पिछले दिनों इंदौर में नशे में धुत चार लड़कियों ने सड़क पर एक लड़की को बेरहमी से पीटा. पीड़िता की शिकायत के बाद पुलिस ने इनको गिरफ्तार कर लिया. यह कोई एकमात्र घटना नहीं है. ऐसी ख़बरें रोजमर्रा की हो गई हैं जिसमें कहीं लड़कियां मारपीट तो कहीं शराब पीकर लोगों पर गाड़ी चढ़ाने, कभी डिलीवरी बॉय को मारना तो कभी कैब ड्राइवरों से बदतमीजी करने के साथ इन पर छेड़छाड़ का झूठा आरोप लगाने जैसे अपराधों में लिप्त पाई गई. अभी पंजाब के जालंधर में एक पुरुष को चार महिलाओं द्वारा अगवाकर यौन उत्पीड़न करने का मामला प्रकाश में आया है जिसकी पुलिस जाँच कर रही है. संभवतः देश बदल रहा है. एक लंबी प्रक्रिया के बाद ‘नारी सशक्तिकरण’ अब ‘फेमिनिज्म’ में तब्दील हो चुका है.
70 का दशक भारत में नये दौर के आंदोलन का काल था. जिस दौरान पर्यावरण, मानवाधिकार, सहकारिता और नारीवाद जैसे विषय केंद्र में थे. इन्होंने अपने चयनित लक्ष्यों के लिए प्रशंसनीय कार्य किये. लेकिन बीतते समय के साथ इनका अतिउत्साह नकारात्मकता में परिवर्तित होता गया. 90 के दशक में हुए उदारीकरण ने भारत में एक अधिक उन्मुक्त समाज को आकार देना शुरू किया जिसमें संचार माध्यमों ने बड़ी भूमिका निभाई. इसी समय पश्चिमी मूल्यों की पैठ और स्वीकृति बढ़ने लगी. यही वह समय था ज़ब यूरोप-अमेरिका में ‘फेमिनिज्म’ दुराग्रह की दिशा में मुड़ चुका था. इसे कुछ प्रतिमानों से समझा जा सकता हैं.
अमेरिकी फेमिनिस्ट केट मिलेट, जिन्हें 1970 में टाइम पत्रिका ने ‘फेमिनिज्म का कार्ल मार्क्स’ करार दिया. उसकी किताब ‘सेक्सुअल पॉलिटिक्स’ को नारीवाद का धर्म ग्रंथ माना गया. इसमें मिलेट लिखती हैं, ‘परिवार शोषण का तंत्र है, जिसमें पुरुष स्त्री और बच्चों का शोषण करता है. विवाह स्त्री के लिए एक व्यक्ति हेतु वेश्यावृत्ति है. बल्कि वेश्यावृत्ति का पेशा स्त्री के लिए मुक्ति-मार्ग है. यह स्त्री को शक्ति तथा उसके शरीर पर अधिकार देता है और उसे पुरुषो की दासता से मुक्त करता है.’ उसने बाकायदा महिलाओं का एक जागरूकता समूह बनाया था, जिसका घोषित लक्ष्य सांस्कृतिक क्रांति करना और ‘मोनोगैमी’ को खत्म करना था. इसके लिए व्यवहार्य नीति थी, स्वच्छंदता, अश्लीलता, वेश्यावृत्ति और समलैंगिकता का प्रचार-प्रसार करना. आश्चर्य है कि ऐसी विकृत मानसिकता की महिला अमेरिका के ‘एंटी-साइकाइट्री’ आंदोलन की नेत्री और सिविल राइट्स एक्टिविस्ट मानी जाती थी. ऐसे ही लेखिका और फिल्मकार ‘कैरोल लीड’, जो वेश्यावृत्ति को यौनकर्म, एक प्रकार का रोजगार और उद्योग मानती थीं.
पश्चिम में फेमिनिज्म को समर्थित एक कदम ‘स्लटवॉक’ आंदोलन है. जिसकी शुरुआत अप्रैल, 2011 को ओंटारियो में टोरंटो पुलिस के एक अधिकारी द्वारा महिलाओं को गरिमामय परिधान पहनने के सुझाव पर हुआ. इसे महिला अधिकारों पर हमला माना गया. ‘स्लटवॉक’ का ध्येय पितृसत्तात्मक दुनिया को महिलाओं के ‘माई बॉडी, माई च्वाइस’ के सिद्धांत की दृढ़ता दिखाना था. प्रदर्शनकारी महिलाओं ने ‘बिकनी’ पहने, तो कुछ अतिआग्रही प्रतिभागी पूरे कपड़े उतार कर बिलकुल नग्न हो गये. कैसी अजीब विडंबना है, सभ्यता के इतिहास में मानव को तक़रीबन पांच हजार साल लगे कपडे पहनना सीखने में और अपने अधिकार सिद्ध करने के नाम पर यह उपलब्धि पांच मिनट में गंवा दी गई. समझना होगा कि नारीवाद को किस तरह वीभत्स मार्ग पर धकेल दिया गया है कि खुद का वजूद साबित करने के लिए नग्नता उचित प्रतीत हो रही है. पश्चिम का यही रोग भारत को लग चुका है.
इसके पीछे एक बड़ी वज़ह वामपंथ भी है जिसके संबल से फेमिनिज्म की सनक में इजाफा हुआ है. यह कुछ और नहीं बल्कि आधी आबादी के लिए विकृत साम्यवाद है. इनका कोई दृढ़ सैद्धांतिक आधार भी नहीं हैं. यह वही है जो बलात्कार हेतु मृत्युदंड पाने वाले अपराधियों के लिए मानवाधिकार की मांग और न्यायिक सक्रियता के नाम पर अपराधियों को प्रश्रय देते हैं. और जब ऐसे अपराधियों के विरुद्ध समाज त्वरित न्याय करने के लिए तत्पर होता है तो इसे ये सामाजिक अराजकता का नाम देकर विलाप शुरू कर देते हैं. यही मानवाधिकार के मसीहा कोलकाता की 15 साल की बच्ची हेतल पारेख के बलात्कार और हत्या के अपराधी धनंजय चटर्जी को 2004 में दी जा रही फांसी का विरोध करते हुए न्यायिक प्रक्रिया को कोस रहे थे. जहाँ एक तरफ हैदराबाद की पशु चिकित्सक और दिल्ली की श्रद्धा जैसी जघन्य अपराध से पीड़ित महिलाएं हैं तो दूसरी तरफ मोहम्मद आरिफ और आफताब जैसे घृणित अपराधियों के प्रति मानवीय आधार पर न्यायिक प्रक्रिया की मांग करने वाले भी हैं.
कई दफ़े तथाकथित महिला अधिकारों के ये रक्षक अतिउत्साह में स्वयंभु न्यायाधीश बन बैठते हैं जिससे निर्दोष प्रताड़ित होते हैं. जैसे 2020 का दिल्ली का बॉयज़ लॉकर रूम मामला, जिसमें एक स्कूली छात्रा ने अपने सहपाठी पर सोशल मिडिया द्वारा यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था. जबकि पुलिस जांच के अनुसार वह लड़की स्वयं उस लड़के की फेक आईडी से यह सब कर रही थी. किंतु इससे पूर्व आरोपी बनाये गये उस नाबालिग लड़के ने इस प्रताड़ना के कारण आत्महत्या कर ली. पुलिस ने आरोपी लड़की और उसकी दोस्त के खिलाफ चार्जशीट दाखिल किया और मामला जुवेनाइल कोर्ट के अधीन है. ‘फेमिनिज्म’ की अतिसक्रियता ने एक निर्दोष किशोर की जान ले ली. ऐसा ही उदाहरण वर्तमान में चर्चित जॉनी डेप और एम्बर हर्ड के तलाक का मामला है, जहां हर्ड के आरोपों ने डेप का निजी जीवन और फ़िल्मी करियर बर्बाद कर दिया. ऊपर से उन्होंने सामाजिक जीवन में जो प्रताड़ना झेली वो अलग. लेकिन न्यायालय ने हर्ड का षड़यंत्री और क्रूर चेहरा उजागर किया. इसने डेप को आरोपमुक्त कर उनकी गरिमा तो प्रतिष्ठित की किंतु उस मानसिक प्रताड़ना का क्या जो डेप ने झेली. समस्या यही है, किसी भी परिस्थिति में पुरुष को दोषी मानना. पुरुष गलत होता होगा लेकिन स्त्री भी गलत हो सकती है.
अन्यत्र लव जिहाद के खिलाफ महिला अधिकारों के समर्थक भी एकपक्षीय दोषारोपण कर रहें हैं. स्वच्छंदता के आवेश में पारिवारिक अपनाईयत व रिश्तों को तिलांजलि देती तथा सामाजिक कायदों एवं पुलिस-प्रशासन की चेतावनियों की धज्जियाँ उड़ाती ये महिलाएं ‘माई बॉडी-माई च्वाइस’ के आधुनिक अधिकारों के साथ ऐसे रिश्तों में पड़ती हैं. फिर ऐसे मामलों के लिए उन्हें भी कुछ हद तक दोषी क्यों न ठहराया जाय?
राजनीतिशास्त्री एंटोनियो ग्राम्सी के अनुसार, ‘किसी समाज में लोगों को स्थापित मूल्यों के विरुद्ध खड़ा नहीं किया जा सकता है इसलिए अगर लोगों को अपने साथ लाना हो तो सबसे पहले समाज के स्थापित मूल्यों को बदलना चाहिए.’ दिग्भ्रमित नारीवाद की दुर्दशा के पीछे भी यही सिद्धांत काम कर रहा है जो उसे मूल्यहीनता की तरफ धकेल रहा है. ज़ब स्थापित मूल्य बदलेंगे तो भारतीय समाज की नींव में स्थित नारी गरिमा के प्रति नज़रिया भी बदलेगा और ज़ब इसे नकारात्मक स्वरूप प्रदान किया जाएगा तो परिणाम भी विघटनकारी होगा.
पुरुषवाद की समाप्ति के नाम चलने वाले दुराग्रही प्रगतिशील आंदोलन वास्तव में सामाजिक विध्वंस को तत्पर स्वार्थी तत्वों के मध्य की दूरभिसंधि हैं. पितृसत्ता के विरोध के नाम पर खलनायक बनाया गया एक पिता अपने परिवार का रक्षक ही नहीं बल्कि वह समाज निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाता है. पिता का व्यक्तित्व ही उसकी संतति के भविष्य निर्धारण में सर्वाधिक बड़ी भूमिका का निर्वहन करता है तथा समाज के भविष्य की नींव तैयार करता है. इस ‘तथाकथित अत्याचारी’ पितृसत्ता को अपमानित करने एवं चुनौती देने का प्रयास वास्तव में एक पिता के पुरुषार्थ को समाप्त करने का षड्यंत्र है. ताकि उसे अपने संततियों के सुदृढ़ भविष्य हेतु संघर्ष में कमजोर किया जाए और इसकी समाधि पर सामाजिक अराजकता की नींव डाली जाए.
पितृसत्ता में कमियां हो सकती है. कोई भी समाज व्यक्ति या वर्ग यहां तक कि कई दार्शनिक सिद्धांत ईश्वरीय विधान को भी दोषमुक्त नहीं मानते. लेकिन जब एक विचारधारा की प्रवृत्ति किसी लक्षित वर्ग या समाज पर केवल दोषारोपण की हो तो समस्याएं पैदा होंगी. जैसे किसी आवश्यकता को अधिकार के रूप में परिभाषित किये जाने का अर्थ यह हुआ कि जब भी इस आवश्यकता की आपूर्ति बाधित होगी तब यह सारी प्रक्रिया अधिकार हनन प्रतीत होगी अर्थात् अन्याय का स्वरूप लगने लगता है और अन्याय का प्रतिकार एवं अधिकारों हेतु संघर्ष हर काल-परिस्थिति में जायज है. असल समस्या यही शुरू होती है.
उदाहरणस्वरूप पारिवारिक जिम्मेदारियों में मर्द औरतों के कार्यों में अधिकारी हाथ बटाए, पति अपने निजी जीवन और व्यवसायिक कार्यों में भी पत्नी की राय को तरजीह देना आवश्यकता है. पुरुष परिवार की महिलाओं को स्वतंत्र जीवन का अधिकार दे. उन्हें अपने फैसले करने, किसी भी वक्त घर आने-जाने, देर रात तक बाहर रहने, मनोनुरूप कपड़े पहनने, इक्षित जीवनसाथी तथा करियर चुनने, उन्मुक्त आचरण की आजादी आदि को स्वीकार करे. यह भी आवश्यक है लेकिन इन्हें अबाधित अधिकार के रूप में परिभाषित किया जाना रिश्तों में टकराव पैदा करेगा.
एक पुरुष जो हस्तक्षेप पत्नी, बहन या बेटी के जीवन में करता है वही हस्तक्षेप अपने छोटे भाई या बेटे के जीवन में भी करता हैं, क्योंकि वह अपने परिवार की सुरक्षा के भाव से संचालित होता है. उसका ध्येय दमन नहीं बल्कि बह्या संकटों से उनकी हिफाज़त होता है. इस जिम्मेदार भावना को लिंगाधारित-चयनित स्वरूप देकर कलंकित करना अनुचित है. अपनी शारीरिक क्षमता पर आधारित पौरूष द्वारा अगर कोई पुरुष महिला का दमन-शोषण करता है तो उसी पौरूष के दम पर दूसरा पुरुष ऐसे अत्याचार का प्रतिकार भी करता है. इस विकृत अधिकारवाद के नाम पर विवाह नामक संस्था को लगभग नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया है. अब तो पश्चिम की ‘मोनोगेमी’ प्रथा भी भारत (गुजरात) में प्रारंभ हो गई है. भारतीय संस्कृति के विशिष्ट षोडश संस्कारों में विवाह भी है और यही समाज का आधार भी है. आश्रम व्यवस्था में गृहस्थ आश्रम को ही प्रधान माना गया है (‘गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रम:’– मनु. 3/77) और गृहस्थाश्रम का आधार नारी है.
दिक्क़त ये है कि जो आज नारी-मर्यादा की बात करते हैं, पिछड़े और दकियानूसी लगते हैं और वे जो नारीवाद के नाम पर पुरुषों के विरुद्ध घृणा फैलाते हैं महिलाओं को पारम्परिक सामाजिक सुरक्षा कवच से निकालकर भोगवाद का आसान शिकार बनने की तरफ धकेल रहे हैं, स्वयं को प्रगतिशील कहते हैं. यही वर्ग वैवाहिक संबंधों को असमानता, आजीवन बंधन आदि का पर्याय बता उसको विद्रुप बनाने के लिए आतुर है. हालांकि ऐसे विचार भ्रामक हैं. केवल विवाह संस्था ही नहीं दुनिया के किसी भी सामाजिक संबंध में सौ फ़ीसदी समानता नहीं हो सकती. वैवाहिक संबंधों की नियति में कहीं पुरुष प्रधान हो सकता है कहीं स्त्री. किसी विषय पर स्त्री पक्ष की प्रबलता हो सकती है तो कहीं पुरुष अधिक प्रभावी हो सकता है परंतु तुला से नपी-जुखी समानता तो असंभव है. उचित होता कि अगर समानता के बजाय समन्वय, साहचर्य या सहजीविता जैसे शब्दों का इस्तेमाल होता.
रही बात ‘फेमिनिज्म’ की तो इसने एकल जीवनशैली के नाम पर उपभोक्तावादी-बाजारवादी संस्कृति को बढ़ावा दिया गया है. तलाक की दर बढ़ाई है. नारी को सहधर्मिणी, सहयोगी से उपभोग की वस्तु एवं प्रतिद्वंदी में तब्दील किया है. उन्हें यकीन दिलाया गया है कि नग्नता में स्वतंत्रता निहित है. ज़ब एक पुरुष का चारित्रिक पतन होता है तो मात्र एक परिवार बर्बाद होता है लेकिन ज़ब एक महिला पतित होतीं है तो पूरी नस्ल का पतन हो जाता है. सर्वविदित है कि समाज का अस्तित्व आज भी नारीत्व से हैं पुरुषत्व से नहीं. परिवर्तन प्रकृति का आवश्यक गुण है. पुरुष-महिला संबंध भी परिवर्तित हो रहें हैं. जहाँ पुरुष आगे बढ़कर अपनी नई भूमिकाएं स्वीकार कर रहें हैं वही महिलाएं सकारात्मक प्रगति के साथ अपनी परंपरागत भूमिका को तिरस्कृत कर रही हैं. किंतु एक सशक्त समाज के लिए दोनों समन्वित-सामंजस्यपूर्ण भूमिका आवश्यक है.
अपराधी, गुंडा का कोई वाद या सिद्धांत नहीं होता चाहे महिला हो या पुरुष? ं ्
पितृसत्ता चेतन हो सकता है और महिलाएं भी गुंडा हो सकती हैं।