महात्मा गांधी से बड़ा पत्रकार कोई नहीं। गांधी जी ने छः पत्रिकाओं का संपादन किया। रोज अखबारों में लिखते थे। अपनी लेखनी से पूरे देश को एक सूत्र में जोड़ा इससे बड़ी पत्रकारिता मेरी दृष्टि में नहीं हो सकती। मुझे तो लगता है कि हर पत्रकार को गांधी जैसा होना चाहिए। महात्मा गांधी के लिए जीवन के मूल्य सत्य और अहिंसा ही थे। उन्होंने पत्रकारिता के साथ ही जीवन के हर क्षेत्र में उसका उपयोग किया। उनके मूल्य बड़े स्थायी थे। पत्रकारिता का क्षेत्र हो या समाज की सेवा का क्षेत्र या फिर आंदोलन का क्षेत्र रहा हो। गांधी जी ने बखूबी उन मूल्यों के साथ काम किया। इसीलिए पत्रकारिता के क्षेत्र में भी खरे उतरे और देश का नेतृत्त्व में भी खरे उतरे। यही मुख्य कारण था कि समाज को बदलने में भी गांधी जी खरे उतरे।
यह भी देखने में आता है कि गांधी जी ने जो भी पत्र-पत्रिका निकाली वो बहुत कम बजट की थी। गांधी जी ने जिन पत्रिकाओं में लिखा उसे जनता तक पहुंचाने के लिए लिखा। पत्र-पत्रिका कैसे लोगों को सुलभ हो सके, कैसे उन तक पहुंच जाए, इसकी चिंता थी उन्हें होती थी। इसके ठीक विपरीत आज तड़क-भड़क पर ज्यादा ध्यान है। उसमें सामग्री कितनी है, इस पर ध्यान कम दिया जाता है। शायद बाजारवाद इसका कारण हो। कई बार बाजार में जो चीज अच्छी दिखती है वही बिकती है। इसीलिए लोगों ने भी मान लिया कि पत्रकारिता के क्षेत्र में जो अच्छी दिखती है, जो ग्लैमरस दिखती है वही बिकेगी। लेकिन सत्य यह नहीं है। यदि सत्य यह होता तो हरिजन बिकती नहीं। हरिजन आज भी बिकती है।
गांधी जी की जितनी भी पत्रिकाएं है वह सब आज भी बहुत बिकती है। उसी तरह यदि हम आज कि बात करें तो हिंदी साहित्य में भी बहुत सारी पत्रिकाएं हैं जो बहुत कम दामों पर मिलती हैं। ऐसा नहीं है कि सब तड़क-भड़क से ही बिकती है। सत्य के खोज की प्रयोगशीलता गांधी की पत्रकारिता का आधार थी। गांधी जी ने जितनी भी बातें लिखी यदि उनकी आत्मकथा से चले तो गांधी जी ने आत्मकथा में कुछ छुपाया नहीं है। एक बार गांधी जी से पूछा भी गया कि आप बाकी लोगों के लिए कोई संदेश दीजिए। गांधी जी ने कहा कि ‘मेरा जीवन ही मेरा सन्देश है’ तो जो व्यक्ति अपने जीवन के बारे में इतना विस्तार पूर्वक चीजों को रख सकता है तो जब वो लेखन के क्षेत्र में भी आया तो जो वास्तविकता थी। उसको सामने रखा। लोगों ने वास्तविकता पसंद की। वो वास्तविकता देश की स्वतंत्रता का आधार बन गई।
गांधी जी के जो वसूल थे उनके कारण वो बड़े पत्रकार भी माने गए। वे वसूल शायद उनके मूल्यों में ह्रास हुआ है। इसीलिए पत्राकारिता के स्तर में भी गिरावट आई। पत्रकारिता का मूल उद्देश्य सत्य को खोजना है। सत्य का अनुसंधान और कर्तव्य का निर्वहन, खुद करना और दूसरों को भी प्रेरित करना। अब हम लोगों ने पत्रकारिता में चयनित (selected) दिखाना शुरू कर दिया है। हम अब इसको क्या मानें? इसको मूल्यों का ह्रास ही कहेंगे।
गांधी की पत्रकारिता और आज की पत्रकारिता में मुझे जो फर्क दिखाई देता है वह यह है कि गांधी सत्य देखते थे। मानवता देखते थे। पक्ष नहीं देखते थे। चाहे वो गलती अंग्रेजों से हुई तो अंग्रेजों की भी खिलाफत की। हिन्दुस्तानियों ने यदि अंग्रेजों के साथ कुछ गलत किया तो अपनी लेखनी से उनका भी विरोध किया। ये गांधी जी की खूबी थी। लेकिन आज हम पक्ष देखते है, सत्य नहीं। उसके अन्दर का सार नहीं देखना चाह रहे हैं।
अन्य भाषाओं में भी बड़े पत्रकार रहे हैं। लेकिन सत्य के साथ खड़े रहने का साहस सब में नहीं। प्रभाष जोशी हिंदी में लिखते थे। उनमें सत्य कहने का साहस था। पर आज उस साहस की कमी है। आज पत्रकारिता या तो अपने मीडिया हाउस की और देखती है या सरकारों की ओर देखती है। सत्य कहने से ज्यादा सत्य समझाने में व्यस्त है। यह बड़ा फर्क है। पत्रकारिता आज भी राष्ट्र की सेवा और राष्ट्र की सजगता का चौथा स्तंभ है। अगर सत्यता पूर्वक बात करें तो पत्रकारिता सत्य के साथ और सत्यता पर आधारित हो तो देश को बदलने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। लेकिन मूल्यों का जो ह्रास समाज में हर वर्ग में हुआ है तो पत्रकारिता भी उससे अछूती नहीं रही। अगर पत्रकारिता अछूती होती तो शायद समाज का ह्रास इतनी तेजी से न हुआ होता। शायद पत्रकारिता के इस पतन में साथ देने के कारण समाज अपने ढलान पर गया है।
आखिरी व्यक्ति की चिंता गांधी की पत्रकारिता का आधार थी। लेकिन अब नैतिकता और कमिटमेंट में कितना ह्रास हुआ है। केवल कहने भर से अंतिम जन को खोजा नहीं जा सकता। यदि अंतिम जन के लिए काम करना है तो पत्रकारों को उस अंतिम जन तक जाना होगा। पहले पत्रकार जाएंगे तब सरकार वहां तक पहुंचेगी। लेकिन आज की दुर्दशा यह है कि कोई नहीं जाना चाहता।
हम जिन मूल्यों की शपथ लेकर पत्रकारिता के क्षेत्र में आते हैं, सत्य को सत्य कहने की ताकत एक पत्रकार की ताकत है। अगर पत्रकार सत्य को सत्य कहने में झिझकता हो तो उसके मूल्यों का ह्रास है। गांधी के जमाने में जितने भी पत्र-पत्रिकाएं निकलते थे सब के सब किसी बड़े बिजनेस हाऊस से ही निकलते रहे हैं। लेकिन पत्रकार हाउसों का गुलाम नहीं था। पत्रकार अपनी लेखनी का गुलाम था। आज भी कुछ नाम गिनाए जा सकते हैं जो इस दिशा में खड़े हैं।
स्वतंत्रता में यदि गांधी और पत्रकारिता की भूमिका नहीं होती तो इसकी चर्चा पूरे भारत में नहीं होती। यह चर्चा करने वाले पत्रकार बंधु ही थे। ये चीजे पहुंची उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम तो पत्रकारों ने ही पहुंचाई उस जमाने में। चाहे जिन पत्रकारों ने पहुंचाया। सब बड़े पत्रकार लोग थे तो सब ने मिलजुल कर बड़ा काम किया। लेकिन सब में आत्मबल वाला ज्ञान था। वो कहते थे कि ऐसा करना है। ये भीतर की शक्ति है। कोई किसी के सामने झुकने को तैयार नहीं था। यदि आत्मबल न होता तो तिलक लिखते और कहते कि हिन्दुस्तानी कागजों पर यह नहीं छपेगी तो विदेशी कागजों पर नहीं छापना है और न छपने देना। यह भी अपने आत्मबल की विचित्रता है कि छपवाना भी चाहता है लेकिन वो कहता है कि मेरी राष्ट्रीयता मुझको रोकती है कि विदेशी कागजों पर न छापी जाए। यह आत्मबल है उनका। उनको पता है ये चीज अच्छी है आज नहीं तो कल छपेगी। गांधी जी के पास भी आत्मबल की कमी नहीं थी।
देश आजाद हुआ है तो यह गांधी के आत्मबल से आजाद हुआ। जिसने लाठी भी नहीं चलाई और यह उनके आत्मबल का भी सहारा था कि उसने देश को आजाद करवाया और सारे देश को एक सूत्र में बांधें भी रखा। आज आत्मबल वाला काम यह हो गया है कि हम किसके साथ कितना खड़े हैं। एक बार जयप्रकाश नारायण ने कहा था- ‘सत्य बोलना यदि बगावत है तो समझो मैं बागी हूं।’ लेकिन यह बगावत करने वाला अब नहीं है। दिक्कत यहां आई है। नहीं तो चम्पारण के कोर्ट में खड़ा होकर एक वकील की भांति निर्भीक कहता है- मैं कानून का जानकार हूं। मैंने कानून तोड़ा है। जो चाहे सजा दे दीजिए। यह गांधी का आत्मबल है। उसी आत्मबल के आधार पर वे कहते हैं कि आपके आदेश हैं, पर मैं चम्पारण छोड़कर नहीं जाऊंगा। तो ये साहस उस आदेश की नाफरमानी नहीं है। अपने भीतर का आत्मबल है जो कहता कि मुझे जो चीज गलत लग रही है, मैं उसको सही मानने को तैयार नहीं हूं। यह गांधी जी की खासियत थी।
अगर मैं कहूं कि गांधी जी महामानव थे तो इसमें अतिशियोक्ति नही होगा। गांधी जी भविष्य देखने वाले महामानव थे। जिसने सौ साल पहले ही देख लिया था कि हमारा भविष्य क्या होगा? राजनीतिक शोषण हो या किसी भी तरह का शोषण, तो उनको शोषण की बात समझ आ गई थी। सौ साल पहले ही उनको प्रकृति के शोषण की बात समझ आ गई थी। इसीलिए गांधी जी ने सौ साल पहले ही कह दिया कि इस प्रकृति ने आपके जरूरतों के लिए तो भरपूर दिया है, लेकिन आपके लालच के लिए कुछ भी नहीं। अब सौ साल बाद चाहे जल का संकट हो, पर्यावरण संकट को, अच्छी हवाओं का संकट हो या हिम के पिघलने का संकट हो तो अब वो सब बात सच साबित हो रही है। एक तरह से वे भविष्य वक्ता थे।
गांधी जी की बेसिक सोच शोषण के खिलाफ थी। गांधी जी ने उस समय भी महसूस कर लिया था कि हम प्राकृतिक स्रोतों का शोषण कर रहे हैं। यह शोषण आज नही तो सौ डेढ़ सौ साल बाद हमें विनाश के कगार पर ले जाएगा। इसीलिए उनका कथन आज साबित हो रहा है। पूरी दुनिया अब उनको मानने लगी है। इसीलिए गांधी की प्रासंगिकता पर जो लोग बातें करते हैं कि गांधी इस समय प्रासंगिक है या नहीं। आगे रहेंगे या नहीं तो जैसे जैसे उनकी सारी बातें सच होती जाएगी उनकी प्रासंगिकता बढ़ती जाएगी।
यदि गांधी जी प्रासंगिक नहीं होते तो आज उन पर इतना विचार क्यों? आज की पूरी मानव पीढ़ी द्वारा जिस व्यक्ति पर सबसे ज्यादा खोज किया जा रहा है वे गांधी जी हैं। आज जिस व्यक्ति के आदर्शों के पालन की बात हो रही है वे गांधी हैं। गांधी जी ने पहले किया तब बताया कि ये है। यही सत्य है। इसका एक अच्छा उदाहरण देखिए- एक बार एक मां महाराष्ट्र में कहीं घूम रही थी तो वह उनसे मिलने गई और उसने कहा कि मेरा बेटा बहुत गुड़ खाता है। आप इसको मना कर दें तो नहीं खाएगा।
गांधी जी ने कहा कि तीन दिन बाद फलाने जल से नहाना। फिर वो मिली उसने कहा कि इसको डांट दीजिए, समझा दीजिए। गांधी जी ने कहा सात दिन बाद नागपुर में मिलना। ऐसा कहते-कहते बीस बाईस दिन के बाद जब मिले तब उन्होंने कहा बेटा गुड़ नहीं खाना। अच्छी बात नहीं है ज्यादा गुड़ खाना।
मां को बात समझ नहीं आई कि इतने दिन तक पांच-छः जगह क्यों दौड़ाते रहे। उन्होंने झल्लाकर पूछा कि ये बात तो आप पहले दिन भी कह सकते थे। तब गांधी जी ने कहा कि बहन मैं गुड़ खुद भी बहुत खाता था। पहले खुद पर संयम रखा। देखा कि रखा जा सकता है तब जाकर इसको समझाया। बड़ी खूबी थी गांधी जी में। यह बात साधरण मनुष्य की बात नहीं है।
कहने का अर्थ कि गांधी ने सत्य को भी तभी सत्य माना जब उसको अपने ऊपर अजमा कर देखा और जब देख लिया कि ये काम हो सकता है, होने योग्य है तभी दूसरों को बताया। नहीं तो कभी नहीं। उनकी प्रासंगिकता प्रश्नचिन्ह के दायरे में नहीं है। दायरे में हमारी प्रासंगिकता है कि हमने गांधी को कितना अपनाया है।
अगर हमने गांधी जी की बात आज से चालीस पचास साल पहले मानी होती तो शायद यह प्रकृति का संकट नहीं आता। आता भी तो थोड़ा विलंब से आता। इसीलिए गांधी जी प्रासंगिक हैं। हम गांधी जी के साथ नहीं चल पाए। यह हमारी कमी है। जहां तक पत्रकारिता का सवाल है, आज पत्रकारों से मैं कह सकता हूं कि सत्य और अहिंसा की सोचने लगें, सत्य को प्रमाणिक करने की कोशिश करें, सत्य में जिएं, सत्य का अन्वेषण करें, सत्य दिखलाने की कोशिश न करें तो शायद पत्रकारिता गांधी के रास्ते चली जाए।