इमरजेंसी: आजाद भारत का सबसे काला अध्याय

अगले साल 26 जून, 2025 को आपातकाल के पचास वर्ष पूरे हो रहे हैं। अगर पीछे मुड़कर इसे हादसे या दुर्घटना के रूप में देखें तो कुछ लोगों में आपातकाल को लेकर भ्रम की स्थिति बनी हुई है। पहला भ्रम तो यही है कि आपातकाल 25 जून 1975 को लगा था। जबकि ऐसा नहीं है। आपातकाल की आधिकारिक घोषणा 26 जून की सुबह रेडियो पर आकर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने स्वयं की थी।

पूरे घटनाक्रम को समझने का प्रामाणिक आधार कांग्रेस के तत्कालीन नेता एवं पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे की वह गवाही है, जो गवाही उन्होंने शाह आयोग में दी थी। शाह आयोग का गठन आपातकाल में हुई ज्यादतियों की जांच के लिए 1977 में किया गया था।

तब सिद्धार्थ शंकर रे पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री होने के साथ ही बैरिस्टर एवं इंदिरा गांधी के करीबी नेताओं में थे। 12 जून, 1975 को इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित हुआ तो सिद्धार्थ शंकर रे को दिल्ली बुला लिया गया था। उन्होंने शाह आयोग को बताया था कि 25 जून, 1975 को सुबह लगभग साढ़े नौ बजे इंदिरा गांधी ने उनसे पूछा कि मंत्रिमंडल की बैठक बुलाए बिना आपातकाल को कैसे घोषित किया जा सकता है?

कुछ घंटे बाद सिद्धार्थ शंकर ने उन्हें सलाह दी कि अगर राष्ट्रपति आपातकाल संबंधी दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर देते हैं, तो आपातकाल की कार्यवाही शुरू की जा सकती है, परंतु मंत्रिमंडल की बैठक बुलाए बिना या मंत्रिमंडल की सलाह के बिना आपातकाल की घोषणा नहीं की जा सकती है। इसके बाद आपातकाल की घोषणा संबंधी दस्तावेज पर केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक के बिना तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद पर दबाव बनाकर हस्ताक्षर कराए गए थे।

आपातकाल की घोषणा संबंधी दस्तावेज का मसौदा 1, अकबर रोड पर केंद्रीय मंत्रिमंडल की सुबह चार बजे हुई बैठक में रखा गया। मंत्रिमंडल सचिव ने राष्ट्रपति के हस्ताक्षर वाले आपातकाल के मसौदे को जब पढ़ा तो किसी ने भी कोई आपत्ति नहीं व्यक्त की, लेकिन विदेश मंत्री स्वर्ण सिंह ने यह प्रश्न उठा दिया था कि आखिर आपातकाल की आवश्यकता क्या है? इस तरह देखें तो देश में आपातकाल की घोषणा आधिकारिक रूप से 26 जून की सुबह लगभग आठ बजे रेडियो पर इंदिरा गांधी ने स्वयं की थी, जबकि पुलिस कार्रवाई 25 जून की रात से शुरू हो चुकी थी।

समाचार पत्रों के कार्यालयों में छापे डाले जा रहे थे, बिजली काटी जा रही थी और गिरफ्तारियां शुरू हो चुकी थीं। दिल्ली में गांधी शांति प्रतिष्ठान से जयप्रकाश नारायण को गिरफ्तार कर लिया गया। उनकी गिरफ्तारी की सूचना मिलने के बाद चंद्रशेखर जब उनसे मिलने के लिए गए तो उन्हें भी पुलिस ने पकड़ लिया। चंद्र शेखर तत्कालीन समय में कांग्रेस के नेता और कांग्रेस कार्यसमिति के निर्वाचित सदस्य थे। उनका चुनाव इंदिरा गांधी की इच्छा के विपरीत हुआ था।

यहां पर दो प्रश्न सहज भाव से सभी के मस्तिष्क में उठते हैं। पहला यह कि क्या आपातकाल  आवश्यक था और दूसरा यह के क्या जेपी आंदोलन से बनी परिस्थितियों या दबाव के कारण आपातकाल लगाया गया था? दोनों ही प्रश्नों पर विचार करें तो उत्तर ‘नहीं’ में मिलता है। न तो आपातकाल की आवश्यकता थी और न ही जेपी आंदोलन के कारण आपातकाल लगाया गया था।

आपातकाल सिर्फ इंदिरा गांधी की ताना शाही के कारण लगा था और इसका प्रमाण बिशन टंडन की डायरी से मिलता है। वास्तव में आपातकाल लगने का कारण वह मुकदमा था, जिसने इंदिरा गांधी को सत्ता से हटा दिया था। उनकी लोकसभा सदस्यता 6 साल के लिए अवैध हो गयी थी।

यह मुकदमा 1971 के चुनाव में मिली हार के बाद राजनारायण ने दाखिल किया था, जिस पर तीन वर्ष तक कोई सुनवाई नहीं हुई। नवंबर, 1974 में इंदिरा गांधी के विरूद्ध चुनाव में धांधली करके जीत हासिल करने संबंधी मुकदमे की सुनवाई शुरू हुई। न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा के न्यायालय में शुरू हुई सुनवाई में इंदिरा गांधी को तलब कर लिया गया।

इंदिरा गांधी को पांच घंटे तक न्यायालय में खड़े रहना पड़ा और न्यायालय के सामने गवाही देनी पड़ी। प्रधानमंत्री कार्यालय के तत्कालीन संयुक्त सचिव बिशन टंडन ने अपनी डायारी में लिखा है कि ईष्वर न करें, कहीं इंदिरा गांधी मुकदमा हार गई तो अपनी कुर्सी बचाने के लिए वह दिन-रात एक कर देंगी। बिशन टंडन की यह आशंका सच हुई।

12 जून, 1975 को तीन घटनाएं हुई। सुबह लगभग 6 बजे इंदिरा गांधी के नजदीकी राजनयिक डी.पी. धर की मृत्यु हो गई। दिन में इंदिरा गांधी के विरूद्ध न्यायालय का निर्णय आया और शाम को गुजरात विधानसभा चुनाव का परिणाम आया, जिसमें कांग्रेस चुनाव हार गई और पहली बार जनता मोर्चा चुनाव जीत गया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने अपने निर्णय में इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता को अवैध घोषित कर दिया चुनाव में धांधली का आरोप प्रमाणित होने पर लेकिन उन्होंने अपने ही निर्णय पर टोटल स्टे भी दिया। इससे उच्चतम न्यायालय में निर्णय की समीक्षा की जा सकती थी। स्टे के कारण उच्चतम न्यायालय का आगामी निर्णय आने तक इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बने रहने में कोई कानूनी अड़चन नहीं थी।

12 जून को आए निर्णय के बाद सफदरजंग रोड के पास स्थित तत्कालीन गोल मेथी चैक के पास हरियाणा से चैधरी बंसी लाल के लोग रोजाना आकर इंदिरा गांधी के समर्थन में प्रदर्शन करने लगे थे, तो उधर सिद्धार्थ शंकर रे ने नानी पालकीवाला के साथ मिलकर न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा के निर्णय के विरूद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील करने की तैयार शुरू कर दी।

20 जून को दो घटनाएं हुई पहली यह कि इंदिरा गांधी ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध उच्चतम न्यायालय में अवकाशकालीन पीठ के न्यायाधीश वी.आर. कृष्ण अय्यर के समक्ष अपील दाखिल की। दूसरी यह कि इंदिरा गांधी पर कुर्सी छोड़ने के लिए  जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी, कांग्रेस (संगठन) और लोकदल ने मिलकर एक मोर्चा बनाया, जिसके अध्यक्ष मोरारजी देसाई और नानाजी देशमुख महासचिव बनाए गए। इंदिरा गांधी के विरोध में अब मोर्चा भी सक्रिय हो गया। इधर इंदिरा पर इस्तीफे का दबाव बढ़ता जा रहा था उधर कांग्रेस ने ‘इंदिरा इज इंडिया’ का नारा लगाना शुरू कर दिया। यह नारा कांग्रेस नेता देवकांत बरूआ ने दिया था, जो चाटुकारिता की सोच को दर्शाता है।

24 जून को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश वी.आर. कृष्ण अय्यर ने अपना निर्णय सुनाया। उनके निर्णय को अर्धनारीश्वर स्वरूप में देखा जा सकता है, क्योंकि इंदिरा को सजा भी मिली और राहत भी दी गई थी। निर्णय में इंदिरा गांधी के लिए राहत यह थी कि वह प्रधानमंत्री बनी रह सकती थी और सजा के रूप में निर्णय से इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता बहाल नहीं होती थी क्योंकि उनके चुनाव को वैध करने का कोई आधार ही नहीं था। तत्कालीन राजनीतिक परिदृश्य के अनुसार इंदिरा गांधी को कांग्रेस, संसदीय प्रक्रिया, लोकतंत्र, न्यायपालिका के व्यापक हित में संसदीय पार्टी की बैठक बुलाकर स्वतः प्रधानमंत्री पद छोड़ देना चाहिए था। अगर वह यह रास्ता अपनाती तो आपातकाल की कोई आवश्यकता नहीं थी।

20 जून को बने जनता मोर्चा ने राजधानी दिल्ली में 25 जून को एक बड़ी रैली की। रैली में जयप्रकाश नारायण को भी हिस्सा लेना था। सरकार ने उस रेलगाड़ी को रद्द कर दिया, जिससे जयप्रकाश को आना था। लेकिन वह हवाई जहाज से दिल्ली आए और रामलीला मैदान में अपार जनसमूह के बीच रैली हुई। रैली में जार्ज फर्नांडिस भी मधु लिमए के साथ पहुंचे थे। जार्ज को आषंका हो गई थी और उन्होंने मधु से कहा था कि रात में सतर्क रहनाए आपातकाल लगेगा। 

वैसे देश में आपातकाल थोपने की कोई आवश्यकता नहीं थी, पर प्रधानमंत्री पद की कुर्सी को नहीं छोड़ने के लिए हर तरह के अनुचित तरीकों का इस्तेमाल करके देश में आंतरिक आपातकाल लगाया गया था। मात्र कुर्सी बचाने के लिए स्वतंत्रता के सभी अधिकारों को बाधित किया गया। आपातकाल के दुष्परिणाम को देखें तो एक अतिरिक्त संवैघानिक सत्ता के रूप में संजय गांधी का उदय हुआ। प्रधानमंत्री के पुत्र के रूप में सत्ता.शासन में उनका अवैध हस्तक्षेप बढ़ता गया और उनके कारनामों ने जनाक्रोश को बढ़ाने में अपना योगदान दिया।

आपातकल को 70 के दशक में गजरात नवनिर्माण आंदोलन और बिहार आंदोलन से जोड़ कर देखा जाता हैए जबकि ऐसा नहीं है। गुजरात नवनिर्माण आंदोलन एक स्वतःस्फूर्त आंदोलन था। यह आंदोलन मोरबी में उन विद्यार्थियों ने आरंभ किया था, जो अपने शिषण संस्थान से जुड़ी विभिन्न समस्याओं का सामना कर रहे थे। यह आंदोलन विद्यार्थियों ने शुरू किया था और फिर इसका प्रसार हुआ।

इस आंदोलन के समर्थन में जयप्रकाश नारायण भी जनवरी, 1974 में गुजरात गए थे। जो यह समझते हैं कि बिहार का छात्र आंदोलन गुजरात में हुए आंदोलन की आगली कड़ी थी, तो वे गलत हैं। दूसरा यह कि छात्रों की समस्याओं से पैदा हुए स्वतःस्फूर्त आंदोलन में आग लगाने का काम इंदिरा गांधी के इशारे पर खुफिया एजेंसियों ने किया था। तत्कालीन समय में इंदिरा गांधी चाहती थी कि गुजरात के मुख्यमंत्री घनष्याम ओझा बनें, लेकिन चिमन भाई पटेल स्वयं मुख्यमंत्री बन गए थे। इंदिरा गांधी चिमन भाई को पद से हटाना चाहती थी। इसलिए उन्होंने आंदोलन का प्रयोग अवसर के रूप में किया।

1973 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद(अभाविप) का राष्ट्रीय अधिवेशन अहमदाबाद में हुआ। अधिवेशन का उदघाटन जे.बी. कृपलानी ने किया। अधिवेशन से पहले अभाविप ने बिहार में जो किया, उसे भी समझने की आवश्यकता है। बिहार में 1973 के मध्य में पटना विश्वविद्यालय में छात्र संघ के चुनाव होने थे। अभाविप मंत्री के रूप में मैं स्वयं चुनाव से जुड़ी व्यवस्थाओं को देख रहा था।

अभाविप का लक्ष्य चुनाव को जीतना था। इसीलिए समाजवादी युवजन सभा, युवा कांग्रेस सहित कई अन्य छात्र संगठनों के साथ मिलकर हम कार्य कर रहे थे। तत्कालीन समय में राज्य में काम कर रहे संघ के विभाग प्रचारक के.एन.गोविंदाचार्य ने पैनल के लिए अभाविप कार्यकर्ता सुशील मोदी और रविशंकर प्रसाद का नाम सुझाया। पैनल चुनाव जीत गया। पैनल की जीत बिहार की छात्र राजनीति के लिए एक बड़ी जीत थी क्योंकि पहली बार अभाविप के पैनल ने पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ में अपनी जीत दर्ज कराई थी। अभाविप कार्यकर्ता सुशील मोदी महासचिव, रविशंकर प्रसाद सह सचिव और लालू प्रसाद अध्यक्ष बने।

अभाविप पैनल की यह जीत बिहार में छात्रसंघ की एक बड़ी जीत के रूप में देखी गई। इसके बाद पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ ने छात्रों से जुड़ी समस्याओं को दूर करने के उद्देश्य से एक आंदोलन की तैयारी आरंभ कर दी। इसके लिए अन्य सभी छात्र संगठनों से संपर्क किया गया। नवंबर, 1973 में अभाविप का तीन दिवसीय अधिवेशन धनबाद में हुआ। जिसमें हर जिले से अभाविप से जुड़े विद्यार्थियों एवं अध्यापकों ने हिस्सा तो लिया ही, साथ ही अन्य सहयोगी छात्र संगठनों के बड़े नेता पर्यवेक्षक के रूप में अधिवेशन में आए, जबकि कुछ संगठनों के नेता व्यक्तिगत रूप से शामिल हुए।

अभाविप के इसी अधिवेशन से बिहार में छात्र आंदोलन की नींव पड़ी। धनबाद अधिवेशन के बाद पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ ने राज्य के छात्र नेताओं का एक सम्मेलन आयोजित किया। अभाविप द्वारा फरवरी, 1974 को आयोजित सम्मेलन में सभी छात्र संगठनों के नेताओं एवं प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। यह अलग बात है कि बाद में वामपंथी छात्र संगठनों ने इंदिरा गांधी के प्रति अपना समर्थन दिखाते हुए अपनी दूरी बना ली। सम्मेलन के बाद अभाविप सहित अन्य छात्र संगठनों ने ग्यारह सदस्यीय संचालन समिति का गठन किया, जिसके बाद निर्धारित रणनीति पर 18 मार्च, 1974 को बिहार में छात्र आंदोलन आरंभ हुआ।

1971 के लोकसभा चुनाव में मिली पराजय के कारण तब विपक्ष हतप्रभ था। अभाविप के आंदोलन से विपक्षी नेताओं में यह उत्सुकता थी कि अभाविप यह सब किसी सनक में तो नहीं कर रही है। विपक्षी नेता लगातार प्रश्न उठा रहे थे कि छात्र आंदोलन का जो आह्वान किया है, उसमें कितने लोग हिस्सा लेंगे, जब उनको यह बताया जाता था कि संख्या हजारों में होगी, तो उन्हें विश्वास ही नहीं होता था। जब 18 मार्च, 1974 को आंदोलन आरंभ हुआ तो पटना की सड़कों पर जुटी छात्रों की संख्या देखकर हर कोई आश्चर्य में था। पुलिस कार्रवाई के कारण उस दिन हिंसा हुई। बाद में जयप्रकाश नारायण भी छात्र आंदोलन से जुड़ गए और 8 अप्रैल को उन्होंने एक मौन जुलूस का नेतृत्व किया। 

अभाविप छात्र शक्ति का प्रतिनिधि संगठन धीरे.धीरे बना है। उसका जो वैचारिक और संगठनात्मक विकास हुआ, उसमें बहुतों ने अपनी जिंदगी लगा दी। आज 2024 में अभाविप बड़े छात्र संगठन के रूप में है। यह संतोष की बात है।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Name *