भगवान बुद्ध ने कहा है, “हीनभाव ही श्रेष्ठता का दावेदार बनता है. जो श्रेष्ठ हैं, उन्हें तों अपने श्रेष्ठ होने का पता भी नहीं होता है. वही श्रेष्ठता का अनिवार्य लक्षण भी है.” राजनीतिक- बौद्धिक विमर्श में एक लंबे अर्से से विभिन्न राष्ट्रीय नायकों को एक दूसरे पर श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ लगी है.
वर्तमान में समस्या है, विभिन्न वैचारिक ध्रुवों के मध्य कटु संघर्ष की. कोई भी व्यक्ति चाहें वो समाज सुधारक हो, नेता हो या चिंतक, अगर वो किसी विशेष राजनीतिक- बौद्धिक वर्ग के खांचे में फिट नहीं होता तो उसे घटिया, सांप्रदायिक, भ्रष्ट साबित करने की मुहिम शुरू हो जाती है. समान रूप से अगर कोई आपके विचारधारा के प्रसार में सहायक सबित हो रहा है तो एक पूरा वैचारिक वर्ग उसे ‘मजाजी खुदा’ साबित करने में लग जाएगा.
आजकल देश के ‘वाम- व्याधि’ जैसे दुर्घष रोग से पीड़ित बुद्धिजीवी, चिंतक जोर- शोर से पूर्ण भक्ति भाव से गाँधी जी को याद कर रहें हैं. यहाँ तक तो ठीक था, लेकिन समस्या ये हैं कि इन “तथाकथित” गाँधीवादियों एवं समाजवादियों का एक वर्ग ज़ब गाँधी एवं गाँधीवाद की प्रशंसा करता हैं तो साथ ही सावरकर जैसे राष्ट्रीय नायक एवं दक्षिणपंथ पर मनगढ़त, क्षद्र वैचारिक हमले शुरू कर उन्हें अपमानित करने का प्रयास करता है. ज़ब वैसा ही प्रति उत्तर दूसरे पक्ष से मिलता हैं तो ये पाखंड़ी गाँधीवाद, महात्मा, राष्ट्रपिता, सभ्यता आदि की दुहाई देकर विलाप शुरु कर देते हैं. अर्थात् गाँधी जी के विषय में ये कोई आलोचना नहीं सुनना चाहते. इनकी हालत उन इस्लामिक कट्टरपंथियों जैसी है जो ज़ब तक आक्रमक होने की स्थिति में ना हो तब तक भाईचारा और तहजीब की बातें करते हैं और जैसे ही स्थिति अनुकूल हो तुरंत जिहादी हो जाते हैं. असल में ये तो गाँधीवाद की खाल में छिपे फासीवादी और जिहादी हैं. जो बाबा नागार्जुन के शब्दों में कहें तो, ‘ बापू को ही बना रहे हैं तीनों बन्दर बापू के.’
इसमें कोई संदेह नहीं कि गांधी जी महात्मा हो सकते हैं, युगपुरुष हो सकते हैं, लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि वह सामान्य आलोचना से ऊपर है. स्वयं गाँधी जी कहते हैं कि, “सभी तरह आस्थाएँ सत्य के प्रकटीकरण की रचना करती हैं. लेकिन सभी अपूर्ण हैं और इनमें गलती करने की गुंजाइश है. दूसरे की आस्थाओं के सम्मान का मतलब यह नहीं कि हम उनकी गलतियों पर ध्यान नहीं दें.” (1930 ई. में यरवदा जेल से लिखे पत्र में) ध्यातव्य है कि जो गांधी की आलोचनाओं पर सबसे ज्यादा क्रंदन मचाते हैं वे वही हैं जो पिछले कुछ सालों से लगातार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर छातियां पीटते रहते हैं और फासीवादी सत्ता की दुहाई देते रहते हैं. सत्य तो यह है कि ये खुद सबसे बड़े वैचारिक फासीवादी है. विचारधारा, जो यह मानती है कि गांधी की आलोचना की ही नहीं जा सकती, एक अतिवादी और क्रूर मान्यता है, जो कि अभिव्यक्ति के संवैधानिक अधिकार के साथ स्वतंत्र चिंतन के मानवीय गरिमा के भी प्रतिकूल है.
बुद्धिजीवियों ने तो आलोचना से परे प्रकृति, ईश्वर और धर्म को भी नहीं रखा है. फ्रेडरिक नीत्शे तो ईसाईयत के ही आलोचक हैं तथा बाइबल की शिक्षाओं सवाल खड़ा करते है. वे व्यंग करते हैं कि ईसाई अपने दुश्मन से इसीलिए प्यार करता था कि वह चाहता था कि वह इसी आधार पर स्वर्ग जाए और दुश्मन को नरक की आग में जलता देखकर खुश हो.
गाँधी हो या सावरकर, दोनों के व्यक्तित्व में कमियां हो सकती हैं, दोनों के त्याग भी बड़े है. इस दुनिया में कोई भी इंसान किसी भी दृष्टि से आलोचना से परे नहीं है. स्वयं गांधीजी के सिद्धांतों एवं व्यवहार में कई ऐसी बातें हैं जिन्हें आलोचना के दायरे में रखा जा सकता है. चलिए ‘संघियों एवं दक्षिणपंथियों’ की आलोचना भले स्वीकार्य ना हो, किंतु गांधी जी की आलोचना उनके परंपरागत शिष्यों एवं सहयोगियों ने भी की है.
यथा, अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत से गाँधी जी ने राजनीति में धर्म का जो घाल-मेल किया, उससे स्वतंत्रता संघर्ष की दिशा भटक गयी, सांप्रदायिकता को आधार मिला सो अलग. गाँधी जी का स्वयं एवं कांग्रेस को खिलाफत आंदोलन से जोड़ना एक भयंकर भूल साबित हुई जिसने राजनीति में इस्लामिक कट्टरता को प्रश्रय दिया. डॉ राजेन्द्र प्रसाद अपनी आत्मकथा में इसकी पुष्टि करते हैं, “— खिलाफत के आंदोलन को, जो एक धार्मिक आंदोलन था, इस प्रकार मदद देकर धार्मिक कट्टरपन को ही सहायता पहुंचाई गई, जिसका नतीजा यह हुआ कि आम मुसलमान जनता में कट्टरता बढ़ी, जो समय पाकर इतनी भयंकर हो गई कि सारे देश में जैसे ही यह आंदोलन कुछ कमजोर पड़ा, हिंदू-मुस्लिम दंगे और फसाद शुरू हो गये. इतना ही नहीं, मुसलमानों में इतनी जागृति आ गई है कि वह धार्मिक विषयों के अलावा राजनीति में भी अपना कट्टरपन दिखाने लगे.” (पृष्ठ-224)
हालांकि फिर भी गाँधी जी ने अंत तक इस गलती को स्वीकार नहीं किया. वे अपने सिद्धांतों के प्रति अत्यंत रूढ़िवादी थे, जो नए विचारों को स्वीकार करने के लिए बिल्कुल ही तैयार नहीं होते थे. जवाहरलाल नेहरू इस तर्क को प्रमाणित करते हैं, “दक्षिण अफ्रीका में शुरू के दिनों में गांधीजी में बहुत जबरदस्त तब्दीली हुई. इससे उनके जीवन के बारे में उनकी सारी विचार दृष्टि बदल गई. तब से उन्होंने अपने सभी विचारों के लिए एक आधार बना लिया है और अब वह किसी सवाल पर उस आधार से हटकर स्वतंत्र रूप से विचार नहीं कर सकते. जो लोग उन्हें नई बातें सुझाते हैं, उनकी बातें वह बड़े धीरज और ध्यान से सुनते हैं, लेकिन इस नम्रता और दिलचस्पी के बावजूद उनसे बातें करने वाले के मन पर यह असर पड़ता है कि मैं चट्टान से सर टकरा रहा हूं. कुछ विचारों पर उनकी ऐसी दृढ़ आस्था बंध गई है कि और सब बातें उन्हें महत्वशून्य मालूम होती हैं. (मेरी कहानी, पृष्ठ 718)
गांधी जी एक ‘विशेष प्रकार के अहिंसावाद’ के प्रवर्तक थे, जिसके प्रति वे सीमा से अधिक दुराग्रही थे. जिसकी आलोचना करते हुए रामवृक्ष बेनीपुरी लिखते हैं, “जिस समय पार्टी (कांग्रेस सोशलिस्ट) का बाजाप्ता पहला सम्मेलन बंबई में हो रहा था, उसी समय बंबई-कांग्रेस में गाँधी जी ने एक प्रस्ताव रखा कि कांग्रेस के उद्देश्य में प्रयुक्त ‘उचित और शांतिमय’ शब्दों के बदले ‘सत्य और अहिंसा’ को रख दिया जाए. पार्टी ने इसकी जबरदस्त मुखालफत की जिससे अंततः गाँधीजी का वह प्रस्ताव पास नहीं हो सका. पार्टी यह मानती रही है, कि जन-आंदोलन का प्रारंभ और विकास शांति में तरीकों से ही होता आया है. यूरोप में भी हड़तालें बंदूक और बम से नहीं शुरु होती. किंतु, जनसंघर्ष का एक अवसर ऐसा आता है, ज़ब शांति की दुहाई उसकी पराजय का प्रतीक बन जाती है.”(जयप्रकाश नारायण एक जीवनी, पृष्ठ 104)
गाँधी जी का स्वयं अहिंसावादी होना समझा जा सकता हैं, पर राष्ट्र के निर्णायक संघर्ष में अपने सिद्धांतों को हर जगह थोपने का प्रयास समझ से परे है. ऐसा लगता हैं कि उन्हें उन अंग्रेजों के हितों की चिंता अधिक थी, जो भारतीयों के साथ जानवरों जैसा सुलूक कर रहे थे. गाँधी जी के दुराग्रही अहिंसावाद ने राष्ट्रीय आंदोलन के सफलता में विलम्ब किया, ऐसा लोहिया मानते थे. स्वतंत्रता संघर्ष के विधान वादियों और आतंकवादियों के कार्यों की तुलना करते हुए लोहिया कह जाते हैं “वास्तव में महात्मा गांधी की अहिंसा ने जितना समय लिया, उससे कम समय में ही वे शायद सफल हो जाते.” (भारत विभाजन के गुनहगार, पृष्ठ 84)
अगस्त क्रांति के अवसर पर जयप्रकाश नारायण ने भी कहा था, “मैं मानता हूँ कि यदि बड़े पैमाने पर अहिंसा का प्रयोग किया जा सके, तो हिंसा अनावश्यक हो जाती है, लेकिन जब तक ऐसी अहिंसा नहीं पाई जाती, मैं कांग्रेस के शास्त्रीय आवरण में छुपकर क्रांति के रास्ते में रुकावट डालते रहना बर्दाश्त नहीं कर सकता.” (जयप्रकाश नारायण एक जीवनी, पृष्ठ 105)
इसी विषय पर प्रखर क्रांतिकारी नेता सचिन्द्र नाथ सान्याल अपनी आत्मकथा ‘बंदी जीवन’ में लिखते हैं, “महात्मा जी की मनोकामना तो यह है कि संसार को अहिंसारुपी नवीन धर्म देकर अपने जीवन को सार्थक बनाएं. इस नवीन धर्म प्रचार के सामने भारत की स्वतंत्रता का प्रश्न नितांत तुच्छ बन गया है परंतु पिछले महायुद्ध के अवसर पर ब्रिटिश सरकार को अर्थ एवं जन की सहायता देकर महात्मा जी ने कैसे अहिंसा नीति का पालन किया यह बहुतों के लिए नितांत दुर्बोध्य है.”(पृष्ठ-360)
गांधी जी की इस नीतिगत अस्पष्टता पर डॉ राममनोहर लोहिया लिखते हैं,”गाँधीजी अपने ढुलमुल व्याख्यान में दयनीय हो सकते थे. एक समय उनकी अहिंसा अंग्रेजों की युद्ध की तैयारियों में पूरी तरह रुकावट डालने की ओर ले जाती और दूसरे अवसर पर उनके साथ सशर्त सहयोग की बात.—— गांधी जी ऐसे ढुलमुल अफसरों की फौज के नेता थे, जिन पर उन्होंने स्थिर कार्यक्रम का बोझ लादा था.—- उनकी और राष्ट्रीय आंदोलन की कमजोरी का भी आधार इसी मानसिक शक्ति की स्थिति पर था.” (भारत विभाजन के गुनहगार, पृष्ठ 79)
यही नहीं जिस तुष्टीकरण की विध्वँसक परंपरा ने देश का राजनीतिक और सामाजिक जीवन विषाक्त कर रखा है उसकी शुरुआत गांधी जी ने ही की थी. बाबा साहब आंबेडकर गांधी जी मुस्लिम तुष्टीकरण के नीतियों पर क्षॉभ व्यक्त करते हुए लिखते हैं, “उन्होंने मुस्लिमों द्वारा हिंदुओं के विरुद्ध घोर अपराध किए जाने पर भी मुसलमानों से उसके कारण नहीं पूछें.”( पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन, पृष्ठ163). हिंदुओं विशेषकर स्वामी श्रद्धानंद, लाला नानक चंद जैसे आर्य समाजियों की हत्याओं पर गांधीजी के मौन रहने पर डॉ. आंबेडकर लिखते हैं, ” गांधीजी ने हिंसा की किसी भी घटना की निंदा का कोई अवसर नहीं छोड़ा. उन्होंने कांग्रेस को भी उसकी इच्छा के विपरीत ऐसी घटनाओं की निंदा करने के लिए विवश किया. परंतु इन हत्याओं पर गांधी जी ने कभी विरोध प्रकट नहीं किया.—— उनके इस विषय में चुप्पी साधने के दृष्टिकोण की केवल यही व्याख्या की जा सकती है कि गांधी जी ने हिंदू मुस्लिम एकता बनाए रखने की खातिर कुछ हिंदुओं की हत्या की कोई चिंता नहीं की बशर्ते उनके बलिदान से यह एकता बनी रहे. (वहीं, पृष्ठ 164-165).
ऐसे और भी कई मुद्दे हैं जिनपर गाँधीवाद को आलोचना की कसौटी पर रखा जा सकता हैं. अब वह समय बीत चुका है जब आस्थाओं की कैद ने समालोचना प्रताड़ित थी. अब देश नए दौर में हैं जहां गांधीवाद के नाम पर आधुनिक इतिहास को आलोचनात्मक दृष्टि से देखने का विरोध स्वीकार्य नहीं है. इन छद्म गाँधीवादी एवं वास्तविक वैचारिक फासीवादियों को यह समझ लेना चाहिए इतिहास की गतिशीलता रोकी नहीं जा सकती.
वैसे ही आज जो तथाकथित छिछले बुद्धिजीवी इतिहास की शल्य-क्रिया करके वीर सावरकर के चरित्र को धूमिल करने के प्रयास में लगे हैं, वे यथार्थ में वामपंथी- जिहादी कुंठा के असाध्य रोग से पीड़ित हैं. दो जन्मों के कारावास की सजा, इंडिया हॉउस, क्रांतिकारी आंदोलन जैसी तमाम बातें सर्वविदित हैं, लेकिन इन बौद्धिक फासीवादियों को सिर्फ नकारात्मक पहलुओं की तलाश है.
जिन सावरकर को मुसलमानों की माँगों का विरोधी माना जाता हैं, उनके विषय में बाबा साहब आंबेडकर लिखते हैं, ” तथापि यह कहना माननीय सावरकर के प्रति न्याय नहीं होगा कि भारतीय मुस्लिमों के दावे के बारे में उनका दृष्टिकोण केवल नकारात्मक है.”(पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन, पृष्ठ-138). अन्यत्र वे सावरकर के विषय में लिखते हैं, “उनका विचार मुस्लिम राष्ट्र का दमन करने का तो नहीं है बल्कि वे तो उन्हें किसी राष्ट्र की ही तरह अपना धर्म, भाषा और संस्कृति बनाए रखने की अनुमति भी देते हैं.” (पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन, पृष्ठ 151)
स्वयं माननीय सावरकर कहते हैं, “हम इस बात पर जोर देने को तैयार है कि अल्पसंख्यकों के धार्मिक सांस्कृतिक और भाषाई वैध अधिकारों की स्पष्ट रूप से गारंटी दी जाएगी- बशर्ते कि बहुसंख्यकों के समान अधिकारों में भी किसी किस्म का हस्तक्षेप या कमी न की जाए.” (हिंदू महासभा का कलकत्ता अधिवेशन, दिसंबर,1939)
महान लेखक, क्रांतिकारी एवं राष्ट्र नायक वीर सावरकर की एक क्रांतिकारी के रूप में प्रशंसात्मक चर्चा सचिन्द्र बाबू ने अपनी आत्मकथा ‘बंदी जीवन’ में भी की है. सावरकर ने 1857 के विद्रोह पर लेखन कर उसे एक गौरवमय स्वरुप प्रदान किया. उनकी लिखित किताब की प्रशंसा करते हुए क्रांतिकारी नेता ‘शिव वर्मा’ लिखते हैं, “इस विषय पर ब्रिटिश साम्राज्यवादी लेखकों द्वारा फैलाए गए लांछनों तथा उनके झूठे ऐतिहासिक लेखन की धज्जी उड़ाकर इस पुस्तक ने बहुत बड़ा काम किया. इतने बातों को सही तौर पर सामने रखा.” (भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज, पृष्ठ 23)
इससे सहज़ ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि वीर सावरकर के विषय में किस तरह कि भ्रामक धारणाएं फैलायी गयी. असल में उनकी स्पष्टता को तुष्टिकरण की विकृत मानसिकता वाले बुद्धिजीवियों ने सांप्रदायिक घोषित किया हैं, क्योंकि उन्हें ‘स्वप्निल रामराज्य’ की सोच पसंद थी जिसके पीछे जिहादियों को फ़लने-फूलने की आजादी थी. वास्तव में ये वीर सावरकर के ही नहीं बल्कि सुनियोजित तरीके से राष्ट्र के लिए स्वयं का जीवन होम कर देने वाले नायकों के बहाने भारतीय गर्व के अपमानकर्ता हैं.
आश्चर्य है कि सावरकर की आलोचना में सर्वाधिक उग्र उस जिहादी समुदाय के तथाकथित बुद्धिजीवी भी लिप्त हैं जिसका स्वतंत्रता संघर्ष में सबसे बड़ा योगदान अंग्रेजों के साथ मिलकर कांग्रेस के आंदोलन को हिंदूवादी बताकर कमजोर करना तथा पूरी ऊर्जा से मुस्लिम लीग के नेतृत्व में भारत का विभाजन करवाना था.
आज जो गांधीवाद के बड़े पैरोकार और अलंबदार बनते हैं, उनकी गांधी जी के प्रति श्रद्धा बड़ी चयनित प्रकार की है. उदाहरणार्थ, गांधी जी ईसाई मिशनरियों के द्वारा गरीबों के बहला-फुसलाकर धर्मांतरण कराने के विरुद्ध थे. वे गो हत्या के विरुद्ध थे. खुद को सनातनी हिंदू मानते थे. ध्यातव्य है कि ये तथाकथित गांधीवादी इन सभी विषयों पर मौन साध लेते हैं. गांधी, जिन्होंने पूरी जिंदगी एक लंगोटे में काट दी उनके चेले स्विस बैंक में अरबों-खरबों डॉलर जमा करके बैठे हैं. ‘अदम गोंडवी’ की एक नज्म है, “इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी, उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है.” डॉ.लोहिया की जीवनीकार इंदुमती केलकर उनके हवाले से ठीक ही लिखतीं हैं, “उनकी राय में मार्क्स के समान ऋषि की परंपरा भ्रष्ट हुई तो क्रूर बनती है तथा गाँधी जैसे संतों की परंपरा भ्रष्ट हुई तो संकुचित और पाखंडी बनती है.” (डॉ राम मनोहर लोहिया जीवन और दर्शन,पृष्ठ 25)
गाँधी जी का कट्टर प्रशंसक होना अच्छी बात हैं, किंतु उनकी बाबा साहेब आंबेडकर, सुभाष बाबू, वीर सावरकर, या किसी और तुलना करने की क्या आवश्यकता है ? जिन्हे अपने आदर्श की आराधना, प्रशंसा या प्रचार करना है करें, लेकिन दूसरे विचारों के प्रति भी सम्मान का भाव रखना, किसी दूसरे संगठन या समाज के लिए आदरणीय व्यक्ति का अपमान भी नहीं करना चाहिए. हाँ, समालोचना बिलकुल होनी चाहिए.
साथ ही, ज़ब आप किसी और व्यक्ति संस्था या समाज के अनुकरणीय व्यक्तित्व को अपमानित करने का प्रयास करते है तो आप दूसरे पक्ष को भी उकसा रहे होते हैं कि वो आपके लिए सम्मानित व्यक्ति को अपमानित करे. इतिहास एवं ऐतिहासिक व्यक्तित्व को स्वनियंत्रित खांचो में रखने से समस्या आएगी ही.इस व्यर्थ के संघर्ष से जितना बचा जाये उतना अच्छा हैं. क्योंकि इस कटुता के मंथन से जो हलाहल निकलेगा वो पूरे राष्ट्र के वैचारिक वातावरण को विषैला करेगा.