जमीन की मालिकी – किसान जमीन का नूर है। जमीन उसी की है अथवा होनी चाहिए, न कि घर बैठकर खेती करनेवाले मालिक या जमींदार की।जमीन और दूसरी सारी संपत्ति उस आदमी की है, जो उसके लिए काम करता है। दुर्भाग्य से मजदूर इस सीधी-सादी बात से अनभिज्ञ हैं या उन्हें अनभिज्ञ रखा गया है। मैं मानता हूँ कि जो जमीन आप जोतते हैं, वह आपकी होनी चाहिए । लेकिन यह एक क्षण में होने वाली बात नहीं है। जमींदारों से आप उसे बलपूर्वक भी नहीं ले सकते। अहिंसा और आपकी अपनी शक्ति का भान ही इसका एकमात्र मार्ग है।
प्रतिष्ठित जीवन के लिए जितनी जमीन की आवश्यकता है, उससे अधिक जमीन किसी आदमी के पास नहीं होनी चाहिए। ऐसा कौन है, जो इस हकीकत से इनकार कर सके कि आम जनता की और गरीबी का कारण आज यही है कि उसके पास अपनी कही जानेवाली कोई जमीन नहीं है ?
लेकिन यह याद रखना चाहिए कि इस तरह के सुधार तुरंत नहीं किए जा सकते। अगर ये सुधार अहिंसात्मक तरीकों से करने हैं तो जमींदार और गैर-जमींदार दोनों को सुशिक्षित बनाना अनिवार्य हो जाता है। जमींदारों को यह जमीन की मालिकी – किसान जमीन का नूर है। जमीन उसी की है अथवा होनी चाहिए, न कि घर बैठकर खेती करनेवाले मालिक या जमींदार की।
विश्वास दिलाना होगा कि उनके साथ कभी जोर-जबरदस्ती नहीं की जाएगी और गैर-जमींदारों को यह सिखाना और समझाना होगा कि उनकी मरजी के खिलाफ जबरन उनसे कोई काम नहीं ले सकता, और यह कि कष्ट सहन या अहिंसा की कलाएँ सीखकर वे अपनी स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते हैं।
जमींदार और काश्तकार
मैं आपसे कहूँगा कि जमीन की मालिकी जितनी आपकी है उतनी ही आपकी रैयत की भी है।मैं यह नहीं मानता कि सब पूँजीपति और जमींदार स्वभाव से ही शोषक हैं और न मैं यह मानता हूँ कि उनके और जनता के हितों में कोई बुनियादी या अमिट विरोध है। इस प्रकार का शोषण शोषित के सहयोग पर आधारित है, फिर वह सहयोग स्वेच्छा से दिया जाता हो या लाचारी से। हम इस सच्चाई को स्वीकार करने से कितना ही इनकार क्यों न करें, फिर भी सच्चाई तो यही है कि यदि लोग शोषक की आज्ञा न मानें तो शोषण हो ही नहीं सकता। लेकिन उसमें हमारा स्वार्थ आड़े आता है और हम उन्हीं जंजीरों को अपनी छाती से लगाए रहते हैं, जो हमें बाँधती हैं। यह चीज बंद होनी चाहिए। जरूरत इस बात की नहीं है कि पूँजीपति और जमींदारों का नाश कर दिया जाए, बल्कि उनमें और आम लोगों में आज जो संबंध है, उसे बदलकर अधिक स्वस्थ और शुद्ध बनाने की जरूरत है।
मेरा उद्देश्य तो आपके हृदयों में प्रवेश करके आपके विचार इस तरह बदल देना है कि आप अपनी समस्त व्यक्तिगत संपत्ति अपने किसानों के संरक्षक बनकर अपने पास रखें और मुख्यतः उन्हीं की भलाई के कामों में उसका उपयोग करें। मैं यह जानता हूँ कि कांग्रेस के भीतर ही समाजवादी पार्टी नामक एक नई पार्टी अस्तित्व में आई है; और यह पार्टी यदि कांग्रेस को अपने साथ ले जाने में सफल हो जाए तो क्या होगा, यह बताना कठिन है। मुझे इसमें जरा भी शक नहीं है कि अगर हमारे करोड़ों लोगों का बिलकुल प्रामाणिक और असंदिग्ध मत लिया जाए तो वे पूँजीपति वर्गों की तमाम संपत्ति छीन लेने के पक्ष में राय नहीं देंगे। मैं पूँजी और श्रम, जमींदार और किसान के सहयोग व मेल के लिए काम कर रहा हूँ ।
परंतु मैं चेतावनी की एक बात जरूर कहूँगा। मैंने मिल मालिकों से हमेशा कहा है कि वे अकेले ही कारखानों के मालिक नहीं हैं, मजदूर भी उनकी बराबरी के मालिक हैं। उसी तरह मैं आपसे कहूँगा कि आपकी जमीन के मालिक जितने आप हैं उतने ही किसान भी हैं; और आज अपनी आमदनी को ऐश-आराम या फिजूलखर्ची में नहीं उड़ा सकते, बल्कि उसे आपको रैयत की भलाई में खर्च करना चाहिए। आप एक बार अपनी रैयत को अपनेपन की भावना का अनुभव करा दें और यह महसूस करा दें कि एक ही परिवार के आदमियों के नाते उनके हित आपके हाथों में सुरक्षित हैं और उन्हें कभी हानि नहीं पहुँचेगी तो आप विश्वास रखिए कि उनमें और आपमें कोई झगड़ा नहीं हो सकता और न वर्ग-विग्रह ही हो सकता है।
मैं जमींदार का नाश नहीं करना चाहता, लेकिन मुझे ऐसा भी नहीं लगता कि जमींदार हमारे लिए अनिवार्य है । मैं जमींदारों और दूसरे पूँजीपतियों का अहिंसा के द्वारा हृदय परिवर्तन करना चाहता हूँ और इसलिए वर्गयुद्ध की अनिवार्यता मैं स्वीकार नहीं करता। कम-से-कम संघर्ष का रास्ता लेना मेरे लिए अहिंसा के प्रयोग का एक जरूरी अंग है। जमीन पर मेहनत करने वाले किसान और मजदूर ज्यों ही अपनी ताकत को पहचान लेंगे, त्यों ही जमींदारी की बुराई दूर हो जाएगी। अगर किसान-मजदूर यह कह दें कि उन्हें सभ्य समाज की आवश्यकताओं के अनुसार अपने बच्चों के भोजन, वस्त्र और शिक्षण आदि के लिए जब तक काफी मजदूरी नहीं दी जाएगी तब तक वे जमीन को जोतेंगे- बोएँगे ही नहीं तो जमींदार बेचारा कर ही क्या सकता है ! सच तो यह है कि मेहनत करनेवाला जो कुछ पैदा करता है उसका मालिक वही है । अगर मेहनत करनेवाले बुद्धिपूर्वक एक हो जाएँ तो वे एक ऐसी ताकत बन जाएँगे, जिसका मुकाबला कोई नहीं कर सकता। और इसीलिए मैं वर्ग- युद्ध की कोई जरूरत नहीं देखता । यदि मैं उसे अनिवार्य मानता तो उसका प्रचार करने में और लोगों को उसकी तालीम देने में मुझे कोई संकोच नहीं होता ।
एक आदर्श जमींदार किसान का बहुत कुछ बोझा, जो वह अभी उठा रहा है, एकदम घटा देगा। वह किसानों के गहरे संपर्क में आएगा और उनकी आवश्यकताओं को जानकर उस निराशा के स्थान पर, जो उनके प्राणों को सुखाए डाल रही है, उनमें आशा का संचार करेगा। वह किसानों में पाए जाने वाले सफाई और तंदुरुस्ती के नियमों के अज्ञान को दर्शक की तरह देखता नहीं रहेगा, बल्कि उस अज्ञान को दूर करेगा ।
किसानों के जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए वह स्वयं अपने को दरिद्र बना लेगा। वह अपने किसानों की आर्थिक स्थिति का अध्ययन करेगा और ऐसे स्कूल खोलेगा जिनमें किसानों के बच्चों के साथ-साथ वह अपने खुद के बच्चों को भी पढ़ाएगा। वह गाँव के कुएँ और तालाब को साफ कराएगा। वह किसानों को अपनी सड़कें और अपने पाखाने आवश्यक परिश्रम करके खुद साफ करना सिखाएगा। वह किसानों के मुक्त उपयोग के लिए अपने सारे बाग-बगीचे निस्संकोच भाव से खोल देगा। जो अनावश्यक इमारतें वह अपनी मौज के लिए करेगा। यदि पूँजीपति वर्ग काल का संकेत समझकर संपत्ति के बारे में अपने इस विचार को बदल डालें कि उस पर उनका ईश्वर-प्रदत्त अधिकार है तो जो सात लाख घूरे आज गाँव कहलाते हैं, उन्हें आनन-फानन में शांति, स्वास्थ्य और सुख के धाम बनाया जा सकता है। मुझे दृढ़ विश्वास है कि यदि पूँजीपति जापान के उमरावों का अनुसरण करें, तो वे सचमुच कुछ खाएँगे नहीं और सबकुछ पाएँगे। केवल दो मार्ग हैं, जिनमें से उन्हें अपना चुनाव कर लेना है। एक तो यह कि पूँजीपति समय रहते न चेतें तो करोड़ों जाग्रत् किंतु अज्ञान और भूखे लोग देश में ऐसी अंधाधुंधी मचा दें, जिसे एक बलशाली हुकूमत की फौजी ताकत भी नहीं मिटा सकती।
अच्छा हो यदि जमींदार समय रहते सावधान हो जाएँ। अब वे केवल लगान वसूल करने वाले न रहें। उन्हें अपने काश्तकारों का संरक्षक और विश्वस्त मित्र बन जाना चाहिए। उन्हें अपना निजी खर्च सीमित कर देना चाहिए। उन्हें वह अनुचित ऊपरी आय छोड़ देनी चाहिए, जो उन्हें काश्तकारों से शादी आदि के अवसरों पर जबरदस्ती की भेंटों के रूप में मिलती है या एक किसान से दूसरे किसान के हाथ में जमीन जाने पर लगान न देने के कारण बेदखली हो जाने के बाद उसी किसान को जमीन वापस मिलने पर नजराने की शक्ल में होती है। उन्हें किसानों को जमीन का स्थायी अधिकार दे देना चाहिए, उनकी भलाई में क्रियात्मक रस लेना चाहिए, उनके बच्चों के लिए सुव्यवस्थित स्कूल, प्रौढ़ों के लिए रात्रिशालाएँ, बीमारों के लिए अस्पताल और दवाखाने खोलने चाहिए, देहात की सफाई की देखभाल करनी चाहिए और विविध प्रकार से उन्हें यह अनुभव कराना चाहिए कि जमींदार उनके हितैषी हैं और अपनी विभिन्न सेवाओं के लिए एक निश्चित कमीशन मात्र लेते हैं । सार यह कि उन्हें अपनी स्थिति को उचित सिद्ध कर दिखाना चाहिए। उन्हें कांग्रेसवालों पर भरोसा रखना चाहिए। वे स्वयं कांग्रेसी
बन सकते हैं और जान सकते हैं कि कांग्रेस सरकार और लोगों के बीच पुल का काम करती है। जिन लोगों के दिलों में जनता की सच्ची भलाई की लगन है, वे सब कांग्रेस की सेवा ले सकते हैं। उधर कांग्रेसजनों को यह देखना चाहिए कि किसान जमींदारों के प्रति कर्तव्यों का पूरी तरह पालन करें। मेरा मतलब कानूनी कर्तव्यों से ही नहीं बल्कि उन कर्तव्यों से भी हैं, जिन्हें उन्होंने खुद उचित माना है। उन्हें यह सिद्धांत अस्वीकार कर देना चाहिए कि उनकी जमीन बिलकुल उनकी अपनी ही है और जमीदारों का उस पर कोई अधिकार नहीं। वे एक सम्मिलित परिवार के सदस्य हैं या उन्हें होना चाहिए- ऐसे सम्मिलित परिवार के, जिसमें जमींदारों का उस पर कोई अधिकार नहीं। वे एक सम्मिलित परिवार के, जिसमें जमींदार मुखिया की तरह किसी भी तरह के आक्रमण के खिलाफ उनके अधिकारों की रक्षा करता है। कानून कुछ भी हो, जमींदारी का समर्थन तभी हो सकता है जब वह भरसक सम्मिलित परिवार की स्थिति प्राप्त करे ।
इस संबंध में राम और जनक का उदाहरण हमारा आदर्श होना चाहिए। लोगों के विरुद्ध उनका अपना कुछ नहीं था। उनका सर्वस्व और वे स्वयं भी लोगों के थे । वे उनके बीच में ऐसा जीवन व्यतीत करते थे, जो उनके जीवन से ऊपर नहीं था, परंतु उनके जीवन के अनुरूप था। इस पर शायद यह आपत्ति उठाई जाए कि वे ऐतिहासिक पुरुष नहीं थे। तब हम महान् खलीफा उमर की मिसाल लें । यद्यपि वे अपनी महान् प्रतिभा और आश्चर्यजनक उद्योग से पैदा किए हुए एक विशाल राज्य के बादशाह थे, फिर भी वे गरीबी का जीवन बिताते थे और जो विशाल खजाना उनके पैरों में पड़ा रहता था, उसका अपने को कभी मालिक नहीं समझते थे। जो राज-कर्मचारी जनता का धन ऐश-आराम में बरबाद करते थे, वे खलीफा से काँपते थे ।
जमींदारों से मुझे इतना ही कहना है कि आपके खिलाफ जो शिकायतें की जाती हैं, वे अगर सच हों, तो मुझे आपको सावधान कर देना चाहिए कि अब आपके दिन लद गए हैं। किसानों के मालिक और ईश्वर के रूप में आज तक आपने जो वर्चस्व भोगा, वह अब चालू रहनेवाला नहीं है। यदि गरीब किसानों के आप ट्रस्टी बन जाएँ तो आज भी आपका भविष्य उज्वल है। ट्रस्टी शब्द का उपयोग मैं केवल नामधारी ट्रस्टी होने के लिए नहीं कर रहा हूँ, बल्कि सच्चे ट्रस्टी बनने के लिए कह रहा हूँ। ऐसे ट्रस्टी अपने श्रम और संपत्ति के संरक्षण के बदले में मेहनताने के रूप में जितना लेने का उन्हें अधिकार होगा, उससे एक पाई भी अधिक नहीं लेंगे। ऐसे ट्रस्टी बन जाने के बाद वे देखेंगे कि किसी भी प्रकार का कानून उनका बाल- बाँका नहीं कर सकता। खुद किसान ही उनके मित्र बन जाएँगे ।
यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि क्या वर्तमान राजाओं और दूसरे लोगों से गरीबों के संरक्षक बनने की आशा रखी जा सकती है ? यदि वे अपने आप ट्रस्टी नहीं बन जाते हैं तो परिस्थिति वश जोर-जबरदस्ती उनसे यह सुधार करा लेगा। हाँ, वे संपूर्ण विनाश को आमंत्रित करें तो दूसरी बात है ।
जब पंचायत राज्य स्थापित हो जाएगा तो वह लोकमत काम करेगा, जो हिंसा कभी नहीं कर सकती। जमींदारों, पूँजीपतियों और राजाओं की वर्तमान सत्ता तभी तक रह सकती है जब तक साधारण लोग अपनी ताकत को अच्छी तरह पहचान नहीं लेते। यदि लोग जमींदारी या पूँजीवाद की बुराई के साथ असहयोग कर दें तो वह निष्प्राण होकर मर जाएगी। पंचायत राज्य में पंचायत की ही बात मानी जाएगी और पंचायत अपने बनाए हुए कानून के जरिए ही काम कर सकती है।
उस शिक्षा के अनुसार आचरण नहीं सच्चा समाजवाद तो हमें अपने पूर्वजों से प्राप्त हुआ है, जो हमें यह सिखा गए हैं कि ‘सब भूमि गोपाल की है, इसमें कहीं मेरी और तेरी की सीमाएँ नहीं हैं। ये सीमाएँ तो मनुष्यों की बनाई हुई हैं और इसीलिए वे इन्हें तोड़ भी सकते हैं।’ गोपाल यानी कृष्ण यानी भगवान्! आधुनिक भाषा में गोपाल यानी राज्य यानी जनता ! आज जमीन जनता की नहीं है, यह बात सही है। पर इसमें दोष उस शिक्षा का नहीं है। दोष तो हमारा है, जिन्होंने किया।
मुझे इसमें कोई संदेह नहीं कि इस आदर्श को जिस हद तक रूस या और कोई देश पहुँच सकता है उस हद तक हम भी पहुँच सकते हैं; और वह भी हिंसा का आश्रय लिये बिना। पूँजीवालों से उनकी पूँजी हिंसापूर्वक छीनी जाए, इसके बजाय यदि चरखा और उसके सारे फलितार्थ स्वीकार कर लिये जाएँ तो वही काम हो सकता है। चरखा हिंसक अपहरण की जगह ले सकनेवाला एक अत्यंत प्रभावकारी साधन है। जमीन और दूसरी सारी संपत्ति उसकी है, जो उसके लिए काम करे। दुःख इस बात का है कि किसान और मजदूर या तो इस सरल सत्य को जानते नहीं हैं या यों कहो कि उन्हें इसे जानने नहीं दिया गया है।
आने वाले जमाने की अहिंसक व्यवस्था में जमीन राज की मिल्कियत होगी। कहा नहीं गया है – ‘सबै भूमि गोपाल की’ ! इस तरह के बँटवारे में बुद्धि और श्रम का नाश नहीं होगा। हिंसक तरीकों से यह असंभव है। इसलिए यह कहना सच है कि हिंसा के जरिए जमीन के मालिकों का नाश कर दिया गया तो अंत में मजदूरों का नाश भी होगा ही । इसलिए अगर जमीन के मालिक बुद्धिमत्ता से काम लें तो किसी का नुकसान नहीं होगा।