खेती किसानी को लेकर बातें बहुत सारी हो रही। तीन कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन हो रहे हैं। इस आंदोलन के जरिए कुछ संगठन अपनी विचारधारा को बचाए रखने की मशक्कत कर रहे। किसानों के बीच में लाल झंडा लिए लोगों को देखकर देशभर के कम्युनिस्ट काफी उत्साहित हैं। उसके समर्थक कुछ ज्यादा ही। उन लोगों ने इसे मोदी सरकार के खिलाफ किसानों का आक्रोश कहा। लेकिन कम्युनिस्यों के पुरखे किसानों के बारे में क्या राय रखते थे? कार्ल मार्क्स और उनके सहयोगियों ने किसानों की तुलना तो उसके बैलों से की। इनका मानना था कि जिस प्रकार हमेसा एक ही काम करने के कारण बैल स्थितमान(static) तथा अनुपयुक्त है किसान भी वैसा ही है। यही कारण है कि आंदोलन में शामिल कम्युनिस्ट कृषि कानूनों पर नहीं अपना एजेंडा किसानों की मांगों के साथ शामिल कर रहे हैं। यही लोग ही किसानों में भ्रम का माहौल बनाने में लगे हैं। क्योंकि सरकार किसानों की चिंता जिन-जिन विषयों पर है उसका समाधान निकालना चाहते हैं।
आखिर किसान की चिंता क्या है? किसान को चिंता है कि कृषि कानूनों से सरकारी एजेंसी को उपज बेचने का विकल्प समाप्त हो जाएगा। फसलों का कारोबार निजी हाथों में चला जाएगा। यही नहीं किसानों की चिंता यह भी है कि पूंजीपति किसानों की जमीन कब्जा कर लेंगे। सरकार किसानों के इन दो बड़ी चिंता पर साफ कहना है कि नए कृषि कानून से सरकारी खरीद की व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आएगा। राज्य सरकारें एमएसपी केन्द्र और मंडिया बनाने के लिए स्वतंत्र है। केन्द्र सरकार का कहना है कि एमएसपी व्यवस्था लगातार मजबत हो रही है, फिर भी लिखित आश्वासन दिया जाएगा।
पूंजीपतियों के जमीन कब्जा कर लेने की चिंता पर सरकार का कहना है कि किसानों की यह चिंता भी एक भ्रम भर है। कानून के मुताबिक खेती की जमीन की बिक्री, पट्टा या गिरवी जैसा न तो कोई करार या गिरवी जैसा न कोई करार होगा न ही जमीन पर कोई ढांचा ही बनाया जाएगा। अगर ढांचा बनता भी है, तो फसल खरीद करार खत्म होने के बाद उसे हटाना होगा। अगर ढांचा नही हटा तो उस पर किसान का अधिकार होगा। यही नही कानून में साफ किया गया है कि किसान की जमीन पर ढांचा बनाने की स्थिति में फसल खरीददार न तो उस पर कोई कर्ज ले सकेगा और न ही ढांचे पर उसका कोई कब्जा होगा।
कानूनों को लेकर किसानों की तीन चिंताए और हैं। पहली मंडी व्यवस्था कमजोर होगी और किसान निजी मंडियों पर आश्रित होकर रह जाएगा। किसानों की दूसरी बड़ी चिंता है कि जमीन कुर्क हो जाएगी। सरकार इन दोनों विषयों पर साफ कर रही है कि मंडियों की पूरानी व्यवस्था बरकरार रहेगी साथ ही राज्य सरकारें निजी मंडियों का पंजीकरण और कर लगा सकती है। यह राज्य सरकारों के हाथ में है। किसानों की एक चिंता विवाद के निपटारे को लेकर है। किसानों का कहना विवाद की स्थिति में किसान अदालत नही जा सकेगें। जबकि यह व्यवस्था कानून में इसलिए की गई थी कि अदालतों में किसानों के मामले लटक जाएगें। महंगे वकील करने का अतिरक्त भार किसान पर पड़ेगा। इसीलिए स्थानीय एसडीम को 30 दिन के भीतर विवाद हल करने का प्रावधान किया गया था। फिर भी सरकार का कहना है कि अगर किसान चाहते हैं तो अदालत जाने का आधिकार किसानों को दिया जा सकता है।
इस तरह किसानों की हर चिंता पर मोदी सरकार ध्यान दे रही है। यही नही इस तरह की मांग बहुत दिनों से हो रही थी। बाजार खोलने की मांग किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत करते रहे। चौधरी चरण सिंह इसके हिमायती रहे हैं। लेकिन आज किसानों के नाम पर कुछ लोग राजनीति कर रहे हैं। कम्युनिस्ट, कांग्रेसी जिस कानून का विरोध कर रहे हैं वही लोग कल तक इन सुधारों के हिमायती थे। ये भी तथ्य यहां समझने की जरूरत है। बात साल 2010 की है। केन्द्र में मनमोहन सिंह सरकार थी। उस समय किसानों को उपज का उचित मूल्य दिलाने के उपाय सुझाने के लिए एक समिति बनी थी। इस समिति के अध्यक्ष भूपेन्द्र सिंह हुड्डा थे। खासबात यह है कि उस हुड्डा समिति ने इन्ही प्रावधानों की सिफारिश की थी। इसलिए यह किसान आंदोलन विपक्षी राजनीति की भेंट चढ़ गया है।