राजीव वोरा
अंग्रेजी के घातक बोझ से देश को मुक्त करने की बात सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने भी कही है। मूल बात अंग्रेजी को हटाने की है। रास्ता जो भी अपनाया जायेगा सही होगा। हिंदी बनाम अंग्रेजी का पुराना दांव असफल हो जाने के बाद अंग्रेजी भक्तों की ओर से नया दांव चला जा रहा है ‘एम्पावरमेंट’ का। अंग्रेजी भाषा सामर्थ्य देती है। साफ है कि ये जिस से समर्थ बने हैं उस भाषा के सामर्थ्य को कम नहीं होने देना चाहते। कितनों का सामर्थ्य खत्म करके कितने कम को समर्थ बनाया है यह नहीं देख सकते। इतनी अंध अंग्रेजी भक्ति इस तरह की दलील देने वालों के स्वार्थ का प्रमाण है।
अंग्रेजी भाषा का समर्थन अधिकतर किसी भी प्रकार का सवाल किये बिना इस मान्यता पर चला आ रहा है मानो भारत में अंग्रेजी और समस्त भारतीय भाषाओं का स्वाभाविक हेतु समान हो। मानो दोनों समान रूप से ज्ञान की भाषाएं हो। इसी लिए अगर सवाल उठता है तो यही उठता है कि अपनी भाषा अपनी होने से उसमे प्रतिभा का विकास होता है, परायी भाषा पर हमारा प्रभुत्व न होने के कारण प्रतिभा का दमन होना स्वाभाविक है। लेकिन यह केवल प्रतिभा के दमन का और परायी भाषा पर प्रभुत्व का सवाल नहीं है। प्रतिभा के सम्पूर्ण परिवर्तन का सवाल है। अंग्रेजी आत्मज्ञान की भाषा नहीं है; वह ऊर्ध्वगमन की नहीं, हमें अधोगामी बनाने का, भारत को तमस में ले जाने का साधन है।
भाषा के विषय में अगर एक बात समझ में आ जाय कि भाषा की जड़ें केवल भौतिक ही नहीं सांस्कृतिक, नैतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन में होती है। भाषा जिस विश्वदृष्टि और जीवनदृष्टि से पोषित होती है उसी के तत्वदर्शन, विचार प्रणाली और अवधारणाओं की वह वाहक होती है, उसी को सम्प्रेषित करती है। अंग्रेजी भाषा हमने स्वेच्छा से उस भाषा में संग्रहित ज्ञान को जान कर अपने ज्ञान में वृद्धि करने के लिए नहीं सीखी। वह हमें गुलाम बनाये रखने के लिए सिखाई गयी। इस घोषित उद्देश्य से कि एक ऐसा दलाल वर्ग भारतीयों में से पैदा करना है जो केवल अपनी चमड़ी के वर्ण में भारतीय हो बाकी जिनकी रुचि और जीवन दृष्टि अंग्रेजों की तरह हो जाये।
स्पष्ट है कि भारत में अंग्रेजी भाषा की भूमिका ज्ञान का प्रकाश फैलाने की नहीं बल्कि पश्चिम की भौतिकतावादी, भोगवादी जीवन दृष्टि अर्थात तमस फैलाने की है। भारत में अंग्रेजी आत्मज्ञान की संवाहक भाषा नहीं है, हमारे लिए वह प्रकाश से अंधकार की तरफ ले जाने वाली विद्या की संवाहक भाषा है। ताकि भारत खुद को भूल जाये और हमेशा के लिए पश्चिम पर निर्भर बना रहे। इसी को देखते हुए गांधी जी को कहना पड़ा कि ‘नकलची बंदरों से राष्ट्र नहीं बनता।’
भाषा केवल शब्द और व्याकरण नहीं है। भाषा के लिए शायद बेहतर शब्द बोली है: जो बोलना चाहते हैं उससे भाषा बनती है। हमारी बोली में हमारी जीवन दृष्टि बोलती है। हमारे जीवन सिद्धांत बोलते हैं। हमारी विश्व दृष्टि बोलती है। सनातन जीवन सिद्धांतों और मूल्यों से ओत-प्रोत जीवनशैली व विचारशैली से अंग्रेजी भाषा का लेना देना नहीं है। यही कारण है कि हमारे उच्च शिक्षित और प्रशासनिक अधिकारी समाज से कटे हुए हैं। यही स्थिति न्यायाधीशों और पूरी न्याय व्यवस्था की है। पत्रकारों और शिक्षा संस्थानों की है। कॉर्पोरेट जगत तो चलता ही इसी के बल पर है। अंग्रेजी भाषा भारत को अपनी सभ्यता से दखल कर पाश्चात सभ्यता का अंगभूत देश बनाने के लिए है। यह पश्चिम के उस प्रोजेक्ट की भाषा है जो भारत को ‘पिछड़ेपन’ और ‘जाहिलियत’ से ‘सभ्य’, ‘विकसित’ बनाने का है साथ ही ‘कीड़े’ में से मनुष्य बनाने के ‘मेटामॉरफोसिस’ की साधन रूप भाषा है (‘मेटामॉरफोसिस’ महान लेखक काफ्का की 1912 में लिखी अद्भुत कहानी है जो समाज वैज्ञानिकों के लिए मानव समाज के परिवर्तन को समझने का आधार बन गयी)।
लेकिन जिस सभ्यता की नीव आध्यात्मिकता में हो उस प्रजा का स्वत्व भौतिकता की बैठक पर खड़ी भाषा में अभिव्यक्त नहीं हो सकता। केवल काम चलाऊ अनुवाद हो सकता है और वह भी अप्रमाणभूत। अंग्रेजी को अपनाकर क्या इस अद्वितीय सभ्यता की संस्कृति से आने वाली पीढ़ियों को वंचित कर देना चाहते हैं और पश्चिम की सभ्यता का गुलाम राष्ट्र बन जाना चाहते हंै? जो अंग्रेजी के गुलाम हो चुके हैं, उस में रम गए हैं और जिन्हें सपने भी अंग्रेजी में आते हैं उनकी बात छोड़िये, बाकि लोग जिनके ऊपर उस का बोझ है, जो उसमें फंसे हैं, वे कैसे उससे मुक्त हों और अंग्रेजी केवल उतनी रहे जितनी कि अंतरराष्ट्रीय व्यवहार के लिए जरूरी है। उसके उपाय सोचना आवश्यक है। जिस दिन ऐसा हो गया देश की दमित प्रतिभा खिल उठेगी। देश अपनी आजादी का अर्थ समझने और उसे अर्थवान बनाने लगेगा। सामान्य लोगों को जो यह लग रहा है की देश और उसका राज्य अंग्रेजी पढ़े लिखों का है, वह उन्हें अपना दिखने लगेगा। अपनी आत्मछवि जो उन्हें नए भारत में नहीं दिखती वह दिखने लगेगी।
हर भाषा अपनी मातृ संस्कृति के लोगों की धर्म चेतना की वाहक होती है। इस अर्थ में वह सार्वभौमिक नहीं हो सकती, जब तक कि उसकी मातृ संस्कृति जीवन के सार्वभौमिक सिद्धांतो पर खड़ी नहीं हो। अंग्रेजी भाषा में ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह उनकी अनुभूति नहीं है। उनके आधुनिक युग के चिंतन और विश्व दृष्टि का विषय नहीं है। हमारी पूरी सभ्यता, सनातन धर्म, जिस एक शब्द की अनुभूति से खड़े हुए हैं वह शब्द अंग्रेजी में नहीं है। इसलिए इस शब्द की अनुभूति, उस अनुभूति की साधना; जीवन में उस मार्ग पर चलने और उस मार्ग के निर्माण के क्रम में जीवन दृष्टि की व्याख्या करने वाले समस्त प्रत्ययों के अर्थ बने।
अंग्रेजी में शब्द है फ्रीडम यानी स्वतंत्रता। लेकिन अंग्रेजी मे स्वराज शब्द को नहीं समझा जा सकता क्योंकि स्वराज न उनका विचार है, न उनके जीवन का लक्ष्य। इसीलिए उनकी अपनी समझ का अर्थ आज भी अंग्रेजी की श्रेष्ठ डिक्शनरी में स्वराज का अर्थ ‘भारत की स्वतंत्रता’ दिया गया है। स्वतंत्रता स्वराज का अर्थ होता और स्वराज से स्वतंत्रता का विपरीत अर्थ न होता तो गांधी जी को एक पूरा लेख ही न लिखना पड़ता और नेहरूजी द्वारा कांग्रेस के प्रस्ताव में स्वराज के स्थान पर इंडिपेंडेंस, स्वातंत्र्य शब्द का प्रयोग करने पर गांधी जी को सख्त विरोध न करना पड़ता और यह न कहना पड़ता कि तुम्हारे और मेरे विचारों में इतना जबरदस्त विसोधाभास है कि तुम्हें मेरे विरुद्ध विद्रोह का ऐलान कर देना चाहिए। उन्हें बताना पड़ा कि ‘स्वराज प्राचीन पवित्र वैदिक शब्द है जिसका अर्थ है आत्म-नियंत्रण और आत्म-संयम। प्रो. अवध किशोर शरण ने यही बात बहुत सटीक शब्दों में कही है ‘आधुनिक मानव अपनी कामना, वासना, मन के आवेग, भावना और निराधार अभिप्राय से अपनी सम्पूर्ण दासता को फ्रीडम और पावर समझ बैठा है’।
कहीं भी अंग्रेजी डिक्शनरी में या आधुनिक समाज विज्ञान की पुस्तकों में स्वराज का अर्थ वह नहीं दिया जो हमारे लोग समझते हैं। वह दिया है जो हमारे अंग्रेजी वर्ग ने सीख लिया है। भारतीय सभ्यता के मर्म को धारण करने वाले इस एक शब्द के साथ वर्तमान इतिहास में जो कुछ हुआ है वह बताता है कि एक पूरे राष्ट्र की उन्नति और अवनति एक प्रतीकात्मक, प्रेरणादायी शब्द के बदल दिए गए अंग्रेजी अर्थ से कैसे जुड़ी है। इसीलिए गांधी जी ने 1927 में कह दिया कि अच्छा हो कांग्रेस अंग्रेजी में काम करना बंद कर दे। और आजादी के बाद तो उन्होंने घोषणा कर दी ‘दुनिया को कह दो गांधी को अंग्रेजी नहीं आती।’
अंग्रेजी शिक्षा से दिमाग और संस्कार भरे हुए न होते तो स्वराज का अर्थ धर्म राज्य के रूप में, राम राज्य के रूप में सहज ही करते। लेकिन ‘धर्म राज्य’ और ‘राम राज्य’ अंग्रेजी संस्कृति से निकले शब्द, प्रत्यय, विचार और प्रतीक है ही नहीं। उन की भाषा में जब ये शब्द हैं ही नहीं तो नेहरू जी कैसे जानते कि स्वराज का अर्थ इंडिपेंडेंस नहीं होता। अंग्रेजी संस्कृति, भाषा में तो उन्होंने यही पढ़ा, लिखा और सीखा था कि रामराज्य तो कभी अच्छा था ही नहीं। वे और उनके प्रभाव का समस्त अंग्रेजी पढ़ा वर्ग स्वराज का अर्थ नहीं जानते थे, फ्रीडम का भारतीय अर्थ नहीं जानते थे, न ही समझना चाहते थे। मानने की तो बात ही दूर! इस वजह से गांधी जी को हिन्द स्वराज लिखनी पड़ी। यह बताने के लिए कि फ्रीडम, को एक सामान्य भारतीय कैसे समझता है। वह उसे समस्त वासनाओं के बंधनों से मुक्ति का मार्ग सरल करने वाले राज्य के अर्थ में समझता है। एक ऐसा राज्य जो शासकों और उनके समर्थकों की इच्छा, आकांक्षा और भावना से, फ्रीडम और पॉवर के आधुनिक मनुष्य की समझ से निर्देशित नहीं, बल्कि धर्म से निर्देशित हो। भारत की धर्मप्राण प्रजा को यह समझते देर नहीं लगी, जबकि अंग्रेजों की नकल में खड़ा हुआ अंग्रेजों से दीक्षित वर्ग यह नहीं समझ सका।
यूरोप में अपनी जरूरत के हिसाब से हुए रेनेसां और जिसे वे एनलाइटनमेंट कहते हैं। वास्तव में वह अन्धकार युग का उद्घाटन था। उसके हिसाब से जीवन दृष्टि और विश्वदृष्टि को प्रतिपादित करने वाले प्रत्ययों को ठीक विपरीत अर्थ दे दिया गया। दूसरे शब्दों में कहें तो इन और ऐसे प्रत्ययों को सेक्युलर अर्थ दे दिया गया। उदाहरणार्थ : ट्रुथ (सत्य), फ्रीडम (स्वतंत्रता), लिबरेशन (मुक्ति), मैन (मानव), नॉलेज(ज्ञान), सिविलाइजेशन (सभ्यता), रिलिजन (धर्म), प्रोग्रेस (प्रगति), मोरालिटी (नैतिकता और निति), जस्टिस (न्याय) इत्यादि। जब इन शब्दों का हम उपयोग करते है तब उनका वही अर्थ समझा जाता है जो आधुनिक अंग्रेजी भाषी प्रजा ने दिया है। हम अनर्थ को अर्थ समझ कर सोचते हैं कि हमने अपनी बात कह दी! जिस से अंधकार युग का उद्घाटन हुआ उसे ही वे जब ज्ञानोदय कहते हैं तो स्पष्ट है कि तब से अंग्रेजी भाषा तमस के फैलाव, प्रचार का वाहक बन गयी। अंग्रेजी भाषा पदार्थवादी, प्रकृति और समस्त जगत के प्रति विकार युक्त दृष्टि से स्थापित ‘ज्ञान’ परम्परा भारत में स्थापित करने हेतु लायी गयी।
रेनेसां और एनलाइटनमेंट से जिस नयी विकार-दृष्टि का विकास, प्रतिपादन और प्रतिष्ठा हुई इस का शायद सबसे उत्तम दृष्टांत जिसे आधुनिक विज्ञान का पिता कहा गया उस फ्रांसिस बैकन के कथन में है। उसने आधुनिक विज्ञान और आधुनिक मानव के लिए स्पष्ट दिशा निर्देश दे दिया कि उसे प्रकृति के साथ कैसा सम्बन्ध रखना है, कैसी दृष्टि से और कैसी भावना से देखना है, कैसा व्यवहार करना है। उस का यह प्रसिद्ध वाक्य है कि प्रकृति को इतना सताओ, इतना अत्याचार करो कि वह अपना रहस्य उगल दे।
इन्द्रियगम्य को ही सत्य ‘ट्रुथ’ और ज्ञान मानने वाले वैज्ञानिक युग की दृष्टि लेकर अंग्रेजी भारत लायी गयी। इस लेखक के अनुसार इसी सेक्युलर दृष्टि से सृष्टि के प्रति किये गए दुराचार की सजा प्रकृति ने आधुनिक मानव को चेतावनी के रूप में कोरोना भेज कर दी। इससे विपरीत हमारी सभी भाषाओं के साहित्य व संस्कार प्रकृति के प्रति भाव-दृष्टि से ओतप्रोत रहे हैं। लेकिन व्यवहार में हमने भी सेक्युलर दृष्टि अपना ली। अंग्रेजी ने इस देश की बौद्धिकता को वह पढ़ाया, लिखवाया और बुलवाया है जिस से भारत का बौद्धिक-राजनैतिक वर्ग अपनी ज्ञान परंपरा को छोड़ कर आसुरी सभ्यता की ज्ञान परम्परा का दलाल बन गया है। (‘आसुरी’ और ‘दलाल’- इन दोनों शब्दों का उपयोग गांधी जी ने आधुनिक सभ्यता और उसके प्रति आसक्त भारतीयों के लिए किया है)
परिणाम स्वरूप गाय और तुलसी को पूजने वाले समाज के प्रति हमारे पढ़े लिखे वर्ग का व्यवहार भी तुच्छ्भाव से भर दिया गया। सम्पूर्ण बौद्धिक क्रिया कलाप जो अंग्रेजी या उसकी अनुवादित हिंदी और अन्य भाषाओं में चलता है, वह हमें अनजाने में ही सेक्युलर (तामसिक, आध्यात्मिक भूमि से काट कर भौतिकवादी/भोगवादी) अधोमानव या आसुरी सम्पदा में लिप्त बनाती है। एक अर्थपूर्ण जीवन दृष्टि को खत्म कर शरीर सुख के साधनों का अम्बार लगाने की दौड़ में केवल व्यक्तिवादी, वर्तमानजीवी बना देती है। ऐसे में स्वाभाविक ही जिसकी लाठी उसकी भैंस का नियम आर्थिक राजनैतिक जीवन में स्थापित रहता है। आधुनिक अर्थशास्त्र को इसी कारण गांधीजी ने अनर्थ शास्त्र कहा। बलिष्ठ का बल निर्बल पर बढ़ता ही जाता है। इस अधर्म को, अन्याय को अनेक विचार वादों और अवधारणाओं से महिमा मंडित किया गया है, जिस सबके सम्मुच्चय रूपी ‘प्रोग्रेस’ की अवधारणा यूरोप ने अठारहवी शताब्दी में खोजी। अधर्म, अन्याय के सारे पाप इस ‘प्रोग्रेस’ की वेदी पर धुल जाते हैं, बता दिया जाता है कि कैसे अन्याय का शिकार खुद उसके लिए जिम्मेदार है। इस विचार के छल की शक्ति का इसी से अंदाज लगाया जा सकता है कि एक दूसरे के दुश्मन पूंजीवादी और मार्क्सवादी ‘प्रोग्रेस’ पर एक हैं। यहां तक कि मार्क्सवादी खुद को कहते ही हैं ‘प्रोग्रेसिव’!
इसी क्रम में जरूरी है कि ‘प्रोग्रेस’ के विचार ने हमारे साथ क्या किया, क्या कर रहा है उसे देखें। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह है कि भारत की तमस की दृष्टि से समझ बना कर नए आजाद हुए भारत का उपचार करने लग गए। नतीजे सामने हैं। आधुनिक भारत की तपोभूमि एक नयी ऋषि परंपरा, स्वनामधन्य विश्वविद्यालयों से खड़ी हुई। जिसमें भारत को समझने और बनाने का आधुनिक शास्त्र पढ़ाया जाने लगा। इन ऋषि मुनियों और उनके आराध्य देवता तुल्य नायक को यूरोप से प्राप्त हुई दृष्टि ने देख लिया था कि भारत एक पिछड़ा और अज्ञान में डूबा हुआ राष्ट्र है। प्रोग्रेस में बाधा रूप हिन्दू धर्म और उनके प्रतीकों से जब तक नफरत नहीं सिखाएंगे उनकी मुक्ति संभव नहीं है।
जब से ‘प्रोग्रेस’ का मन्त्र आया है, हमारी भाषाओं में, उसकी अवधारणाओं, शब्द रूप, प्रतीकों और बिंबो को ऐसा गूंथ लिया गया है कि जैसे भाषा का एक मात्र केंद्रीय हेतु और कार्य प्रोग्रेस, प्रगति, विकास, समाज परिवर्तन, पिछड़ापन, अगड़ापन के राग ही अलापना हो गया है। प्रोग्रेस के विचार को इसीलिए ठीक से समझने की जरूरत है। पाश्चात्य आधुनिकता को अर्थ, आकर्षकता और गति अठारहवीं शताब्दी में यूरोप में जन्मी प्रोग्रेस की अवधारणा ने दी। तबसे समस्त बौद्धिक, साहित्यिक चिंतन और विमर्श का केंद्र यह विचार बन गया; मानो जीवन के हर क्षेत्र में प्रस्थान का और उसे आंकने, तौलने का तराजू तथा हर सार्वजानिक अनुष्ठान का मंत्र ‘प्रोग्रेस’ हो।
हमारी दृष्टि में मूलभूत परिवर्तन इस विचार ने समय या काल में गुण या मूल्य को आरोपित कर के किया। अब तक सभी जीवनदृष्टियों में समय मूल्य निरपेक्ष, निर्गुण था। प्रोग्रेस ने इसे मूल्य सापेक्ष, सगुण बना दिया। अब भूतकाल और भविष्यकाल का मूल्य अलग-अलग हो गया। पारंपरिक समाज में कभी नहीं माना जाता था कि कोई समय विशेष, भूत काल, बुरा ही था; और भविष्य ही अच्छा होगा। भूतकाल में भी उन्नत अवस्था, अच्छी चीजें हो सकती थीं और भविष्य, उस भूत के भविष्य में अवनति और बुरी चीजें भी हो सकती हैं। लेकिन प्रोग्रेस के विचार ने भूतकाल के समय को बुरा, पिछड़ेपन का समय घोषित कर दिया। काल के भारतीय बोध से ठीक विपरीत।
अब अगर आप प्रोग्रेस के विचार के हामी हैं, प्रोग्रेसिव हैं, तो समस्त भूतकाल को पिछड़ेपन का इतिहास मानना होगा, ठीक वैसा ही इतिहास तथा अन्य शास्त्र लिखना और सिखाना होगा और देश, समाज, लोगों को इस पिछड़ेपन से मुक्त होने के प्रयास रूप में अपने इतिहास, संस्कृति, धरोहर से नफरत पैदा करनी होगी। अपनी धरोहर से मुक्ति, राष्ट्र की अपनी काल-चेतना से मुक्ति प्रोग्रेस और समाज परिवर्तनवाद की पूर्वशर्त है। इनके अनुसार भूतकाल को, समग्र संचित सांस्कृतिक धरोहर को बदनाम कर, भुला कर, मिटा कर , उससे मुक्त हो कर ही आप ‘प्रोग्रेस’ कर सकते हैं, ‘आधुनिक’ बन सकते हंै, ‘विकसित’ हो सकते हैं। अपनी धरोहर के वसीयतधारी वारिस बन कर नहीं। अगर वारिसदार बने हुए हो तो आप पिछड़ेपन और अज्ञान का बोझ ढो रहे हैं। आप भूल जाओ कि आपकी कोई ज्ञान परम्परा थी, आपका कोई कुल खानदान था जिस की वसीयत में आपका नाम अंकित है। वसीयतधारी वारिस बनकर अपनी धरोहर को आगे की पीढ़ी को उस में कुछ बढ़ा कर सौंपने का दायित्व निभाने वाले कुलीन होकर ‘प्रोग्रेसिव’ नहीं हो सकते। आधुनिक प्रगतिवाद और प्रगतिशीलता कुल-हीनों का मार्ग और मंत्र है।
जिन शाश्वत जीवन मूल्यों और उनकी साधना के मार्ग का भारत स्थान और प्रतीक है उसके वारिस होने के लिए हमारे वर्तमान में भूत और भविष्य दोनों की संधि होनी चाहिए। वर्तमान तो वह दहलीज है जहां भूत और भविष्य की संधि होती है। इस अर्थ में वर्तमान शाश्वत नियति का प्रतीक बनता है। अपने राष्ट्र के साथ तब हम समकालीन कहलायेंगे। जब राष्ट्र और प्रजा या उसके एक शक्तिशाली वर्ग की काल-चेतना के बीच सामंजस्य न रहे। राष्ट्र के वर्तमान को जब वे अपना और इसलिए राष्ट्र का भी बीता हुआ भूतकाल समझने लगे तब राष्ट्र विक्षिप्त अवस्था का शिकार हो जाता है, राष्ट्र में विखंडन पैदा होता है।
लेकिन जब प्रगतिवादी होने के कारण भूतकाल पिछड़ेपन का बोझ हो गया। उससे मुक्ति पा ली या पा लेने के मार्ग पर हों, तब शाश्वत भारत के आप न तो वारिसदार रहे, न भारत और भारत की सभ्यता संस्कृति की शाश्वतता आपके किसी अर्थ की रही। अनर्थकारी जरूर रही, आपकी योजना के लिए या जिनकी योजना के आप सिपाही हो, जिनके लिए गांधीजी ने भी ‘दलाल’ शब्द का उपयोग किया है।
भारत के भूतकाल का स्थान आपके विचार, हेतु, कार्य में, आपके राष्ट्रवाद और राष्ट्रभक्ति में न केवल शून्य हो गया, बल्कि राष्ट्र को प्रगतिशील बनाने की योजना में बाधा रूप हो गया। इतिहास में राष्ट्र के साथ उसकी निरंतरता को खंडित करने लायक जो कुछ घटा, उसकी सांस्कृतिक ऐतिहासिक तार्किक निरंतरता जहां-जहां भी खंडित-विक्षिप्त हुई, और राष्ट्र अपनी शाश्वत नियति के मार्ग से जब-जब, जिन-जिन के द्वारा भटका दिया गया, स्वतंत्र आध्यात्मिक सांस्कृतिक यात्रा का दमन किया गया वह सब प्रगतिवाद के लिए मददरूप है। उन दमन और भटकाव को प्रगतिवाद के हिसाब से आशीर्वाद रूप ही माना जाएगा। क्योंकि उन आक्रमणों से, विशेष कर इस्लामिक और यूरोपीय, उनके शासन से राष्ट्र की अस्मिता से प्रजा का संबंध धुंधला सा होता गया।
आज अगर अपनी राष्ट्रीय अस्मिता, अपनी विशिष्ट सामाजिक व्यवस्था की, जिसका वर्णन गांधी जी हिन्द स्वराज में करते हैं और जिसे राष्ट्रीय आत्मचेतना की जागृति का साधन और हेतु बनाया, उसकी तस्वीर मिट-सी गई है, धुंधली और उथली-सी रह गई है। उसकी आत्मचेतना और आत्मस्मृति धुंधला गई है। ठीक वही हुआ है जो प्रोग्रेसिव होने के लिए मूल जरूरत होती है और जो प्रगतिवाद के लिए आधुनिक शिक्षा आज भी कर रही है। भारत की अस्मिता की खंडित हुई निरंतरता और पथ से भटकाव को प्रगतिवाद के प्रचंड प्रचार के प्रभाव में आ कर हम समझ नहीं पा रहे हैं।
अगर हमें खुद को, अपनी आने वाली पीढ़ियों को, भारत के भविष्य को, सभ्यता को और खास तो हमारी नैतिकता, धर्म और न्याय को बचाना है तो समस्त बौद्धिक और शिक्षा तंत्र को इस विद्रूप दृष्टि से मुक्ति दिलानी होगी। ऐसा नहीं करेंगे तो हमारे स्वत्व और हमारे अस्तित्व के बीच का विरोधाभासी अंतराल इतना बढ़ता चलेगा कि हम पूर्ण रूप से एक विक्षिप्त राष्ट्र बन जायेंगे, वह किसी से नहीं संभलेगा, वह फिर से गुलाम बन जाएगा। अंग्रेजी भाषा हमारे मन मस्तिष्क में जमा देने के लिए एक पूरे सरंजाम के साथ आयी है। उसे पूरी तरह पहचानने की जरूरत है। उसकी मंशा भारत को अंदर से विच्छिन्न, प्रतिभाहीन, शक्तिहीन कर अपना अनुयायी गुलाम बनाये रखने की है। इसी कठोर सत्य को कहने व झकझोर कर नशा उतारने के लिए नकलची बन्दर, चमगादड़, और अधोमानव या असुर जैसे शब्दों का प्रयोग इस लेख में करना पड़ा है। अगर चेतना का प्रकाश थोड़ा भी है, बुझा नहीं है प्रगतिशीलों की तरह, तो खुद की पहचान करना मुश्किल नहीं होगा। काफी बड़ा समुदाय है जो इससे मुक्त होने के लिये छटपटा रहा है।