संयुक्त प्रांत के दौरे में प्रयाग के विद्यार्थियों की ओर से मुझे नीचे लिखा पत्र मिला थाःयद्यपि विद्यार्थियों की एक सभा में मैं इस विषय की चर्चा कर चुका हूं और इन स्तंभों द्वारा विद्यार्थियों के लिए एक निश्चित कार्यक्रम प्रस्तुत कर चुका हूं, तो भी पहले बताई हुई योजना को यहां फिर से अधिक दृढ़तापूर्वक पेश कर देना अनुचित न होगा।
पत्र-लेखक जानना चाहते हैं कि पढ़ाई पूरी करने के बाद वे क्या कर सकते हैं। मैं उनसे कहना चाहता हूं कि बड़ी उम्र के विद्यार्थी, यानी कालेजों के तमाम विद्यार्थियों को पढ़ाई करते हुए भी ग्राम-सेवा का काम शुरू कर देना चाहिए। कुछ समय ऐसा काम करने वालों के लिए मैं नीचे एक योजना देता हूं।
विद्यार्थियों को अपनी सारी छुट्टियां ग्राम-सेवा में लगानी चाहिए। इस बात को ध्यान में रखकर लकीर के फकीर बनने के बदले, वे अपने मदरसों या कालेज के पास के गांवों में चले जाएं और गांव वालों की हालत का अध्ययन करके उनके साथ मेलजोल करें। इस तरह वे गांव वालों के निकट संपर्क में आते चले जाएंगे, और बाद में जब कभी वे वहां जाकर रहने लगेंगे तो लोग किसी अजनबी की तरह उन पर संदेह करने के बजाए एक मित्र की हैसियत से उनका स्वागत करेंगे। लंबी छुट्टियों के दिनों में विद्यार्थीगण गांवों में जाकर रहें, प्रोढ़ों के लिए मदरसे या कक्षाएं खोंलें, गांव वालों को सफाई के नियम सिखाएं और उनकी छोटी-मोटी बीमारियों का इलाज करें। वे उनमें चरखे को दाखिल करें और उन्हें अपने अवकाश के समय के एक-एक मिनट का अच्छी तरह उपयोग करना सिखाएं। इस काम के लिए विद्यार्थियों और शिक्षकों को अपने छुट्टियों के समय के सदुपयोग संबंधी विचारों को बदलना पड़ेगा। छुट्टी के दिनों में विचारहीन शिक्षक अक्सर विद्यार्थियों से पाठ याद कर लाने को कहते हैं। मेरी राय में यह एक बहुत ही बुरा चलन है। छुट्टी के दिनों में तो विद्यार्थियों के दिमाग पढ़ाई की आम दिनचर्या से मुक्त रहने चाहिए, और स्वावलंबन तथा मौलिक विकास के लिए स्वतंत्र रहने चाहिए। जिस ग्राम-सेवा का मैंने जिक्र किया है, वह मनोविनोद और नए-नए अनुभव प्राप्त करने का एक अच्छा साधन है। जाहिर है कि इस तरह की तैयारी, पढ़ाई खत्म करते ही जी-जान से ग्राम-सेवा में लग जाने के लिए, बहुत ही अच्छी सिद्ध होगी।
इसके बाद ग्राम-सेवा की पूरी-पूरी योजना का विस्तार से वर्णन करने की कोई जरूरत नहीं बचती। छुट्टियों में जो कुछ किया था, उसको अब स्थाई रूप-भर देना रह जाता है। गांव वाले भी हर तरह इस काम की सहायता के लिए तैयार मिलेंगे। गांवों में रहकर हमें ग्राम्य जीवन के हर पहलू पर विचार और अमल करना है; क्या आर्थिक, क्या आरोग्य संबंधी, क्या सामाजिक और क्या राजनैतिक। इसमें शक नहीं कि अधिकांश लोगों के लिए चरखा ही आर्थिक संकट निवारण का तात्कालिक साधन है। चरखे के कारण गांव वालों की आमदनी तत्काल तो बढ़ती ही है, वे अन्य बुराइयां में पड़ने से भी बच जाते हैं। आरोग्य संबंधी बातों में गंदगी और रोग भी शामिल हैं। इस बारे में विद्यार्थियों से आशा की जाती है कि वे अपने हाथों से काम करेंगे और मैले तथा कूड़े-करकट की खाद बनाने के लिए उसे गड्ढों में भरेंगे, कुंओं और तालाबों को साफ रखने की कोशिश करेंगे, नए-नए बांध बनाएंगे, गंदगी दूर करेंगे और इस तरह गांवों को साफ रखकर उन्हें अधिक रहने योग्य बनाएंगे। ग्राम-सेवक को सामाजिक समस्याएं भी हल करनी होंगी और बड़ी नम्रता के साथ लोगों को इस बात के लिए राजी करना होगा कि वे बुरे रीति-रिवाजों और बुरी आदतों को छोड़ दें जैसे अस्पृश्यता, बाल-विवाह, बेमेल-विवाह, शराबखोरी, नशाबाजी और जगह-जगह फैले हुए हर तरह के वहम, भ्रम या अंध विश्वास। आखिरी बात राजनैतिक पहलू की है। इस संबंध में ग्राम-सेवक गांव वालों की राजनैतिक शिकायतों का अध्ययन करेगा और उन्हें इस बात में स्वतंत्रता, स्वावलंबन और आत्मोद्धार का महत्व सिखाएगा। मेरी राय में इतना करने से प्रौढ़-शिक्षा का काम पूरा हो जाता है। लेकिन ग्राम-सेवक का काम यहां समाप्त नहीं होता। उसे छोटे बच्चों की शिक्षा-दीक्षा और उनकी सुरक्षा का भार अपने ऊपर लेना होगा और बड़ों के लिए रात्रिशालाएं चलानी होंगी। साक्षरता की यह शिक्षा पूरे पाठ्यक्रम का एक अंग-मात्र होगी और ऊपर जिसे बड़े ध्येय का उल्लेख किया गया है, उसकी पूर्ति का एक साधन भर होगी।
मेरा दावा है कि इस सेवा के लिए हृदय की उदारता और असंदिग्ध चरित्र, ये दो जरूरी चीजें हैं। अगर ये दो गुण हों तो और सब गुण अपने आप मनुष्य में आ जाते हैं। मजदूरी मिलनी चाहिए। कांग्रेस के भावी अध्यक्ष राष्ट्रीय सेवा-संघ का संघटन कर रहे हैं। अखिल भारतीय चरखा संघ एक उन्नतिशील और स्थाई संस्था है। उसके पास सच्चरित्र नवयुवकों के लिए सेवा का अनंत क्षेत्र मौजूद है। वहां जीवन- निर्वाह लायक वेतन अवश्य मिलता है। इससे ज्यादा रकम वह दे नहीं सकता। स्वार्थ साधन और देश की सेवा दोनों एक साथ नहीं हो सकते। देश की सेवा के आगे अपना स्वार्थ बहुत ही सीमित हो सकता है; और इसलिए हमारे गरीब देश के पास जो साधन हैं, उनसे अधिक किसी जीविका की गुंजाइश नहीं है। गांवों की सेवा करना स्वराज्य कायम करना है। और तो सब सपने की बातें हैं।
यंग इंडिया, 26.11.1929