मशहूर तबलावादक जाकिर हुसैन नहीं रहे

प्रज्ञा संस्थानभारतीय संगीत का पताका दुनिया भर में फहराने वाले उस्ताद जाकिर हुसैन नहीं रहे | वह 73 साल के थे |जाकिर हुसैन फेफड़ों की बीमारी इडियोपैथिक पल्मनोरी नामक लाइलाज बीमारी से पीड़ित थे | उस्ताद ज़ाकिर हुसैन का जन्म मुंबई में 12 मार्च 1951 को हुआ था |  उनके पिता का नाम उस्ताद अल्ला रक्खा था | उस्ताद अल्ला रक्खा भी एक प्रसिद्द तबला वादक थे |उन्हें भारतीय शास्त्रीय संगीत को आगे बढ़ाने के लिए जाना जाता था | जाकिर हुसैन का बचपन मुंबई में ही बीता। 12 साल की उम्र से ही ज़ाकिर हुसैन ने संगीत की दुनिया में अपने तबले की आवाज़ को बिखेरना शुरू कर दिया था। प्रारंभिक शिक्षा और कॉलेज के बाद ज़ाकिर हुसैन ने कला के क्षेत्र में अपने आप को स्थापित करना शुरू कर दिया।

1973 में उनका पहला एलबम लिविंग इन द मैटेरियल वर्ल्ड आया था। उसके बाद तो जैसे ज़ाकिर हुसैन ने ठान लिया कि अपने तबले की आवाज़ को दुनिया भर में बिखेरेंगे। 1979 से लेकर 2007 तक ज़ाकिर हुसैन विभिन्न अंतरराष्ट्रीय समारोहों और एलबमों में अपने तबले का दम दिखाते रहे। ज़ाकिर हुसैन भारत में तो बहुत ही प्रसिद्ध हैं साथ ही साथ विश्व के विभिन्न हिस्सों में भी समान रूप से लोकप्रिय हैं। वह 73 साल के थे |

1988 में उन्हें महज 37 वर्ष के उम्र में पद्म पुरष्कार मिला था और इस उम्र में यह पुरस्कार पाने वाले सबसे कम उम्र के व्यक्ति भी थे। इसी तरह 2002 में संगीत के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए उन्हें पद्म भूषण का पुरस्कार दिया गया था।  ज़ाकिर हुसैन को 1992 और 2009 में संगीत का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार ग्रैमी अवार्ड भी मिला था ।

उस्ताद अहमद जान थिरकवा, कंठे महाराज, पंडित समता प्रसाद गुदई महाराज, उस्ताद अल्ला रक्खा खां और पंडित किशन महाराज की रेपर्टरी को सर्वथा नए और प्रयोगशील ज़मीन पर उतारने का सफल उद्यम ज़ाकिर हुसैन ने बख़ूबी किया | एक तरह से अपने उत्तराधिकार को संजोते हुए वे जिस तरह पश्चिम में जाकर नित नए ढंग से जुगलबंदी करते हुए उन्होंने तबला को एक शास्त्रीय हिंदुस्तानी साज़ से बढ़कर, एक सार्वभौमिक छवि दे डाली. एक ऐसे आधुनिक ताल निर्माता, जिन्होंने कभी करतब दिखाने के भाव से कभी कोई प्रदर्शन नहीं किया | तबले पर उनकी चपल गतियों ने ढेरों ऐसे प्रयोग किए, जिसमें बादलों की गर्जना से लेकर हाथी की चाल, शंख ध्वनि सभी कुछ शामिल थे |

उन्होंने कम उम्र में ही यह जान लिया था कि घराने की पोथी पढ़ना ही काफ़ी नहीं है, उसमें आधुनिकता की खिड़की खोलने का काम भी करना चाहिए |उनके प्रयोग, पाश्चात्य संगीतकारों के साथ के काम ने तबले के लिए नई राह खोली | उस्ताद जाकिर हुसैन के कारन दुनिया यह भी  समझ पाया कि भारतीय संगीत में नए आविष्कार किए जा सकते हैं |उस्ताद ज़ाकिर हुसैन के तालों को आज कोई नया विद्यार्थी, बिल्कुल टेक्स्ट बुक की तरह पढ़ सकता है और उसमें कुछ नया सीखते हुए दादरा, कहरवा, रूपक, दीपचंदी, एक ताल और चार ताल की सवारी में जोड़ सकता है|

उनके कुछ उल्लेखनीय अंतरराष्ट्रीय प्रोजेक्ट्स में से ‘तबला बीट साइंस’ और ‘ताल मैट्रिक्स’ प्रमुख हैं, जिसे आज तबला की परंपरा में मानक माना जाता है |उनका कुछ प्रयोग दुनिया भर के दिग्गजों के सहमेल से विकसित हुए जिनमें जैज़, ड्रम और बेस, एंबिएंट म्यूज़िक, एशियन अंडरग्राउंड और इलेक्ट्रॉनिका संगीत मुख्य हैं |

 

 

 

 

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