कार्ल आर. पापर ने अपने लेख ‘द पावर्टी ऑफ हिस्टारिसीज्म’ में लिखा है, इतिहास का कोई अर्थ नहीं होता, क्योंकि इतिहास का कोई लक्ष्य नहीं है. पापर के इस कथन से सहमत नहीं हुआ जा सकता. इतिहास का अर्थ है, क्योंकि यह मानव समाज में सत्य तथा न्याय की प्राप्ति के लिए संघर्ष का वर्णन हैं. इतिहास-ज्ञान का तात्पर्य है कि मानव स्वयं को सृष्टि के आरम्भ से जीवित समझता है, क्योंकि प्रत्येक उपलब्धि की पृष्ठभूमि इतिहास में मिलती है. सतत चिंतन से निर्मित अवधारणा के अनुसार वर्तमान का आविर्भाव अतीत के गर्भ से ही हुआ है. साथ ही इतिहास का लक्ष्य है भावी पीढ़ियों को सीख देना, ताकि वह अतीत की गलतियों के लिए वर्तमान एवं भविष्य का मार्ग अवरुद्ध कर दे.
26 जून, 1975 लोकतंत्र के इतिहास का काला अध्याय है. गांधी जी ने भारतीय राजनीति के आध्यात्मिकरण हेतु जो कठिन प्रयास किए थे, उन्हें मिटाते हुए इस समय राजनीति अपने विद्रूप रूप में उपस्थित हुई थी. इस दौर के इतिहास से लोकतंत्र को बहुत से सबक मिले. उदाहरणस्वरुप इंदिरा गाँधी जैसा कोई ज़ब वंशवाद का उत्पाद (प्रोडक्ट) सत्ता प्राप्त करता है तो अधिनायकवाद की प्रेरणा तथा डी.के. बरुआ, सिद्धार्थ शंकर रे एवं बंशीलाल जैसे चाटुकारों के व्यक्ति पूजन के भावना से पथभष्ट होकर लोकतान्त्रिक मर्यादाओं को कुचलने लगता है. पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का कहना था कि, “जनतांत्रिक तरीके से मिली हुई सत्ता को जब हम व्यक्तिगत मानने लगते हैं तो बहुत सारी कठिनाइयां होने लगती हैं.” यहां तक कि ‘इंडिया इज इंदिरा’ के घृणास्पद नारे तक लगने लगते हैं.
ऐसी सत्ता राष्ट्र की संरक्षा के नाम पर अपने दुष्कर्मों का औचित्य सिद्ध करती है. इतिहास में प्रमाण उपलब्ध है कि राष्ट्रवाद के नारे और राष्ट्र की सर्वोच्चता के सिद्धांत पर ही तानाशाही की बुनियाद निर्मित होती है. टॉमस हॉब्स के शब्दों में कहें तो ‘लेवियाथन’ जैसा दैत्य पैदा हो जाता है.
इसी दौर में महात्मा गांधी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी संत उपाधि धारक विनोबा राजसत्ता के पक्ष में मौन धारण कर सकते हैं, संपूर्ण क्रांति को संपूर्ण भ्रांति कहकर उपहास उड़ा सकते हैं. इतना ही नहीं लोकनायक जयप्रकाश का विरोध करते हुए कह सकते हैं कि ”मैं तो गणसेवकत्व कहता हूं, बिहार में तो लोकनायकत्व चलाया जा रहा है.” बाकी जेपी का जो बचा हुआ अपमान वह कर नहीं पा रहे थे उसकी जिम्मेदारी उनके अघोषित प्रवक्ताओं जैसे निर्मला देशपांडे आदि ने उठा ली.
आपातकाल ने सिखाया कि युगपुरुष, महदी, मसीहा या क्रांतिकारी की वैचारिक ऊर्जा जीर्ण या बूढ़ी नहीं होती. ये योद्धा किसी भी उम्र में समाज के लिए लड़ने के लिए खड़े हो सकतें हैं. 1930 में ही महात्मा गांधी ने कहा था कि स्वतंत्रता के बाद यदि वे जीवित रहते हैं तो अंग्रेजों के साथ जैसी लड़ाई लड़नी पड़ी, उससे कहीं ज्यादा कठिन अहिंसक लड़ाइयां स्वतंत्रता के बाद लड़नी पड़ेगी. अपनी परिकल्पना में गांधी बिल्कुल ठीक थे. आपातकाल में जनसंघर्ष का जिम्मा उनके ही एक शिष्य जेपी ने उठाया.
इस काल की एक बड़ी सीख यह भी थी कि जगमोहन, पी.एस. भिंडर, नवीन चावला, पी. एन. हक्सर, धर जैसे नौकरशाहों को अनावश्यक प्रश्रय एवं एकाधिकार प्रदान करने का दुष्परिणाम ये होगा कि वे राजतंत्रिक सेवक सरिखा व्यवहार करते हुए संविधान प्रदत्त अधिकारो का दुरूपयोग करेंगे. इंदिरा एवं संजय गाँधी के शह पर वे जनता ही नहीं बल्कि चुने हुए जनप्रतिनिधियों का अपमान एवं दमन करने पर उतर आएंगे.
आपातकाल ने सैद्धांतिक आवरण में छुपे राजनीतिक अवसरवाद का कलुषित चेहरा भी प्रकट किया. जब वर्ग संघर्ष एवं राज्य को दमन का प्रतीक मानने वाले जनवाद के सिपाही वामपंथी भी इसे अनुशासन-पर्व बताकर दमनकारी राजसत्ता के समर्थक हो गये. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी पत्रिका ‘पार्टी लाइफ’ के मई 1976 के अंक में आपातकाल का समर्थन करते हुए लिखा, ‘आपातकाल ने नि:संदेह भारतीय जनतंत्र के विरुद्ध आंतरिक प्रतिक्रियावाद और साम्राज्यवाद की शैतानी योजनाओं पर भारी आघात किया.’
लेकिन देश तब तक परिवारवाद की भावुक अपीलों, व्यक्ति पूजन की भावना एवं बौद्धिक तर्कों के जंजाल से उबर चुका था. रामगोपाल दीक्षित के गीत “जयप्रकाश का बिगुल बजा तो जाग उठी तरुणाई है” के रूप में जनता का सीधे संघर्ष के लिए आह्वान हुआ. लोकनायक के क्रांति पथ की जनता अनुगामी हुईं. सत्ता क़ो दिनकर के शब्दों में “सिंहासन खाली करो की, जनता आती है” की सलाह दी गई. लेकिन सत्ता ने अपने अहंकार एवं चाटुकारिता के दंभ में क्रूरतापूर्ण दमन का मार्ग अख्तियार किया. जनता की तरफ से गोपाल दास नीरज के शब्दों में “संसद जाने वाले राही कहना इंदिरा गांधी से, बच न सकेगी दिल्ली भी अब जयप्रकाश की आंधी से” के रूप में सत्ता को चेतावनी भी जारी हुईं थी, किंतु नियति ने सत्ताधारियों की बुद्धि भ्रष्ट कर रखी थी. सनातन धर्म कहता ही है, ‘जाको प्रभु दारुण दुःख देई, ताकी मति पहले हरि लेई.’
थोरो का मानना था कि अन्यायी सत्ता के अंतर्गत रहने वाले प्रत्येक ईमानदार व्यक्ति का स्थान कैदखाने में होता है. जनता ने भी टकराव का मार्ग चुना. देश ने ये दिखाया कि उसकी आत्मा सुषुप्त नहीं है. जनता तब नैतिक सत्ता के पुंज जेपी के पीछे उबल पड़ी वह जेलों में पहुंचकर भी झुकने क़ो तैयार नहीं थीं. अंततः जेपी के लोकनायकत्व की आंधी में इंदिरा सरकार उखड़ गई. इसके बाद लोकतंत्र के पर्व आम चुनावों का आयोजन हुआ. वरिष्ठ समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा लिखते हैं, “ये पैगंबर ही है जो अपने जीवन और उपदेशों से मनुष्य की एक छवि का निर्माण करते हैं.” जेपी द्वारा निर्मित सत्ता की लोकतंत्र विरोधी छवि ने जनता दल को जम्हूरियत का सिरमौर बना दिया.
हालांकि आपातकाल के प्रतिक्रियास्वरुप उपजी संपूर्ण क्रांति भी अपने लक्ष्यों को पाने में असफल रही. इतिहास उस भटकाव का मूक दर्शक बना जिसने जनाकांक्षाओं को अपमानित किया. किंतु जनता ने फिर से महाभारतकालीन गलती दुहराई. जनता सरकार के काल में भी संसद और विधानसभाओं में स्वतंत्रता संघर्ष के मूल्यों का चीरहरण होता रहा और जनता भीष्म पितामह और गुरु द्रोण एवं कृपाचार्य की भांति मौन धारण किये रही.
1973 में जेपी ने कहा था, “मैं जानता हूं कि राजनीति संतो के लिए नहीं है” तो जिनपर उन्होंने क्रांति के मूल्यों की स्थापना की जिम्मेदारी दी थी, वे सभी राजनीति के पुराने चावल थे जिनसे संतत्व की उम्मीद बेमानी थी. जनता दल के गठबंधन में बंधा शीर्ष नेतृत्व भी अवसरवादियों का समूह था, जिनके लिए संपूर्ण क्रांति सत्ता प्राप्ति का एक सुनहरा मौका बन गया था. चूँकि लोभ एवं स्वार्थ पर आधारित नेतृत्व द्वारा जनता का संघर्ष अपमानित हुआ था अतः उसने भी इस सरकार के ध्वँस क़ो मौन होकर देखा.
जेपी तो दशकों पहले अपने लिए संसद एवं संवैधानिक पदों का मार्ग बंद कर चुके थे. फिर हठी एवं आत्ममुग्ध मोरारजी देसाई, विघटनकारी राजनेता चरण सिंह एवं उनके उपद्रवी शागिर्द राजनारायण, सत्ता क़ो आतुर जगजीवन राम तथा सरकार बचाने में लगे चंद्रशेखर आदि कोई भी इंदिरा गाँधी का विकल्प नहीं बन सका. सत्ता की खींच-तान के रूप में लोकतान्त्रिक मूल्यों के अनादर, राजनैतिक अस्थिरता एवं अनैतिकता ने विकल्पहीनता की स्थिति पैदा कर दी. नतीजतन वापस जनता क़ो इंदिरा सरकार क़ो सत्ता सौंपनी पड़ी. और धीरे-धीरे क्रांति-मूल्य विस्मृत इतिहास का हिस्सा बनते गये.
नौजवानों पर ही जेपी ने सबसे ज्यादा भरोसा किया था. उन्हें उम्मीद थी कि यह संपूर्ण क्रांति को देश के हर कोने और हर घर तक ले जाएंगे. लेकिन जल्दी ही जेपी के साथ देश का भ्रम भी टूटा. पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के शब्दों में कहें तो “सबसे ज्यादा धोखा उन्हीं नौजवानों ने ही दिया. जो जल्दी ही सत्ता के चकाचौंध में फंस गए.”
क्रांतिकारी शचिन्द्र नाथ सान्याल ने लिखा है कि, देशबंधु दास ने कहा था कि बुढ़ापे तक वकालत के पेशे में उनका बड़े-बड़े धोखेबाजों से पाला पड़ा था, किंतु असहयोग आंदोलन में उन्होंने जितने धोखेबाज आदमी देखे वैसे जिंदगी भर में नहीं देखे थे. ऐसा ही कुछ संपूर्ण क्रांति आंदोलन के साथ भी हुआ. चंद्रशेखर बताते हैं कि किस तरह पहली बार विधायक एवं सांसद बने छात्र नेता मंत्री पद के लिए आतुर थे.
संपूर्ण क्रांति आंदोलन ने पिछड़े और दलित समाज के युवाओं को आगे आने एवं समाज का नेतृत्व करने की प्रेरणा एवं आधार उपलब्ध कराया. लेकिन इसका भी एक नकारात्मक प्रतिफल यह हुआ कि जेपी के जातिविहीन समाज का स्वप्न साकार करने के बजाय इन युवाओं जैसे लालू यादव, रामबिलास पासवान इधर मुलायम सिंह यादव आदि ने जातिवाद के अभेद्य किले खड़े किये. एक तरह से यह पिछड़ावाद का उदय था. आगे चलकर अपने राज्यों में इसी जातिवाद के आधार पर सरकारें स्थापित की. तत्पश्चात् इन नेताओं ने जातिवाद को संस्थागत रूप दिया, परिणामस्वरुप बाद में सत्ता प्रायोजित हिंसक जातिगत संघर्षों की भूमिका तैयार होने लगी.
अतः इतिहास की यह सीख है कि भावतात्मक जुड़ाव के बाद भी किसी के प्रति अंधभक्ति पाल लेना उचित नहीं होता. आज जो सत्ता के विरुद्ध खुद को विद्रोही (रिबेल) बता रहे हैं, संभव है कल वे अनुसारक या अनुवर्ती (कन्फॉर्मिस्ट) बन जाय. इसलिए सत्ता में बदलाव के साथ उनपर जनता को अपने अधिकारों एवं असंतोष का प्रकटन करने के साथ ही जनप्रतिनिधियों पर अंकुश रखना होगा वरना उसी अफसोस एवं धोखे से गुजरना होगा जिससे वो 1977 के बाद गुजरी थी.
आपातकाल का इतिहास सिर्फ जम्हूरियत को ही नहीं बल्कि इसके नेतृत्वकर्ता वर्ग को भी सिखाता है कि जनता से प्राप्त समर्थन तथा शक्ति असीमित नहीं होती. जिस दिन जनता को यह लगता है कि उसके प्रतिनिधि ने उसके अस्तित्व पर कुठाराघात करना शुरू कर दिया है तो जनता उसके विरुद्ध भी खड़ी होगी तथा स्वप्रदत्त आभामंडल ध्वस्त करने में ज्यादा वक्त नहीं लगाती है. जनता का प्रेम अगर किसी नेता में सर्वशक्तिमान होने का भ्रम पैदा करता है तो वहीं जनता उस भ्रम को तोड़ती भी है.
यह भी जरूरी नहीं कि हर बार उसे जेपी जैसा लोकनायक नेतृत्व के लिए मिल जाए. जनता कई बार अनियंत्रित ही सही लेकिन खुद की नैतिकता के बूते सत्ता के विरुद्ध खड़ी हो जाती है. 1942 की अगस्त क्रांति इसका उदाहरण है. एक बार जब जनता सत्ता के विरुद्ध खड़ी हो जाती है फिर वह नेतृत्व भी ढूंढ़ लेती है. इतिहास गवाह है की भीड़ से उपजी क्रांति ने नेपोलियन एवं लेनिन जैसे नेता पैदा किए हैं.
आपातकाल से जुड़े नेताओं को मिला आभामंडल भी एक प्रेरणात्मक सीख है कि सत्ता के दमन के विरुद्ध खड़े हो जाने वाले लोगों को राष्ट्र सम्मान की दृष्टि सें देखता है. इसका उदाहरण प्रस्तुत करते हुए वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय कहते हैं, “वाजपेयी जी को इसलिए मौका मिला कि वो बिहार आंदोलन में शामिल थे, मोदी प्रधानमंत्री इसलिए बने क्योंकि वह भी बिहार आंदोलन सें सम्बंधित थे.”
देश की जम्हुरियत क़ो आपातकाल के इतिहास से सीखने की जरुरत है. प्रो. शेक अली ने कहा है “इतिहास की उपेक्षा करने वाले राष्ट्र का कोई भविष्य नहीं होता.” संपूर्ण क्रांति आंदोलन ने भारतीय लोकतंत्र को जो सीख दी उसका कितनी विवेचना जनता ने किया, यह ऐसा सवाल है जिसे देश के हर नागरिक को स्वयं से पूछना चाहिए. आखिर लोकतंत्र का अर्थ ही जनता का, ‘जनता के लिए और जनता के द्वारा’ है तो इसके जवाब तो उसे ही तलाशने होंगे.