संविधान सभा का पहला दिन

संविधान सभा के रास्ते में अवरोधों के ऊंचे पहाड़ ही पहाड़ थे। कांग्रेस नेतृत्व को एक पगडंडी खोजनी पड़ी। तब ही संविधान सभा बैठ सकी। लेकिन उस पर अनेक सवाल जो तब थे वे आज भी हंै। दिन सोमवार, समय ग्यारह बजे। कड़ाके की सर्दियों का मौसम था। तारीख थी, नौ। महीना दिसंबर का था। साल था, 1946। नई दिल्ली के कांस्टीट्यूशन हाल में देश के हर क्षेत्र से निर्वाचित प्रतिनिधि एकत्र हुए। वे असाधारण गुणों से भरपूर थे। उनमें ज्यादातर स्वाधीनता सेनानी रहे। अंतरिम सरकार में उपाध्यक्ष पद पर विराजमान जवाहरलाल नेहरू उस सभा के सूत्रधार माने जाते हैं। वास्तव में सूत्रधार तो वायसराय का कार्यालय था। नेहरू और वायसराय में कड़ी थे बेनेगल नरसिंह राव। जिनका चयन वायसराय ने ब्रिटिश सरकार की अनुमति से किया था। संविधान सभा का वह पहला दिन था।

उसकी मांग पहली बार कांग्रेस ने 1934 में की थी। जिसे 12 साल बाद केबिनेट मिशन की योजना में बनने का अवसर आया। उस योजना को कांग्रेस ने स्वीकार किया। वह अपने वादे और मांगों से कई कदम पीछे हटी। संविधान का अधिकार शासक से छीना जाता है। यहां शासक की मर्जी और उसके बनाए नियमों में संविधान सभा बैठ रही थी। केबिनेट मिशन ने जो योजना घोषित की थी, उसके अनुरूप भी वह संविधान सभा नहीं थी। अगर होती तो उसमें मुस्लिम लीग, सिख समाज के नेता और रियासतों के प्रतिनिधि भी होते। मुस्लिम लीग ने घोषणा कर दी कि वह संविधान सभा का बहिष्कार करेगी। रियासतों के प्रतिनिधि असमंजस में थे। इसलिए महात्मा गांधी ने कांग्रेस के नेताओं को सलाह दी कि ऐसी टूटी-फूटी संविधान सभा में जाने की जरूरत नहीं है। ब्रिटिश सरकार से नया समझौता होने के बाद ही संविधान सभा में जाना चाहिए। लेकिन कांग्रेस ने दूसरा ही रास्ता चुना। कांग्रेस नेतृत्व ने सोचा कि संविधान एक राजनीतिक प्रयास का परिणाम होता है। वह उसे दिख रहा था इसलिए उसने महात्मा गांधी की सलाह ठुकरा दी।

जैसे ही सभा बैठी कि आचार्य जे.बी. कृपलानी खड़े हुए। वे कांग्रेस के अध्यक्ष थे। इसीलिए उन पर यह दायित्व आया। उन्होंने अस्थाई अध्यक्ष के लिए डा. सच्चिदानंद सिन्हा के नाम का प्रस्ताव रखा। संविधान सभा की कार्यवाही में यह नहीं लिखा हुआ है कि उनके प्रस्ताव का समर्थन किसने किया। इससे यह समझा जा सकता है कि कृपलानी के प्रस्ताव पर आम सहमति थी। संविधान सभा संबंधी दस्तावेज बताते हैं कि महीनों पहले बेनेगल नरसिंह राव ने जवाहरलाल नेहरू को उनका नाम सुझाया था। इसका प्रमुख कारण यह था कि डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा सबसे वयोवृद्ध थे। पुराने सांसद थे। पुराने कांग्रेसी थे। वे पहले और एक मात्र भारतीय थे जिसे सरकार में इक्जीक्यूटिव कौसिंलर के बतौर फाइनेंस मेम्बर बनने का अवसर मिला था। वे पटना विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे थे।

उन्होंने ही अभियान चलाया जिससे 1911 में बिहार राज्य बना। लंदन में कानून की पढ़ाई पूरी कर वे बैरिस्टर बने। वकालत की और होम रूल लीग आंदोलन में सहभागी रहे। 1910 में वे इंपीरियल लेजिस्टलेटिव कौसिंल के सदस्य हुए। उस रूप में 10 काम किया। अपनी पत्नी राधिका की याद में 1924 में सिन्हा लाइब्रेरी बनवाई। वे पत्रकार और लेखक भी थे। ‘इंडियन नेशन’ के प्रकाशक थे और ‘हिन्दुस्तान रिव्यू’ के संपादक थे। जब वे 72 साल के थे तब उनके नाम से बिहार के औरंगाबाद में एक कालेज खोला गया। यह उनकी महिमा का मान था। महर्षि विश्वामित्र के बक्सर क्षेत्र में 1871 के 10 नवंबर को वे मुरार गांव में जन्मे थे। अध्यक्ष के आसन तक आदर के साथ पहुंचाने से पहले आचार्य कृपलानी ने उनके राजनीतिक जीवन और गौरवशाली कार्यों का यह परिचय दिया।

वे आसन पर बैठे। सभा ने खड़े होकर उनका अभिनंदन किया। इस तरह पहले दिन की कार्यवाही शुरू हुई। अध्यक्ष ने अमेरिका, चीन और आस्ट्रेलिया से मिले शुभकामना संदेशों को पढ़कर सुनाया। इसके अलावा उन्हें दो काम उस दिन करने थे। पहला, एक विवाद पर व्यवस्था देनी थी। ब्रिटिश बलूचिस्तान के खान अब्दुस्समद खां ने वहां से निर्वाचित सदस्य नवाब मोहम्मद खां जोगजाई के निर्वाचन पर वैधानिक आपत्ति की थी। उसके बारे में निर्णय का जिम्मा उन्होंने स्थाई अध्यक्ष पर छोड़ दिया। जिनका निर्वाचन होना था। तब तक यह व्यवस्था दी कि निर्वाचित प्रतिनिधि जोगजाई ही रहेंगे। दूसरा महत्वपूर्ण कार्य उद्घाटन भाषण था। अपने भाषण में उन्होंने आभार जताया कि सभा ने उन्हें अस्थाई अध्यक्ष बनाया है। उनका भाषण लिखित था। उन्होंने पहले ही यह बता दिया कि अगर वे पूरा भाषण न पढ़ सके तो उसे पढ़ कर सुनाने के लिए वे बेनेगल नरसिंह राव को दे देंगे।

अस्थाई अध्यक्ष चुने जाने को उन्होंने अपने जीवन का सर्वोच्च सम्मान माना। संविधान निर्माण के लिए गठित प्रतिनिधि सभा को ही संविधान सभा कहते हैं। इसे उन्होंने उदाहरणों से समझाया। जो पहला उदाहरण दिया वह स्विटजरलैंड का था। सलाह दी कि ‘यह सभा स्विस विधान का ध्यान से मनन करेगी।’ उसके बाद उन्होंने फ्रेंच नेशनल एसेंबली का उल्लेख करते हुए अमेरिकी संविधान सभा के बारे में बताया। वह सभा 1787 में फिलाडेलफिया में बैठी थी। उन्होंने इसे चिन्हित किया कि कनाडा, आस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका ने अमेरिकी संविधान को अपना आदर्श बनाया। उनके ये शब्द हैं-‘मुझे संदेह नहीं है कि आप भी और देशों की अपेक्षा अमेरिकन विधान पद्धति की ओर अधिक ध्यान देंगे।’ उनका लंबा भाषण विद्वतापूर्ण था। उपयुक्त उद्धरणों से भरा हुआ था।

जिसमें संविधान सभा के लिए भारत में समय-समय पर जो-जो प्रयास प्रस्ताव रूप में किए गए थे उनका उल्लेख था। उन प्रस्तावों के जरूरी उद्धरण थे। यह सब बताते हुए उन्होंने याद दिलाया कि ‘संविधान सभा वयस्क मताधिकार के सिद्धांत पर चुनी जानी चाहिए’ थी। यही कांग्रेस के प्रस्ताव थे। उन्होंने कहा कि संविधान सभा की मांग देश की चेतना में एक आस्था के रूप में स्थापित हो गई थी। 1940 से पहले मुस्लिम लीग भी इस विचार की थी। पाकिस्तान की मांग के बाद उसने दो संविधान सभा का प्रस्ताव रखा। इसी क्रम में उन्होंने सप्रू कमेटी की योजना का उल्लेख किया। उसके बाद उन्हें अफसोस के साथ यह कहना पड़ा कि ‘पर आज हम सब इस सभा में ब्रिटिश केबिनेट मिशन की योजना के अनुसार एकत्र हुए हैं।’ डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा ने एक स्पष्टीकरण भी दिया कि क्यों केबिनेट मिशन की योजना को स्वीकार किया गया। इसलिए कि इससे राजनीतिक गतिरोध टूटेगा।

अंत में उनका कहना था कि ‘भारतीय इतिहास का यह महान और स्मरणीय अवसर अभूतपूर्व है। देश की जनता ने जिस अदम्य उत्साह से संविधान सभा का स्वागत किया है, वह बेजोड़ है।’ उन्हें अध्यक्ष के आसन पर ले जाने से पहले कृपलानी ने अपने प्रस्ताविक भाषण को इस तरह पूरा किया‘ह म लोग हर एक काम परमात्मा के मंगलमय आशीर्वाद से प्रारंभ करते हैं। अत: आदरणीय डॉ. सिन्हा से मेरा अनुरोध है कि वे इस आशीर्वाद का आहवान करें, जिससे हमारा काम सुचारू रूप से चले।’डा. सच्चिदानंद सिन्हा ने इसे याद रखा। इसीलिए यह कहा कि ‘मेरी कामना है कि आपका प्रयत्न सफलीभूत हो। मैं परमात्मा से प्रार्थना करता हूं कि वह आपको अपना मंगलमय आशीर्वाद दे, जिससे संविधान सभा की कार्यवाही केवल विवेक, जनसे वा-भावना और विशुद्ध देश भक्ति से ही परिपूर्ण न हो, बल्कि बुद्धिमत्ता, सहिष्णुता, न्याय और सबके प्रति सम्मान, सद्भावना से भी ओतप्रोत हो। भगवान आपको वह दूरदृष्टि दे, जिससे भारत को पुन: अपना गौरवमय अतीत प्राप्त हो और उसे विश्व के महान राष्ट्रों के बीच प्रतिष्ठा और समानता का स्थान मिले।’ इस तरह आचार्य जे.बी. कृपलानी और डा. सच्चिदानंद सिन्हा ने एक नास्तिक के नेतृत्व पर आस्तिकता की चादर चढ़ाई। डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा उन दिनों अस्वस्थ रहते थे। दोपहर बाद सभा में रहने में असमर्थ थे। इसलिए बंगाल के एक प्रतिनिधि फ्रेंक एंथोनी को उन्होंने अस्थाई उपाध्यक्ष बनाया। वे लंबे समय तक लोकसभा में मनोनीत सदस्य के रूप में बने रहे। डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा ने सबसे पहले अपना परिचय पत्र पेश कर सभा के रजिस्टर पर हस्ताक्षर किया।

इससे विधिवत सदस्य बनने की प्रकिया प्रारंभ हुई। हर सदस्य को परिचय पत्र प्रस्तुत कर हस्ताक्षर करना जरूरी था। उसके बाद उस सदस्य को अध्यक्ष के आसन पर पहुंचकर उनसे हाथ मिलाने की एक रस्म तय थी जिसे समय बचाने के लिए डॉ. सिन्हा ने हटा दिया। उस दिन मद्रास, बंबई, बंगाल, यूपी, पंजाब, बिहार, मध्यप्रांत और बरार, असम, सीमाप्रांत, उड़ीसा, सिंध, दिल्ली, अजमेर-मेरवाड़ा और कूर्ग से निर्वाचित प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर किए। केबिनेट मिशन योजना में संविधान सभा की संख्या 385 होनी थी। पहले दिन सिर्फ 207 सदस्य ही आए। मुस्लिम लीग ने पहले तो केबिनेट मिशन योजना को माना था लेकिन बाद में बहिष्कार करने का निर्णय किया। केबिनेट मिशन बनाने की घोषणा 19 फरवरी, 1946 को की गई थी। उसमें ब्रिटिश केबिनेट मंत्री थे। इसलिए वह केबिनेट मिशन कहलाया। तीन सदस्यीय मिशन 23 मार्च, 1946 को भारत पहुंचा। उसने हर पक्ष से बात की। अंतत: 16 मई को अपनी योजना घोषित कर दी। उसमें ही संविधान सभा बनने की प्रक्रिया दी गई थी। जिसे लंबी बहस के बाद कांग्रेस ने 25 जून को स्वीकार किया। उसने केबिनेट मिशन योजना के अधीन संविधान सभा में जाने का निर्णय किया।

उससे पहले वायसराय ने अंतरिम सरकार के गठन की घोषणा कर दी थी। केबिनेट मिशन 29 जून को वापस चला गया। उसके बाद 2 सितंबर, 1946 को अंतरिम सरकार बनी। जिसमें पंडित जवाहरलाल नेहरू गवर्नर जनरल की परिषद के उपाध्यक्ष बनाए गए। उसमें उनके अलावा 12 सदस्य थे। जवाहरलाल नेहरू ने अपनी अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति बनाई थी। वह संविधान सभा के चुनावों के दौरान ही बनाई गई थी। उसे संविधान सभा संबंधी प्रक्रियाओं का निर्धारण करना था। उसकी पहली बैठक 20 जुलाई को हुई थी। फिर भी संविधान सभा को बुलाने में पांच महीने लगे। उसका पहला दिन ही बताता है कि भविष्य में औपनिवेशिकता का विस्तार होगा।

 

1 thought on “संविधान सभा का पहला दिन

  1. बहुत ही ज्ञानवर्धक आलेख है। आदरणीय राय साहब की प्रशंसा करता हूँ।
    प्रश्न- संविधान सभा में सिंध प्रांत से कौन कौन सदस्य थे?
    प्रश्न- सिंधी भाषा को संविधान सभा ने प्रारम्भ में 8वीं अनुसूची में सम्मिलित क्यों नहीं किया था?

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