लंबे संघर्ष के बाद रामलला का मंदिर बनने जा रहा। संघर्ष के कई योद्धा आज हमारे बीच नहीं हैं। वो भी हम सबकी आंखों से इस गौरवशाली क्षण को जहां भी होंगे देख रहे होंगे। वह गौरवशाली क्षण समय के साथ आगे निकल गया। हमने देखा राजसत्ता को धर्म सत्ता के सामने दंडवत होते। हमने देखा रामकाज में रमते एक प्रधानमंत्री को। हमने देखा धर्म के सानिध्य में रमे एक योगी को।
धर्म का सानिध्य, प्रगति का विरोधी नहीं है। धर्म और प्रगति के बीच संघर्ष की नहीं, सामन्जस्य की आवश्यकता है। धर्म और अध्यात्म का सानिध्य भारतीय संस्कृति की मूल विशेषता है। गोस्वामी तुलसीदास ने इस रहस्य को भली-भांति समझा। जिस रामराज्य की परिकल्पना महात्मा गांधी ने की थी यह शिलान्यास उसकी आधारशिला भी बनेगी।
रामलला जहां विराजेगें उस मंदिर के निर्माण के साथ हमें अपने समाज के उस बड़े लक्ष्य के बारे में सोचना होगा। रामराज्य भारतीय समाज का सदा से सपना रहा। स्वाधीनता आंदोलन भी केवल राजनैतिक स्वतंत्रता नहीं, बल्कि रामराज्य की स्थापना के लिए था। महात्मा गांधी ने स्वाधीनता संग्राम की कमान संभालते ही उसे रामराज्य की संकल्पना से जोड़ दिया था। अब हमें अपनी राज्य और समाज की सब व्यवस्थाओं को उसके अनुरूप ढालने में लगना चाहिए। मुख्य यजमान के रूप में शायद नरेन्द्र दामोदर दास मोदी ने यही संकल्प लिया हो।
रामराज्य की अनेक विशेषताओं मे से एक यह कि वह अतुलनीय पराक्रम पर आधारित राज्य हो। वह अपराजेय हो। रामराज्य की इस विशेषता को भी नरेन्द्र मोदी ने सभी को बताया। ‘भय बिनु होय ने प्रीति।‘ रामराज्य के बारे में गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में बताया है।
“राम राज बैठें त्रेलोका। हरषित भए गए सब सोका।।बयरू न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई।।“
राजा राम के राज्य पर प्रतिष्ठित होने पर तीनों लोक हर्षित हो गए, उनके सारे शोक जाते रहे। कोई किसी से वैर नहीं करता। रामजी के प्रताप से सबकी विषमता मिट गई। जिसे समता मूलक समाज कहते हैं। रामराज्य पर आगे भी बाबा तुलसीदास जी लिखते हैं।
“बरनाश्रम निज निज धरम, निरत वेद पथ लोग। चलहिं सदा पावहिं सुखहि, नहिं भय सोक न रोग।।“ मतलब सब लोग अपने-अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल धर्म में तत्पर हुए सदा वेद मार्ग पर चलते हैं और सुख पाते हैं। उन्हें न किसी बात का भय हैं न शोक है और न कोई रोग ही सताता है। रामराज्य में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते। सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति और मर्यादा में तत्पर रहकर अपने धर्म का पालन करते हैं। तभी गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं, “दैहिक दैविक भौतिक तापा, रामराज काहू नहि व्यापा। सब नर करहिं परस्पर प्रीती चलहि स्वधर्म निरत श्रुति नीति”
धर्म के चारों चरणों सत्य, शौच, दया और दान से जगत में परिपूर्ण हो रहा। स्वप्न में भी कहीं पाप नहीं है। पुरूष और स्त्री सभी रामभक्ति के परायण हैं और सभी परम गति के अधिकारी है।
“चारिउ चरन धर्म जग माहीं। पूरि रहा सपनेंहुं अघ नाही।।राम भगति रत नर अरू नारी। सकल परम गति के अधिकारी।।“
यही नहीं रामराज्य में “नहिं दरिद्र कोई दुखी न दीना। नहि कोउ अबुध न लच्छन हीना।“ रामराज्य में दम्भरहित,धर्मपरायण और पुण्यात्मा रहते हैं। पुरूष और स्त्री सभी गुणवान और चतुर होंगे। सभी ज्ञानी, कृतज्ञ होंगे। “सब निर्दंभ धर्मरत पुनी। नर अरू नारि चतुर सब ज्ञानी।। सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी। सब कतग्य नहिं कपट सयानी।” इस रामराज्य की अभीप्सा से भारतीय समाज हमेसा जीता आया है।
काकभुशुण्डि जी गरूड़ जी से रामराज्य के बारे में बताते है “रामराज नभगेस सुनु सचराचर जग माहिं। काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं।।” मतलब रामराज्य में जड़ चेतन सारे जगत में काल, कर्म और स्वभाव के गुणों से उत्पन्न हुए दुख किसी को नहीं होते। बंधन मुक्त होते हैं। आगे रामराज्य के बारे में काकभुशुण्डि जी गरूण जी से कहते हैं “सोउ जाने कर फल यह लीला। कहहिं महा मुनिबर यह लीला।। रामराज कर सुख संपदा। बरनि स सकई फनीस शारदा।।” रामराज्य की सुख संपत्ति का शेषजी और सरस्वती जी भी वर्णन नहीं कर सकते