हमारी सभी तरह की नीतियों के केंद्र में अब किस तरह समाज की जगह राज्य होता जा रहा है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो हमारी आर्थिक नीतियां हैं। पर उसी की झलक हमारी खेल संबंधी नीतियों में पाई जा सकती है। हमारी खेल नीति का लक्ष्य यह नहीं है कि देश के सभी लोगों के शरीर को स्वस्थ बनाए रखने के लिए खेलों को प्रोत्साहन कैसे दिया जाए या देश के सभी लोगों की मानसिक शक्ति और कौशल को बढ़ाने के लिए उन्हें खेलों की तरफ किस तरह प्रवृत्त किया जाए। उसका लक्ष्य यह होता जा रहा है कि हम अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में उत्तरोत्तर किस तरह बेहतर प्रदर्शन करें। अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताएं उन लोगों के लिए होती हैं, जो कोई कीर्तिमान स्थापित कर सकते हों। हर देश यह प्रयत्न करता है कि उसके प्रतिभागी अधिक से अधिक पदक लेकर आएं। इसके लिए चुने हुए लोगों के सघन प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाती है। इस प्रशिक्षण में शरीर को किसी एक दिशा में दक्ष करने की कोशिश की जाती है। अब प्रतियोगिताओं के लिए दिया जाने वाला प्रशिक्षण भी एक व्यवसाय बन गया है। इन प्रतियोगिताओं के लिए दिए जाने वाले प्रशिक्षण में शरीर की प्राकृतिक क्षमता को बढ़ाने पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता, जितना शरीर की अधिक से अधिक खींचतान के जरिये उसे प्रतियोगी बनाने की तरफ। इन प्रतियोगिताओं में औद्योगिक रूप में संपन्न देशों के प्रतिभागी आगे रहते हैं। क्योंकि व्यवसाय बना दिए गए खेल के लिए वे अधिक साधन जुटा सकते हैं। अन्य देश अपने कुछ चुने हुए लोगों की क्षमता और दक्षता के द्वारा किसी तरह अपनी जगह बनाए रहते हैं।
हाल ही में इंडोनेशिया में संपन्न हुए एशियाई खेल में 69 पदकों सहित भारत आठवें स्थान पर रहा। इंडोनेशिया, उज्बेकिस्तान और चीनी ताईपेई पदक तालिका में हमसे ऊंचे रैंक पर रहे यह किस भारतीय के लिए गर्व की बात होगी। ओलंपिक खेलों में तो हमारी स्थिति और भी अधिक निराशाजनक रहती है। लेकिन विडंबना यह है कि हमने अपनी खेल नीति का लक्ष्य इन प्रतियोगिताओं को ही बना रखा है।
दुनिया के अन्य सभी देशों की तरह भारत की खेल नीति के केंद्र में भी अब अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताएं आ गई हैं। भारत एक विशाल देश है और हमारे यहां खेल प्रतिभाओं की कमी नहीं होनी चाहिए। लेकिन हमारे तंत्र में सबको देखने और परखने की क्षमता नहीं है। जो खेल प्रशिक्षकों के संपर्क में आ जाते हैं, उन्हें आगे बढ़ाने की ओर अवश्य ध्यान दिया जाता है। लेकिन अब तक सभी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में हमारा प्रदर्शन निराशाजनक ही रहा है। हाल ही में इंडोनेशिया में संपन्न हुए एशियाई खेल इसका ताजा उदाहरण है। इन प्रतियोगिताओं में भारत को अब तक की एशियाई खेल प्रतियोगिताओं के मुकाबले अधिक पदक मिले। भारत को कुल मिलाकर 69 पदक मिले। कहा जा रहा है कि यह अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि है। चीन को जहां 289 पदक मिले, वहीं जापान को 205 और दक्षिण कोरिया को 177। उनकी तुलना में ही भारत का प्रदर्शन निराशाजनक नहीं था, हम कुल मिलाकर आठवें स्थान पर रहे। इंडोनेशिया, उज्बेकिस्तान और चीनी ताईपेई पदक तालिका में हमसे ऊंचे रैंक पर रहे। छोटे-छोटे देश पदक तालिका में हमसे ऊपर दिखे, यह किस भारतीय के लिए गर्व की बात होगी। ओलंपिक खेलों में तो हमारी स्थिति और भी अधिक निराशाजनक रहती है। लेकिन हमने अपनी खेल नीति का लक्ष्य इन प्रतियोगिताओं को बना ही क्यों रखा है? हम दुनिया की भेड़चाल में क्यों पड़े रहते हैं, यह समझ में नहीं आता। इन प्रतियोगिताओं से राज्य की कीर्ति ही बढ़ती है। चीन दुनिया में अपने आपको एक ताकतवर देश के रूप में साबित करना चाहता था। इसलिए उसने अपने साधन इन प्रतियोगिताओं के लिए प्रतियोगी तैयार करने में झोंक दिए। इससे न आम खिलाड़ियों का भला हुआ न चीनी समाज का। क्योंकि चीन की खेल नीति का उद्देश्य अपने साधारण नागरिकों का स्वास्थ्य और शारीरिक कौशल नहीं था।
खेलों के लिहाज से परंपरागत भारत एक बहुत समृद्ध समाज रहा है। यह समृद्धि केवल खेलों की विविधता तक सीमित नहीं थी। बल्कि गांव-गांव तक खेलों की सुविधा और साधनों का विस्तार था। उसका स्वरूप अभ्यास की ओर था। प्रतियोगिताएं होती अवश्य थी, लेकिन पूरा खेल तंत्र प्रतियोगिताओं को केंद्र बनाकर विकसित नहीं किया गया था। भारत एक विशाल देश और विविधताओं से भरा समाज है। इसलिए हर क्षेत्र की खेल संबंधी संस्थाएं अलग तरह से विकसित हुर्इं। लेकिन मध्य देश में सबसे प्रसिद्ध खेल संस्था अखाड़ा थी। दक्षिण में भी उसे काफी लोकप्रियता प्राप्त थी। आमतौर पर अखाड़े से यह आशय लिया जाता है कि वह शारीरिक व्यायाम और कुश्ती की जगह थी। निश्चय ही दोनों उसके मूल में थे। लेकिन अखाड़ा केवल व्यायाम और कुश्ती की जगह नहीं थी। तीरंदाजी से लेकर घुड़सवारी तक बहुत से खेलों का प्रशिक्षण इन अखाड़ों में दिया जाता था। शस्त्र विद्या में पारंगत होने की वे मुख्य जगहें थीं। हमारी ग्रामीण पंचायतें अपनी सुरक्षा का दायित्व स्वयं उठाती थीं। इसलिए वे अपना सुरक्षा तंत्र विकसित करने का दायित्व इन अखाड़ों पर ही डालती थीं। सबसे बड़ी बात यह है कि अखाड़े सर्वसुलभ थे। अनुभवी गुरुओं की देखरेख में सब तरह का कौशल वहां सिखाया जाता था। यह दुर्भाग्य की बात है कि शारीरिक कौशल बढ़ाने वाली इतनी पुरानी और व्यापक संस्था को हमने स्वतंत्रता के बाद के सात दशकों में विलुप्त कर दिया। आज देश में नाममात्र के अखाड़े ही बचे हैं। वे भी कुछ पुराने पहलवानों के भरोसे चल रहे हैं। इसके अलावा वे केवल कुश्ती तक सीमित रह गए हैं।
हमें अखाड़ों को इस तरह लुप्त नहीं हो जाने देना चाहिए था। उनके अतिरिक्त हमें विद्यालयों को खेल के नए केंद्र के रूप में विकसित करना चाहिए था। शिक्षा का उद्देश्य मानसिक उन्नति होता है पर मानसिक उन्नति का आनुषांगिक शारीरिक विकास होता है। अगर हम शरीर को स्वस्थ रखने के लिए उसे एक अनुशासन में नहीं रखते तो हम मानसिक उन्नति नहीं कर सकते। शरीर को अनुशासन में रखने का सबसे अच्छा साधन खेल ही है। लेकिन हमने अपनी शिक्षा को नौकरी पाने के कौशल को हासिल करने वाली एक तोतारटंत बना दिया है। हमारे शिक्षा शास्त्रियों को आज तक यह समझ में नहीं आया कि खेल हमारी शिक्षा का उतना ही महत्वपूर्ण अंग होना चाहिए, जितना पाठ्य सामग्री। देश में विद्यालयों की जो दुर्दशा है, उसे देखते हुए हम खेल को शिक्षा का आवश्यक अंग बनाने की बात कम से कम अभी नहीं सोच सकते। कम ही स्कूल ऐसे हैं, जिनके पास अपने खेल के मैदान हैं। वहां भी खेल एकाध पीरियड तक सीमित रहते हैं। वे विद्यालय के जीवन का स्वाभाविक अंग नहीं है। आज देश में केवल एक विद्यालय है, जो खेलों को पाठ्यक्रम जितना ही महत्व देता है। पुदुच्चेरी के श्रीअरविंद आश्रम के विद्यालय में हरेक छात्र का अनेक खेलों में भाग लेना अनिवार्य है। वहां पाठ्यक्रम के लिए दोपहर के पहले का समय नियत है और खेलों के लिए दोपहर के बाद का। सभी छात्रों को एक साथ कई खेलों में भाग लेना पड़ता है। हमें अपने शिक्षाशास्त्रियों को श्रीअरविंद आश्रम के विद्यालय की शिक्षा पद्धति को समझने के लिए भेजना चाहिए। आज वह आदर्श शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र है।
हमारी समस्या साधनों की नहीं, दृष्टि की है। हमने समाज को भुला दिया है। हम जो भी कर रहे हैं, वह एक शक्तिशाली राज्य बनाने के लिए कर रहे हैं। हम अपनी आर्थिक नीतियों को एक उदाहरण के रूप में देख सकते हैं। उनका उद्देश्य समाज के सभी लोगों का भरण-पोषण और उनकी सभी बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं है। हमारी आर्थिक नीतियों का उद्देश्य सकल घरेलू उत्पादन बढ़ाना है। हमारा सारा ध्यान इस बात पर रहता है कि जीडीपी की वार्षिक वृद्धि क्या है। हम हर वर्ष कराधान बढ़ाने के उपाय सोचते रहते हैं और फिर चुनाव जीतने के लिए इन साधनों को बांटने के। समाज की जगह राज्य केंद्रित यह दृष्टि हमें सामाजिक क्षय की ओर ढकेलती जा रही है। हम अंधाधुंध टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर रहे हैं। इससे न केवल काम-धंधे सिमटते चले जा रहे हैं, बल्कि हम प्राकृतिक जीवन से दूर चले जा रहे हैं। कंप्यूटर हमारी शिक्षा का प्रधान साधन हो गया है। उससे न केवल अधकचरी जानकारी मिलती है, बल्कि ज्ञान को हमने जानकारी में बदल दिया है। आज हालत यह है कि पढ़-लिखकर कोई युवक खेती करना नहीं चाहता। अपने भीतर कोई स्वतंत्र कौशल विकसित नहीं करना चाहता जो समाजोपयोगी हो। वह बस किसी कंपनी में अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी चाहता है। वह सबको उपलब्ध नहीं हो सकती। इस तरह हमारी शिक्षा बेरोजगार अधिक पैदा कर रही है। जबकि उसे समाजोपयोगी कौशल विकसित करने का माध्यम होना चाहिए। खेल हमारे जीवन का जबसे स्वाभाविक और आवश्यक अंग नहीं रहे, तबसे हमारे युवाओं का स्वास्थ्य चौपट होता जा रहा है। लेकिन हमें उनकी नहीं अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में हमें कितने मेडल मिल रहे हैं, इसकी चिंता है। इस तरह की नीतियां हमें किस दिशा में ले जा रही हैं, यह बात किसी से छिपी नहीं है। फिर भी हम अपने सामाजिक क्षय की ओर ध्यान नहीं दे रहे, आंख मूंदकर एक अंधी दौड़ में शामिल होते जा रहे हैं।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली के आर्थिक गुलाम पैदा कर रही है ।
देश को बुनियादी शिक्षा की आवश्यकता है।
जिससे बच्चे का शारिरिक मानसिक बौद्धिक अध्यात्मिक विकास हो सके ।
खेल से बच्चे का संपूर्ण विकास होता है ।लेकिन देश की शिक्षा नीति और नौकर शाह शिक्षा मे प्रयोग कर रहे है ।
शिक्षा को व्यवसाय बना दिया है ,शिक्षक को नाना प्रकार का प्रशिक्षण दिया जा रहा है ।लोग मात्र साक्षर हो रहे है जो सरकारे चाह रही है ।
देश मे शिक्षक को व्यक्तित्व विकास एवं चरित्र निर्माण के निर्धारित पाठय क्रम से उन्मुखीकरण की आ्वश्यकता है।