक्रिया की धीमी गति के बहुत से नुकसान हैं. इसका समर्थन स्वयं निर्वाचन आयोग दिया. उसका भी मानना है कि किसी बड़े परिवर्तन के लिए लंबा वक्त चाहिए. जैसे ईवीएम का पहला परीक्षण 1982 में किया गया था जबकि इसे पूरी तरह से लागू वर्ष 2004 के आम चुनाव में ही किया जा सका. इस तरह देखें तो ईवीएम को पूरी तरह से प्रयोग में लाने में 22 वर्षों का समय लगा.
लोकतंत्र में त्वरित एवं प्रभावी निर्णयन की क्षमता विधायिका और सरकार के पास होती है लेकिन निरंतर पथभ्रष्ट होती चुनावी राजनीति सत्ता-केंद्र को इतना दूषित कर चुकी है कि निर्वाचित सरकारों से किसी त्वरित एवं व्यापक सुधार की उम्मीद व्यर्थ है. संसदीय राजनीति की निर्वाचन सुधारों के प्रति अरुचि एवं दिनोंदिन उसमें पैठ करती अनुत्पादकता के कारण यह जिम्मेदारी न्यायपालिका तथा निर्वाचन आयोग के ऊपर आ गयी है. सुखद है कि इनके आपसी सामंजस्य एवं सिविल सोसाइटी की सक्रियता के कारण देश शनै:-शनै: चुनावी सुधारों की दिशा में बढ़ रहा है. इसी अनुरूप निर्वाचन आयोग ने चुनावी सुधार की दिशा में पुनः प्रयास प्रारंभ किया है.
फिलहाल आयोग के सुधारों के केंद्र में मुख्यतः पांच लक्ष्य, एक देश-एक चुनाव, एक व्यक्ति-एक सीट, एक मतदाता-एक मतदाता सूची, मतदाता सूची को आधार से जोड़ना तथा दूरस्थ मतदान की सुविधा (रिमोट वोटिंग मशीन, आरवीएम) है. आयोग द्वारा प्रस्तावित इन सुधारों में भी आखिरी दो तकनीकी पर ही आधारित हैं. जिसमें प्रमुख मुद्दा रिमोट वोटिंग मशीन (आरवीएम) है. इस वर्ष जनवरी में चुनाव आयोग ने रिमोट वोटिंग मशीन पर चर्चा के लिए एक सर्वदलीय बैठक बुलाई थी. आयोग का ध्येय है कि प्रवासी मतदाताओं को रिमोट वोटिग की सुविधा प्रदान की जाये ताकि मतदान प्रतिशत बढ़ाया जा सके. इसे सुविधा से जुड़कर प्रवासी मतदाता, जिनमें मूल क्षेत्र कों छोड़कर दूसरे राज्यों में रहने वालों से लेकर विदेशों में प्रवासरत भारतीय शामिल हैं, कहीं से भी अपना वोट डाल सकेंगे. अनुमान है कि इस योजना से लगभग तीस करोड़ से अधिक मतदाता लाभान्वित होंगे. दूसरा मुख्य प्रस्तावित सुधार मतदाता सूची को आधार से जोड़ना है. इससे मतदाता सूची में शामिल फर्जी नामों के या नामों के दोहराव से बचा जा सकेगा. साथ ही आधार एवं मतदाता पहचान पत्र के जुड़ाव से एक राष्ट्र-एक पहचान पत्र और अवैध प्रवासियों की समस्या दोनों मामलों के समाधान की दिशा में उचित कदम होगा.
लोकतंत्र की सुदृढ़ता के लिए आवश्यक है कि जनप्रतिनिधियों के चयन अथवा निर्वाचन की शुचिता बनी रहे. समयबद्ध निष्पक्ष चुनाव जम्हुरियत की सुन्दरता भी है और उसकी शक्ति भी. लोकतंत्र यदि धर्म है तो चुनाव उसका मुख्य त्यौहार और 8 केंद्र शासित प्रदेश तथा 28 राज्यों वाले भारत में यह पंचायतों से लेकर लोकसभा चुनावों तक यह त्यौहार छोटे-बड़े रूप में निरंतर चलता ही रहता है. त्यौहारों का अर्थ है अपने सम्बंधित धर्म या मजहब की एकरसता को तोड़कर जीवन में नई सकारात्मकता का संचार करना. वर्ष 2024 में आम चुनाव के रूप में इस पर्व का आयोजन निकट है. अतः निर्वाचन सुधारों की दिशा में ठोस निर्णयन अत्यावश्यक है. देश के राजनीतिक-सामाजिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार के मूल में भ्रष्ट निर्वाचन तंत्र है. ज़ब तक इसमें सुधार नहीं होगा तब तक राष्ट्रीय जीवन को आक्रांत करते भ्रष्टाचार पर नकेल कसना असंभव है.
[युगवार्ता से साभार]