भारत में वामपंथी राजनीति का अवसान

 

    शिवेंद्र सिंह वर्तमान भारतीय राजनीति में वामपंथ के लिए यह सबसे बुरा वक्त हैं, बुरा इसलिए क्योंकि वो राजनीतिक रूप से इस समय सबसे कमजोर स्थिति में हैं.संसद में उनकी संख्या नगण्य है. जिस बंगाल में वामपंथी दल 33 वर्षों से सत्ता में थे वहाँ वे अपना वजूद बचाने की कोशिश में है. ताज़ा विधानसभा चुनाव के परिणाम ने उनके अस्तित्व पऱ ही प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया.  त्रिपुरा में 25 सालों की वामपंथी सत्ता और माणिक सरकार का पतन हो गया. त्रिपुरा के बेलोनिया शहर में ढहाई गई लेनिन की प्रतिमा को वामपंथी राजनीति के अवसान के प्रतीक के तौर पऱ देखा गया. यही नहीं, एक समय देश भर के कॉलेज कैम्पस में खासा लोकप्रिय रही वामपंथी विचारधारा और उसके छात्र संगठनों का मुख्य प्रभाव जेएनयू और जाधवपुर विश्वविद्यालय तक सिमट कर रहा गया है. वामपंथ के मानस पुत्र माओवाद ने भारत में ‘बंदूक की नली से सत्ता’ का ख्वाब जरूर देखा किंतु वो भी अब खुद कों बचाने की जहद्दोंजहद में लगा है. माओवादियों का हौव्वा चाहें जितना भी खड़ा किया जाये सबको पता है की वो अपने इतिहास के सबसे कमजोर क्षणों में हैं. देश के बाकी राज्यों में वामपंथी दलों को अपने पहचान का ही संकट है. राष्ट्रीय दल तो दूर वे क्षेत्रीय दलों का भी सामना करने में सक्षम नहीं रहे हैं.
  हालांकि केरल में वामपंथ अपना दुर्ग बचाने में सफल रहा. संभवतः यह पहली बार था जब केरल में कोई सरकार दुबारा सत्ता में आई. लेकिन केरल की जीत को मात्र वामपंथी राजनीति की जीत के तौर पर नहीं देखा चाहिए. केरल का मसला बिल्कुल ही अलग है. केरल में जनसंख्या का अनुपात देखें तों चीज़े बहुत स्पष्ट हो जाएंगी. वहाँ कई बार हिंदू और क्रिश्चियन मिलकर वोट करतें हैं. उस लिहाज़ से अगर देखें तों कई बार राइट विंग के लोगों ने लेफ्ट को समर्थन दिया है. वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध लेखक अनंत विजय कहतें हैं, “पिनरई विजयन की जीत को टीना फैक्टर(There is no alternative) से जोड़कर देखा जाना चाहिए क्योंकि वहाँ कोई मजबूत विपक्ष नहीं था. कांग्रेस में अंतर्कलह थी, येन्नीथिला और ओमान चांडी के अपने ग्रुप के अतिरिक्त और कई छोटे ग्रुप थे. इनके जो अलाइज़ थे, मुस्लिम लीग आदि उनमें भी थोड़ी कलह थी, तों अपने घर को ठीक ना कर पाने का खामियाजा विपक्ष को भुगतना पड़ा.”
  कम्युनिस्ट नेता वामपंथ के अवसान की बात को स्वीकार नहीं करते. माकपा नेत्री वृंदा करात अपने एक आलेख में लिखती हैं, “वामदल तो हमेशा से ऐसे लोगों के निशाने पऱ रहे हैं और इस तरह के लोग वाम दलों के खात्में की घोषणा कई बार कर चुके हैं. लेकिन अगर मार्क ट्वेंन के शब्दों में कहें तो ‘वामपंथ की मौत’ की खबरों को कुछ ज्यादा ही बढ़ा चढ़ा कर पेश किया जाता है.” वामपंथ भले ही मरा ना हो परन्तु उसका राजनीतिक अवसान तो स्पष्ट दिख रहा है. वृंदा करात इसके पीछे कई कारण गिनाती हैं, जैसे कि ईवीएम में गड़बड़ी, विरोधी पार्टियों का चुनाव में बहुत अधिक धन खर्च करना और कार्पोंरेट घरानों द्वारा उनकी मदद करना तथा अपने मुख्य समर्थक वर्ग दलित – मजदूर -आदिवासियों -किसानों आदि की पार्टी द्वारा अनदेखी एवं कैडर और जनता के बीच बढ़ती दूरी आदि. ऐसे ही वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में वामपंथी दलों की गहरी पराजय के विषय में सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी का मानना था कि, ‘देश कों सांप्रदायिक आधार पर बाँट देने और समाज कों तोड़ देने वाली विचारधारा के कों इस हद तक फैला देने कि वजह से ही ऐसे नतीजे आए हैं.’ आगे वे कहते हैं,’वामपंथ कभी ख़त्म नहीं हो सकता और जितनी मजबूत इस तरह कि ताकतें होंगी, वामपंथ कि जमीन उतनी मजबूत होगी.’ शायद ऐसे तर्क वामपंथ के समर्थकों को दिलासा देने के लिए गढ़े जाते हो पर यथार्थ कुछ और ही है.
  वामपंथ का क्रमिक पतन चिंतन का विषय है. आज भी एक बड़ा वर्ग वामपंथ को एक न्यायपूर्ण और समतावादी समाज की स्थापना के आधार मानता है. USSR के विघटन और जनवादी चीन में पूंजीवाद के प्रसार ने एक वैकल्पिक राजनीतिक और आर्थिक संरचना की संभावना को न्यूनतम कर दिया है. इतिहास में जब भी कोई विशेष घटना हुईं है तो उसकी पटकथा कहीं ना कहीं बहुत पहले ही लिखी जा चुकी होती हैं. वामपंथी राजनीति के अवसान में अतीत से वर्तमान तक कई कारण अंतर्निहित हैं.
वामपंथ के आधारभूत सिद्धांत यथा, इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या, धर्म का निषेध, वर्ग संघर्ष पर जोर आदि परम्परागत भारतीय समाज को कभी स्वीकृत नहीं रहे. अगर इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या को स्वीकार करना पड़े तों आर्थिक प्रलोभन को रामायण के युद्ध का मुख्य कारक मानना पड़ेगा किंतु वास्तव में यह आर्य और रक्ष संस्कृतियों के मध्य श्रेष्ठता का संघर्ष था. धर्म भारत के प्राण तत्व सरीखा है. मुंशी प्रेमचंद ने श्रीकृष्ण और भावी जगत शीर्षक लेख ( कल्याण, अगस्त 1931) में लिखा है कि,’ भारत कि संस्कृति धर्म कि भीत्ति पऱ खड़ी कि गई हैं.’ वामपंथ ने धर्म को लेकर जिस तरह का रुख अपनाया उससे वामपंथ के प्रति एक स्थायी घृणा का भाव रखने वाला वर्ग भी तैयार हो गया. कभी ‘यंग बंगाल आंदोलन’ अनुयायी भी मूर्तिपूजकों को मिटाने कि कसमें खाते थे लेकिन कुछ वर्षो में उनके ही वजूद पऱ प्रश्न चिन्ह लग गया, मूर्तिपूजक आज भी अपनी आस्था के साथ अडिग हैं. यह सत्य वामपंथी भी समझते होंगे. एक समय सीपीआई के संस्थापक रहे सत्यभक्त सन्यास लेकर हरिद्वार चले गये. एक न्यूज़ पोर्टल की खबरों के अनुसार कभी नक्सलियों और वामपंथियों के बीच लोकप्रिय रहे कवि और गायक “गदर” (जी. विठ्ठलराव) एक पुजारी और हिंदू धर्म प्रचारक का जीवन व्यतीत कर रहे हैं. हाथों में ढपली लेकर क्रांतिगीत गाने की शुरुआत भी उन्होंने ही की थी. भारत कोई रूस नहीं जहाँ “तुर्गनेव के शून्यवाद” के सिद्धांत पऱ व्यावहारिक अमल की कोशिश प्रभावी होगी.
     वामपंथ की पृष्ठभूमि ऐतिहासिक तौर पर वैदेशिक रही है. एक विचारधारा के रूप में वामपंथ का उदय पश्चिम में हुआ. राजनीतिक चिंतन के धरातल पर प्लेटो(ग्रीस) को पहला साम्यवादी माना जाता है. वामपंथ के सैद्धातिक रूप रेखा के शिल्पकार मार्क्स और एंगेल्स जर्मन थे. वामपंथ के कल्पित समाज की यथार्थ परिणीति भी रूस में हुईं. स्पष्ट: इन आयातित सिद्धांतों की स्वीकृति भारतीय समाज में सहज़ नहीं रही है.  वामपंथी दल भी संभवतः इन विदेशी प्रभावों से मुक्त नहीं हो पाये. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना प्रवासी भारतीयों के एक समूह द्वारा सन 1920को ताशकंद में हुईं. अवनी मुखर्जी, वीरेंद्रनाथ चट्टोपध्याय, बरकत्तुल्लाह, भूपेंद्रनाथ दत्त, मुहम्मद शरीफ आदि के इस समूह का नेतृत्व मानवेन्द्रनाथ राय कर रहे थे, जिन पर मेक्सिको के मिखाईल बोरोदिन का बहुत प्रभाव था. भारतीय वामपंथी दल सिर्फ नाम से ही भारतीय थे, व्यवहार में वे अपने कार्यक्रमों के लिए निरंतर USSR के मुखापेक्षी रहे, या यूँ कहे की उन्होंने भारत को सोवियत चश्मे से देखा. सविनय अवज्ञा आंदोलन से लेकर भारत छोड़ो आंदोलन तक इनका रुख इसी से प्रेरित रहा. अनंत विजय कहते हैं, “कम्युनिस्ट पार्टियां दरअसल यहाँ इंटरनेशनल कम्युन के ब्रांच ऑफिस की तरह काम करतीं हैं. वो भारत के मानस और भारत की जनता की आकांक्षाओं को समझने में नाकाम रहीं. इसका खामियाजा उनकों भुगतना पड़ा.” 
        वामपंथी राजनीति अक्सर गतिमान राजनीतिक धारा के विपरीत ही नज़र आती है. स्वतंत्रता आंदोलन इनके लिए पूंजीवाद का पर्याय था.अगर वामपंथ की भाषा में कहें तो पूँजीवादियों ने ‘राष्ट्र’ की अवधारणा को जन्म दिया, ‘भारत-दुर्दशा’ को वाणी दी और कांग्रेस के जन्म के साथ राजनीतिक रूप से संगठित होना शुरू किया. 22 जून 1941 को जब अनाक्रमण सन्धि को तोड़कर नाज़ियों ने रूस पर हमला किया तो कल का साम्राज्यवादी युद्ध कम्युनिस्टों के लिए रातों-रात जनयुद्ध में बदल गया. इसके बाद तों जैसे वामपंथी भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के शत्रु ही बन गये. उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत का हर तरह सहयोग किया. कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र ‘पीपुल्स वार’ के हर अंक में कांग्रेस, गाँधी जी, सुभाषचंद्र बोस और जयप्रकाश नारायण की आलोचना की जाने लगीं, यहाँ तक की अपशब्दों का प्रयोग भी किया जाने लगा.इन्हीं कारणों से एन जी रंगा और स्वामी सहजानंद जैसे लोकप्रिय किसान नेताओं ने इनका साथ छोड़ दिया. 1940 के दशक में हैदराबाद में सीपीआई का प्रभाव बढ़ा. इसी के बूते इन्होंने पहले रजाकारों फिर भारतीय सेना के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष छेड़ दिया. यही प्रक्रिया पुन्नाप्रा वायलार आंदोलन (सन 1946) और तेभागा आंदोलन (सन 1947) के दौरान भी अपनायी गई.इससे भी आगे बढ़ते हुए वामपंथियों ने कैबिनेट मिशन के समक्ष भारत को 17 विभिन्न भाषाई और सांस्कृतिक इकाईयों में विभाजित कर देने का प्रस्ताव रखा तथा 1946 में एक प्रस्ताव द्वारा मुस्लिम लीग के देश विभाजन की माँग का समर्थन कर लीगी नेताओं के दूराग्रह को बल दिया.
  आजादी के पश्चात् भी 1962 के चीनी हमले के समय भारत का विरोध करना, इस कठिन समय में अमेरिकी सहायता का विरोध, 90 के दशक में भुगतान संतुलन से जूझ रही जर्ज़र अर्थव्यवस्था के संबल देने के लिए IMF से मिलने वाली सहायता और उदारीकरण की नीतियों का विरोध आदि ने वामपंथियों के लिए देश में निरंतर समर्थन कम किया. लेकिन वामपंथियों ने इतिहास से ना सीखने की शपथ ले रखी है. वे लगातार राष्ट्र विरोधी ताकतों के पक्ष में खड़े दिखते रहे हैं, वो चाहे JNU में देश विरोधी नारे लगाने वाले हो, सशस्त्र बलों पर हमला करने वाले कश्मीरी चरमपंथी हो, नक्सली हमलावर हों या CAA-NRC जैसे महत्वपूर्ण क़ानून के अनर्गल विरोध के नाम पर सड़कों पर उत्पात मचाने वाले हो. वामपंथियों को अगर भारतीय जनमानस की भावना को आहत करने में संभवतः अपने लिए कोई लाभ दिख रहा है, फिर तो यह एक सोचनीय विषय हो सकता है. यह तो दीवार पर लिखी इबारत को ना पढ़ पाने जैसी बात है.
       1940 के दशक में ही भारत का कम्युनिस्ट आंदोलन विभ्रम की स्थिति में आ गया, जो की वामपंथी दुस्साहस और दक्षिणपंथी संशोधनवाद के बीच खींचतान का शिकार हो गया. विदेशी प्रभाव को लेकर भी कम्युनिस्टो में गहरे मतभेद उभरे. इसकी तार्किक परिणीति थी इस आंदोलन का कई टुकड़ों में विभाजन. कांग्रेस विरोध के कारण भी पार्टी अंदर ही अंदर दो गुटों में विभाजित हो गई.  कांग्रेस का समर्थन करने के लिए पीसी जोशी के गुट को दक्षिणपंथी और समझौतावादी एवं  कांग्रेस विरोधी रणदिवे तथा आंध्रा गुट को वामपंथी और परिवर्तनवादी कहा गया. विभाजन हुआ तो निष्ठाएं भी बंटी. दक्षिणपंथी धडा जहाँ निर्देश के लिए मास्को की तरफ टकटकी लगाये देखता था, वहीं दूसरी तरफ वामपंथी गुट के लिए बीजिंग मैनलैंड बन गया था. 1962 के भारत -चीन युद्ध के समय यह मतभेद गहरा हो गया तथा अंततः 1964 में पार्टी की विभाजन हो गया. इससे वामपंथी आंदोलन की ताकत बंट गयी.
     कांग्रेस की नीतियों कर वामपंथ का आच्छादन ने भी कम्युनिस्ट दलों के विचारात्मक संघर्ष को कमजोर किया. 50 के दशक में नेहरू का सर्वाधिकारवादी नेतृत्व कॉग्रेस पर छा गया. उनके सम्पूर्ण कार्यकाल में वामपंथी विरोध-सहयोग – समन्वय की नीतियों पर चलते रहे. सन् 1927 में अपनी सोवियत यात्रा के पश्चात् नेहरू वामपंथ की ओर आकर्षित होते गये. वहाँ से लौटकर लिखी गई उनकी पुस्तक ‘सोवियत रशिया'(सन् 1929) में इसका प्रभाव स्पष्ट दिखता है. नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस की नीतियों पर दिनोदिन वामपंथ का प्रभाव बढ़ता गया. कांग्रेस मध्यम मार्ग से वामपंथ की ओर झुकती गयी, वैसे कमोबेश आज भी कांग्रेस की नीतियाँ ऐसी ही हैं. भूमि सुधार, दलित – आदिवासी उत्थान, क़ृषि सुधार, पंथनिरपेक्षता, समाजवाद जैसे कार्यक्रमों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता घोषित करती रही और न्यूनाधिक इस दिशा में प्रयासरत भी रही. इससे वामपंथियों के वैचारिक संघर्ष का आधार ही छिन गया.
  परंपरागत भारतीय समाज में प्रगतिशीलता के प्रसार और साम्यवाद के यथार्थ के नाम पर निर्मित कम्युन अनैतिकता के प्रसार एवं यौन कुंठा के तृप्ति का साधन बन गये, स्वयं गाँधी जी के अख़बार ‘हरिजन’ ने इन अनैतिक गतिविधियों की निंदा की. इससे वामपंथ की संस्कृतिक गतिविधियों के विरुद्ध समाज शंकालु हो गया. रेबा रायचौधरी अपने संस्मरण में बताती हैं की केवल सामाजिक और राजनीतिक विरोध ही नहीं था बल्कि महिलाओं के नाम पर निंदाजनक पोस्टर तक निकाले जाते थे.
  ऐसा नहीं की पूंजीवादी अमेरिका और भारत के वामपंथियों में सब कुछ भी विरोधात्मक ही है. इनमें समानता का एक महत्वपूर्ण बिंदु भी है,”चयनित चुप्पीयां और आक्रोश.” जिस तरह अमेरिका को सऊदी अरब में दमनकारी इस्लामी राजतन्त्र और मानवाधिकार हनन नहीं  दिखता, पाकिस्तान में हिन्दूओं की नारकीय जिंदगी नहीं दिखती, लेकिन नेपाल में हिन्दू राजतन्त्र के विरुद्ध कुछ नक्सलियों के विद्रोह में लोकतंत्र की उम्मीद और चीन में उइगरों के धार्मिक अधिकार का हनन जरूर दिखता है. वैसे ही भारत के तथाकथित पंथनिरपेक्ष वामपंथियों को हिन्दूओं के विरुद्ध हर सही गलत शिकायत आंदोलित कर देती है, उन्हें तुरंत संविधान पऱ खतरा और फासीवाद की आहट सुनाई देने लगती है.इन्हें अख़लाक़ दिखता है, लेकिन अंकित शर्मा नहीं. इन्हें ‘जिहाद’ से आपत्ति नहीं लेकिन ‘लव जिहाद’ के प्रमाणिक मामले भगवा दुष्प्रचार नज़र आता है. इनको एम. एफ. हुसैन द्वारा हिन्दू देवियों की  नग्न कलाकारी में अभिव्यक्ति की आजादी दिखती है, जबकि तस्लीमा नसरीन के लेखन में धर्म विशेष का अपमान. भगवान राम काल्पनिक लगते हैं  किंतु सड़कों पर यातायात रोककर नमाज़ पढ़ना खुदा की खिदमत जरूर लगती है.वामपंथियों के इस दुहरे आचरण से हिन्दू समाज का एक बड़ा वर्ग इनसे दूर ही नहीं हुआ है बल्कि अपने धर्म और संस्कृति का शत्रु भी समझता है.
  वामपंथियों का वर्ग-संघर्ष के प्रति दुराग्रह उनके पतन में एक बड़ा कारक रहा है. अनंत विजय कहते हैं, “ये देश बुनियादी तौर पर अहिंसक देश है, ये देश गाँधी का देश है, यहाँ हिसका कोई स्थान नहीं है. और वामपंथ कि शुरुआत हिंसा कि बुनियाद पर हुईं. हिंसा और भारत कि जमीनी हकीकत को ना समझ पाना उनकी भूल है.” परंपरागत वर्गीय संघर्ष कों भारतीय समाज में ना पाकर वामपंथियों ने उसे जातीय संघर्ष में तलाशा. शुरुआत में उन्हें इसमें सफलता भी मिली. दक्षिण भारत में ब्राह्मण और गैर ब्राह्मण का संघर्ष उत्तर भारत से कहीं अधिक तीखा था इसलिए वामपंथ का उत्थान भी दक्षिण से हुआ. लेकिन  भारतीय समाज परंपरागत रूप से समन्वयवादी रहा है. भारत के तीन प्रमुख धर्मग्रन्थ रामायण, महाभारत तथा  संविधान के प्रणेता क्रमशः महर्षि वाल्मीकि, महर्षि वेदव्यास और डॉ आंबेडकर हैं, और तीनों महापुरुष तथाकथित सवर्ण या उच्च जातियों से नहीं आते. यह तथ्य भारत में  वर्ग संघर्ष को अस्वीकार करने के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क है.
     प्रासंगिकता और क्षमता के आधार पऱ वामपंथी दलों के लिए दो मुद्दे प्रमुखता से दृष्टिगत होते हैं, पहला वामपंथ पूंजीवाद का मुकाबला करने में उतना प्रभावी नहीं रहा है. वैचारिक तौर पऱ वामपंथ ने पूँजीवाद को मिटाने की चाहें जितनी कसम खाई हो परन्तु उसके विरुद्ध प्रभावी संघर्ष नहीं कर पाया है. दूसरी, जब जातियाँ बीतते समय के साथ साथ सामाजिक पूँजी में तब्दील होकर राजनीतिक ताकत का श्रोत बनने लगीं, तब कम्युनिस्ट दलों के पासकिनारे खड़े होने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. कम्युनिस्ट ना तो जाति व्यवस्था के उन्मूलन की कोई प्रभावी कार्यक्रम बना पाए और ना ही जातिगत समीकरणों के अनुकूल कोई उपयुक्त रणनीति विकसित कर पाये. रही सही कसर 90 के दशक में हुए धार्मिक ध्रुवीकरण ने पूरी कर दी.
   आडवाणी की रथयात्रा और मंदिर आंदोलन तथा  मण्डल कमीशन अर्थात् मंदिर और मण्डल की राजनीति से वामपंथ की जमीन दरकने लगी थी. 90 के दशक की इन दो बड़ी घटनाओं ने भारतीय राजनीति की दिशा बदल दी. सन् 1853 में मार्क्स ने जातियों को ‘भारतीय प्रगति और भारतीय शक्ति के समक्ष निर्णायक अवरोधों’ के रूप में चिन्हित किया था. किंतु बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से जातीय पहचान राजनीतिक ताकत का स्रोत बनती गई. इन दशकों में बिहार समेत पूरे भारत में जातीय राजनीति का तेज़ी से उभार हुआ जिसने अंततः वामपंथ को नुकसान पहुंचाया. कभी बिहार को वामपंथ कि सबसे उर्वर भूमि माना गया था. अस्सी और नब्बे के दशक में बिहार में भयंकर जातीय संघर्ष हुए. मिलिशिया अर्थात जनसेनाओं को आधार बनाकर जातियों के बीच होने वाले खुनी टकराव से पूरा बिहार जल उठा.इस संघर्ष का प्रभाव उत्तर प्रदेश समेत पूरे भारत की जाति आधारित राजनीति पर पड़ा. वामपंथी नेताओं ने इस लड़ाई में अपनी राजनीति चमकाने की बहुत  कोशिश की और इन संघर्षो को खूब भड़काया भी, किंतु इसका लाभ वामपंथियों के बज़ाय पिछड़ी और दलित जातियों के नेताओं को मिला.उत्तर प्रदेश और बिहार में उभरे जातीय नेता जातिवादी गोलबंदी से सत्ता पर काबिज़ हुए और साथ ही उन्होंने जाति आधारित राजनीति से अपना प्रभाव बढ़ाया.इसके उलट सवर्ण जातियाँ में  वामपंथ की राजनीति के प्रति स्थायी धृणा का भाव पैठ कर गया.
 
संदीप देव अपनी किताब, ‘ कहानी कम्युनिस्टों की खण्ड -एक 1917 से 1964’ में लिखतें हैं, “सर्वहारा के नाम पऱ व्यक्तिगत अधिनायकवाद और बुर्जुआ विरोध के नाम पऱ अराजकतावाद, यही दो सिद्धांत सोवियत संघ से निकला और यही दो सिद्धांत दुनिया भर के कम्युनिस्टों का मूलमंत्र बन गया.” हिंसा के प्रति आग्रह ने भी वामपंथ को डुबाने में कोई कम सहयोग नहीं किया. 1967 में उत्तरी बंगाल के  नक्सलबाड़ी क्षेत्र में कम्युनिस्टों ने सशस्त्र विद्रोह कर दिया. 60 से 80 के दशक तक विश्वविद्यालयी छात्रों, निम्न और शोषित वर्ग, शहरी मध्यम वर्ग तथा वामपंथी बुद्धिजीवी वर्ग में खासा उत्साह था. नक्सल आंदोलन के दौरान हिंसा को आतुर वामपंथी गुट ने घोषित किया कि, भारत की सत्ता पर ‘कंप्राडोर’ पूँजीपति वर्ग का अधिकार है, माओ हमारा चेयरमैन है, भारतीय गणतंत्र ‘बंदरिया का तमाशा’ है. इसी के साथ क्रांति के सिद्धांत पर अमल के नाम पर ‘वर्गीय दुश्मनों’ कि हत्या शुरू की जो माओवाद के नाम पर आज तक जारी है. वैसे इनके ‘आराध्य देवताओं’ लेनिन और माओ ने इस प्रकार के उग्र वामपंथियों की कटु आलोचना करते हुए इसे ‘बचकाना मर्ज़’ और क्रांति के दुश्मन तक कहा है. दो कारणों से भारत में नक्सल आंदोलन अपनी लोकप्रियता खोने लगा, पहला, विदेशी ताकतों से सहायता लेने और दूसरा, हिंसा की अतिशयता और विकास का विरोध. आर्थिक मदद, सैन्य प्रशिक्षण और हथियारों के लिए माओवादियों ने एक समय USSR फिर चीन और अब पाकिस्तान तक से हाथ मिलाने से परहेज नहीं किया. भारतीय जनमानस ने इनकी छवि विद्रोहियों के बजाय देशद्रोहियों की अधिक बन गयी है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2009 -13 के दौरान 4969 नक्सली घटनाओं में सुरक्षा बलों समेत 3326 लोगों की मौत हुईं. 2014-18 के बीच यह आकड़ा 1321 था. आतंकी हमलों से अधिक जाने नक्सलीयों के हमलों में गई हैं. अप्रैल 2021 को बीजापुर में 22 जवानों की हत्या कर दी. वर्ष 2018 में अमेरिकी विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट में इन्हे दुनिया का चौथा सबसे ख़तरनाक संगठन बताते हुए भारत में 53 फीसदी हमलों का जिम्मेदार माना गया. सर्वहारा के संघर्ष के नाम पर शुरू हुआ आंदोलन अब ‘लेवी’ वसूली पर केंद्रित हो गया है. एक अनुमान के अनुसार प्रतिवर्ष लगभग 1200 करोड़ रूपये लेवी के रूप में वसूले जाते हैं. जांच एजेंसियों की रिपोर्ट के अनुसार कई नक्सली कमान्डर करोड़ो की चल- अचल संपत्तियों के मालिक हैं. एक समान वैचारिक आधार होने के कारण इन आलोचनाओं का नुकसान वामपंथी दलों को भी उठाना पड़ता है जिससे उनकी राजनीतिक ताकत का क्षय होता है.
 आजाद भारत में आपातकाल का दौर राजनीति के लिए एक प्रस्थान बिंदु माना जाता है. वामपंथियों ने जनसंघर्ष की इस बेला में दमनकारी सत्ता का सहयोग किया और इसे ‘अनुशासन पर्व’ की संज्ञा दी. हालांकि जेपी के प्रभाव से वामपंथियों को बंगाल में प्रसार और कांग्रेसीयों पर हावी होने का मौकामिला लेकिन शेष उत्तर भारत में उनका प्रभाव सिमटने लगा. इसी समय पिछड़ी और दलित जातियों के नेता भी उभरे, जिन्होंने वामपंथियों द्वारा खाली राजनीतिक जमीन पर खुद को खड़ा किया. ऐसा नहीं था की वामपंथ के ध्वज़वाहकों में केवल राजनीतिक संगठनों ने ही आपातकाल का समर्थन किया बल्कि प्रगतिशील लेखक संघ और जन नाट्य संघ (इप्टा) जैसे बुद्धिजीवी संगठन भी भी इस दौर में लोकतंत्र को रौद रही तानाशाही के पक्ष में खड़े हो गये. वामपंथी राजनीतिज्ञयों का आपातकाल  समर्थन तो फिर भी समझा जा सकता है, किंतु राजनीति के इस कुत्सित षड़यंत्र का लेखकों और कलाकारों द्वारा समर्थन तथा आपातकाल से जूझ रहे आम लोगों के लिए  प्रतिक्रियावादी होना समझ से परे है. फ्रांसीसी कवि और उपन्यासकार आरागो ने कहा था, “एक कलाकार के लिए सोशलिज़्म की तरफ भावनात्मक तरीके से आना एक प्राकृतिक प्रभाव है. लेकिन अगर वह शीघ्र ही साम्यवाद की बौद्धिक और क्रियात्मक बुनियादें मजबूत ना कर ले तो किसी भी जटिल और नाजुक ऐतिहासिक अवसर पर वह प्रतिक्रियावाद के दलदल में फँस सकता है.” अफ़सोस है की आरागो सही साबित हुए. असल में अगर इन वामपंथियों ने साम्यवाद को भी ठीक से समझा होता तो वंशवादी सत्ता की तानाशाही के विरुद्ध संघर्षरत जनता के विरुद्ध नहीं खड़े होते.  आज भी कई बुद्धिजीवी मिलेंगे जो सर्वहारा के प्रति समर्पण के नामपर उच्च वेतनभोगी पदों पर आसीन हैं, अगर बाबा नागार्जुन के शब्दों में कहें तो, ‘ बापू को ही बना रहे हैं तीनों बन्दर बापू के.’
   युवाओं को तरजीह ना देना भी वामपंथी दलों के लिए नुकसानदेह साबित हुआ है. वर्ष 2010 के पश्चात् राष्ट्रीय हो या क्षेत्रीय, हर दल ने अपनी अगली पीढ़ी के युवाओं को आगे करना शुरू कर दिया, जैसे सपा में अखिलेश यादव, कांग्रेस में राहुल गाँधी, राजद में तेजस्वी यादव, भाज़पा में योगी आदित्यनाथ, तृणमूल में अभिषेक बनर्जी. इसके बरअक्स वामपंथी दलों में शीर्ष पदों पऱ औसतन 60 वर्ष से अधिक आयु के नेता भरे पड़े हैं, यथा डी. राजा, विमान बोस, प्रकाश करात, सीताराम येचुरी, सुभाषिनी अली,  माणिक सरकार, मोहम्मद सलीम, वृंदा करात, पिनराई विजयन, तपन सेन आदि. वामपंथी दल ये तो चाहते हैं की युवा उनके झंडे उठाये और विचारों के अलम्बदार बने, किंतु शीर्ष स्तर पऱ युवाओं की भागीदारी उन्हें स्वीकार नहीं. वरिष्ठ पत्रकार अरुण त्रिपाठी इसे निकट चुनावों में लेफ्ट के पतन की एक बड़ी वजह मानते हुए कहते है, “उनका शीर्ष नेतृत्व बूढ़ा और जीर्ण हो चुका था  उसमें पुनरुथान  की कोई क्षमता नहीं थी. युवा नेतृत्व उन्होंने विकसित नहीं किया और दूसरी बात की उन्हें प्रशिक्षित भी नहीं किया.” जेएनयू के एक पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष को जरूर आगे किया गया, उन्हें लोकसभा चुनाव में बिहार से टिकट भी मिला जिसमें वो बुरी तरह हारे, लेकिन उनमें वामपंथ का भविष्य नहीं दिखा. वो रचनात्मक विरोध के बजाय उल जुलूल बयानों और घटिया किस्म की हरकतों के लिए ही चर्चा में रहें. अब मिडिया ने उन्हें भी किनारे कर दिया है.  हालांकि युवाओं में वामपंथ के प्रति बढ़ती अरुचि भी एक बड़ा कारण हैं जिससे वामपक्ष का फैलाव सीमित हुआ है. कई वर्षों पूर्व माओवादी नेता कोबाद गाँधी ने इकॉनामिक एंड पॉलिटीकल वीकली के एक अंक में लिखा था कि, उन लोगों को आत्मचिंतन करना होगा कि उनकी पकड़ जंगल के एक छोटे से हिस्से तक सीमित क्यों हो हो गई है, क्यों वे मैदानी इलाकों में नहीं बढ़ पा रहे हैं और क्योंकि वे युवा पीढ़ी तक पहुंचने में नाकाम हो रहे हैं.
  वामपंथियों के राजनीतिक प्रगति के लिए जरुरी था कि वे पूँजीवाद के अतिव्यापन और निरंतर बदलते स्वरुप को आम जनमानस के सम्मुख उजागर कर उनसे और निकटता स्थापित करते. समाजवाद कि व्यावहारिकता और आवश्यकता के बारे में जनता को कायल कर पाना तों दूर वामपंथियों ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदीयों के लिए मैदान खुला छोड़ दिया. वे भारतीय समाज से अभिन्न रूप से जुड़े कुछ मसलों यथा, जातिवाद, धार्मिक संघर्षों पर अपने परंपरागत सिद्धांन्तों से परे पुनर्विचार करने में असमर्थ रहे. अज्ञेय ने तारसप्तक की भूमिका में ‘राहों के अन्वेषी’ होने का प्रयोगवादी मुहावरा भले ही उछाला हो, पर सही मायने में नई राहों की तलाश ईमानदारी से नहीं हुईं
    ‘पृथ्वी चक्र परिवर्तनशील है और पृथ्वी गतिशील’, यह कथन विचारों और सिद्धांतों के संबंध में उतनी ही प्रासंगिक है. वास्तव में डेढ़ सौ साल पुरानी विचारधारा और कार्यक्रमों को वर्तमान में यथावत लागू या प्रचलित करना कठिन कार्य है. बीती सदी विचारधाराओं की थी किंतु मौजूदा समय  व्यावहारिक तकाजो का है. हर बदलते दौर के साथ नई पीढ़ी के विचार और आवश्यकतायें बदलते रहते हैं, समाज और राजनीति भी परिवर्तन से अछूते नहीं रहते. परंपरा के साथ नवीनता

का मेल ही श्रेष्ठता की रचना करता है. वामपंथ को समय के इस मोड़ पऱ रुककर व्यापक चिंतन और एक कठिन निर्णयन की आवश्यकता है क्योंकि इससे अधिक समय तक नहीं बचा जा सकता. आवश्यकता इस बात की भी है, कि वामपंथ का परिष्करण एवं नवीनीकरण इस प्रकार हो सके कि वह अपने मूलभूत सिद्धांतो के आलोक में समाज को आकर्षित कर सके. प्रश्न यहाँ सुझावों का नहीं बल्कि उनकी स्वीकृति का है. एक राजनीतिक विकल्प के रूप
में वामपंथ का अस्तित्व लोकतंत्र के लिए अति आवश्यक है तथा जम्हूरियत का खूबसूरत पक्ष भी. वामपंथ का अवसान लोकतंत्र और समाज के एक पक्ष के अवसान सारीख होगा, जो की उचित नहीं है. सबसे महत्वपूर्ण  प्रश्न वामपंथ के लिए भारतीय संस्कृति के सम्मान का है.अतीत की ओर देखने और विरासत के मूल्यवान तत्वों को सहेजने का प्रयास विवेक और मानवीयता के प्रगति की चिंता करने वाली हर संस्कृति को करना ही चाहिए, क्योंकि इसी के बलबूते वर्तमान की चुनौतियों का सामना करना केवल सहज़ ही नहीं आवश्यक भी प्रतीत होता है.

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