किसानों के नाम पर राजनीति

 

किसान सड़क पर हैं| वो नए कृषि क़ानूनों को वापस लेने की माँग कर रहे हैं| संसद के ज़रिए ये क़ानून बनाए गए हैं, लेकिन आंदोलनकारी किसानों का कहना है कि इन क़ानूनों से उनके हित प्रभावित होंगे,जबकि ऐसा नहीं ,असल में विपक्षी पार्टियाँ किसानों के नाम पर राजनीति कर रही है और किसानों को भड़का रही है |

नये कृषि क़ानूनों का लक्ष्य है कि स्टोर में रखने और मार्केट में बिक्री के लिए आने वाली उपज में तब्दीली आये |जून महीने में इस बिल को अध्यादेश के ज़रिए लाया गया था | बाद में संसद के मॉनसून सत्र में इसे ध्वनि-मत से पारित कर दिया गया जबकि विपक्षी पार्टियाँ इसके ख़िलाफ़ थीं |

द फ़ार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रमोशन एंड फ़ैसिलिटेशन), 2020 क़ानून के मुताबिक़, किसान अपनी उपज एपीएमसी यानी एग्रीक्लचर प्रोड्यूस मार्केट कमिटी की ओर से अधिसूचित मण्डियों से बाहर बिना दूसरे राज्यों का टैक्स दिये बेच सकते हैं|

दूसरा क़ानून है – फ़ार्मर्स (एम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंस एंड फ़ार्म सर्विस क़ानून, 2020  इसके अनुसार, किसान अनुबंध वाली खेती कर सकते हैं और सीधे उसकी मार्केटिंग कर सकते हैं|

तीसरा क़ानून है – इसेंशियल कमोडिटीज़ (एमेंडमेंट) क़ानून, 2020 इसमें उत्पादन, स्टोरेज के अलावा अनाज, दाल, खाने का तेल, प्याज की बिक्री को असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर नियंत्रण-मुक्त कर दिया गया है|नये क़ानून से किसानों को ज़्यादा विकल्प मिलेंगे और क़ीमत को लेकर भी अच्छी प्रतिस्पर्धा होगा |इसके साथ ही कृषि बाज़ार, प्रोसेसिंग और आधारभूत संरचना में निजी निवेश को बढ़ावा मिलेगा|

किसानों के विरोध-प्रदर्शन में सबसे बड़ा जो डर उभरकर सामने आया है वो ये है कि एमएसपी की व्यवस्था अप्रासंगिक हो जाएगी और उन्हें अपनी उपज लागत से भी कम क़ीमत पर बेचने के लिए मजबूर होना पड़ेगा|एमएसपी व्यवस्था के तहत केंद्र सरकार कृषि लागत के हिसाब से किसानों की उपज ख़रीदने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है|फ़सलों की बुआई के हर मौसम में कुल 23 फ़सलों के लिए सरकार एमएसपी तय करती हैऑ हालांकि, केंद्र सरकार बड़ी मात्रा में धान, गेहूँ और कुछ ख़ास दालें ही ख़रीदती हैं|

साल 2015 में शांता कुमार कमेटी ने नेशनल सेंपल सर्वे का जो डेटा इस्तेमाल किया था, उसके मुताबिक़ केवल 6 फ़ीसदी किसान ही एमसएसपी की दर पर अपनी उपज बेच पाते हैं| केंद्र सरकार के इन तीनों नये क़ानूनों से एमएसपी सीधे तौर पर प्रभावित नहीं होती है|हालांकि एपीएमसी से अधिसूचित ज़्यादातर सरकारी ख़रीद केंद्र पंजाब, हरियाणा और कुछ अन्य राज्यों में हैं|

सरकार जो उपज ख़रीदती है, उसका सबसे बड़ा हिस्सा पंजाब और हरियाणा से आता है| पिछले पाँच साल का आंकड़ा देखें, तो सरकार द्वारा चाहे गेहूँ हो या चावल, उसकी सबसे ज़्यादा ख़रीद पंजाब और हरियाणा से हुई | इस पर भारत सरकार अरबों रुपये ख़र्च करती है|इसे दुनिया के सबसे महंगे ‘सरकारी खाद्य ख़रीद कार्यक्रमों’ में से एक माना गया है|खेती की लागत की गणना करने के बाद, राज्य सरकार द्वारा संचालित कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) एक बेंचमार्क सेट करने के लिए 22 से अधिक फ़सलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की घोषणा करता है|

सीएसीपी हालांकि, हर साल अधिकांश फ़सलों के लिए एमएसपी की घोषणा करता है, मगर राज्यों द्वारा संचालित अनाज ख़रीद की एजेंसियाँ और भारतीय खाद्य निगम (एफ़सीआई) भंडारन और धन-राशि की कमी के कारण, उन क़ीमतों पर केवल चावल और गेहूँ ही ख़रीदते हैं|एमएसपी पर किसानों से चावल और गेहूँ ख़रीदने के बाद, एफ़सीआई ग़रीबों को रियायती मूल्यों पर राशन बेच पाता है और सरकार एफ़सीआई के नुक़सान की भरपाई करती है|

एफ़सीआई से मिलने वाली ‘क़ीमत की गारंटी’ किसानों को बड़ी मात्रा में चावल और गेहूँ के उत्पादन के लिए प्रोत्साहित करती हैं| लेकिन यह अधिक उत्पादन एफ़सीआई पर किसानों से अतिरिक्त आपूर्ति ख़रीदने के लिए दबाव भी डालता है, जिसके परिणामस्वरूप राज्य के गोदामों में अक्सर अनाज की बहुतायत रहती है| साथ ही उस पर सब्सिडी का जो बिल बनता है, वो अक्सर बजट घाटे को बढ़ाता है|चावल और गेहूँ का विशाल भंडार होने के बावजूद, एफ़सीआई के लिए इनका निर्यात करना एक बड़ी चुनौती रहा है| ऐसे में भंडारण की लागत और हर वर्ष बढ़ने वाली एमएसपी, एफ़सीआई के लिए गेहूँ और चावल की क़ीमतों को और अधिक महंगा बना देती है जिससे विदेशी बिक्री फ़ायदे का सौदा नहीं रह जाती|

कभी-कभार, भारत सरकार राजनयिक सौदों के माध्यम से दूसरे देशों को चावल और गेहूँ की थोड़ी मात्रा भेजती रहती है. फिर भी, एफ़सीआई के गोदाम भरे ही रहते हैं|एफ़सीआई मॉडल से किसानों को ‘कीमत की जो गारंटी’ मिलती है, उससे सबसे ज़्यादा फ़ायदा पंजाब और हरियाणा के बड़े किसानों को होता है, जबकि बिहार और अन्य राज्यों के छोटे किसानों को इसका ख़ास फ़ायदा नहीं मिल पाता|

पंजाब में होने वाले 85 प्रतिशत गेहूँ-चावल और हरियाणा के क़रीब 75 प्रतिशत गेहूँ-चावल, एमएसपी पर ख़रीदे जाते हैं | इसी वजह से इन राज्यों के किसानों को डर है कि एमएसपी की व्यवस्था ख़त्म हुई तो उनकी स्थिति बिगड़ेगी    इन राज्यों के किसानों को यह भी डर है कि बिना एमएसपी के उनकी फ़सल का मार्केट प्राइस गिरेगा | जबकि इस कानून में कहीं भी इसका जिक्र नहीं है कि एमएसपी व्यवस्था ख़त्म हो जाएगी | किसानों को चाहिए कि सरकार से बात करें और अपनी गलतफहमी को दूर कर आन्दोलन को समाप्त करें |

 

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