अध्यक्ष महोदय, विद्यार्थिगण, भाइयों और बहनों,
हमें आचार्य महाराज ने याद दिलाया है कि कांग्रेस ने कलकत्ते में लोगों से जो प्रतिज्ञा कराई है, उसका पालन करना चाहिए। इस प्रतिज्ञा के साथ, मैं आपको एक और प्रतिज्ञा का, स्मरण दिलाना चाहता हूं। मेरे खयाल से यह कांग्रेस द्वारा की गई प्रतिज्ञा से अधिक महत्व की है। मैं पिछले साल पंजाब गया था, जहां हम सबने एकमत से हंटर कमेटी के बहिष्कार का निर्णय किया था। उस विश्चय पर पहुंचने से पहले हमने कई दिन चर्चा में बिताए थे। पंडित मालवीयजी ने बहुत-सी दलीलें दी थीं; हम में कितनी कचाई है, इसकी याद दिलाई थी; हम कितने आरंभ शूर हैं, इसका भी उस समय विचार हुआ था; नेताओं को जेल में डाल दिया जाएगा, यह सब विचार हुआ था। इतने पर भी वहां आए हुए सभी लोगों ने, जिनमें पहला मैं, दूसरे पंडित मालवीयजी, तीसरे पंडित मोतीलाल जी और चौथे मि, एंड्रयूज और कुछ अन्य लोग भी थे, मिलकर निश्चय किया कि हंटर कमेटी का बहिष्कार किया जाए।
इस प्रतिज्ञा का स्मरण मैं आपको पहले करता हूं। मैंने उसी समय चेतावनी दी थी कि यह प्रतिज्ञा करेंगे तो आपको अपनी रिपोर्ट प्रकाशित करनी होगी और जांच करने पर यदि सब जुल्म साबित हो जाएंगे तो न्याय प्राप्त करने के लि, मरना भी पड़ेगा। इसके लिए यदि देश का बलिदान देना पड़े, तो हमें वह भी देना ही होगा। मेरी चेतावनी के बावजूद उस समय वह प्रतिज्ञा सबको प्यारी लगी थी। इस बात को मन में रखना कांग्रेस की प्रतिज्ञा को स्मरण रखने से भी अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि कांग्रेस की प्रतिज्ञा के संबंध में तो ऐसा एक आरोप है कि उस वक्त लोगों को विचार करने का समय नहीं मिला था, उसे लोगों ने मेरी वाणी से अभिभूत होकर यों ही स्वीकार कर लिया था।
दूसरा आरोप यह है कि पहली ही बार बड़ी संख्या में मुसलमान कांग्रेस में गए थे और उनके संख्या बल से प्रस्ताव को बहुमत मिल गया। असली बात यह हरगिज नहीं थी। असली बात यह थी कि प्रांतवार मतगणना हुई थी और उसमें दो प्रांतों को छोड़कर बाकी सबने अधिक मतों से एक ही निर्णय किया था। फिर भी यह सब सच है कि उस प्रस्ताव पर सभी आदमियों ने विचार न किया हो और इसलिए उस प्रतिज्ञा को भले ही महत्व मत दीजिए। अलबत्ता जिसे कांग्रेस के प्रति आदर है, जिसके लिए कांग्रेस के प्रस्ताव पर अमल करने में अंतःकरण की आवाज बाधक नहीं, उसे तो इस प्रतिज्ञा का भी निश्चयपूर्वक पालन करना ही चाहिए। परंतु पंजाब की प्रतिज्ञा तो जान-बूझकर की गई है। ठंडे दिल से, जिस समय आवेश जरा भी नहीं रह गया था उस समय, विचार करने के बाद की गई है। संकट का पूरा भान था, तब की गई है। जिनके प्रति आपका आदर भाव है, जो आपके नेता हैं, जिस पंजाब के लिए हम लड़ रहे हैं उस पंजाब की नाक रखने के लिए उन्होंने यह निश्चय किया है। मुझे आपको वह प्रतिज्ञा याद दिलानी थी।
अब जो विद्यार्थी इस राष्ट्रीय विद्यालय में भरती नहीं हुए हैं, उनसे मैं पूछता हूं कि तुम क्या चाहते हो? तुम भारत के लिए स्वतंत्रता, स्वराज्य चाहते हो? तुम अपनी निजी संस्कृति चाहते हो या पराधीनता? पराधीनता को सह लेने को तैयार हो, तो तुमसे कहने के लिए मेरे पास एक शब्द भी नहीं है। गुजरात कालेज में तुम्हारे लिए बड़े-बड़े खेल के मैदान हैं, वहां खेलकूद सकते हो। यहां तुम्हारे जिए बड़े-बड़े प्रोफेसर हैं। वहां जैसी लेबोरेटरी है, वैसी तुम्हें यह विद्यालय दे सके, इसमें काफी समय लगेगा। वैसी सुविधाएं तुम्हें यहां नहीं मिलेगी।
परंतु कैदी को सोने की और रत्नजटिल बेड़ियां पहना देने से यदि उसका कैदीपन कम हो जाता हो, तो ही तुम गुजरात कालेज में कैदी नहीं हो। परंतु तुम मानते हो कि जहां हमारी स्वतंत्रता हो, वहीं हमारा तेज बना रह सकता है तो तुम गुजरात कालेज का, वहां कितनी ही सुविधाएं मिलती हों, तो भी त्याग कर दो और अड़चनें उठाकर भी महाविद्यालय में भरती हो जाओ।
मैं तुम्हें उत्तेजित नहीं करना चाहता, परंतु तुम्हारी बुद्धि को जाग्रत करना चाहता हूं। तुम्हें अपने कर्त्तव्य का भान कराना चाहता हूं, तुम्हारे अक्ल का अपनी अक्ल के साथ योग करा देना चाहता हूं। फिर भी यदि तुम्हें यह लगता हो कि जब तक हम सरकारी स्कूल-कालेज में पढ़ रहे हैं, तब तक स्वतंत्रता का विचार ही नहीं कर सकते, यदि यह विचार करने में तुम्हें बेवफाई लगती हो, तो तब तक सरकार को अच्छा करना चाहिए। परंतु यह सरकार तो उद्धत बन गई है, उसने हम पर अत्याचार किए हैं, उसने लोगों का तेज हर लिया है, उसने हमारे धर्म पर वार किया है, इतने पर भी क्या हम सरकार का भला चाह सकते हैं? तब भी क्या हम यह कह सकते हैं कि यह सल्तलन इतनी न्यायपरायण है कि उसमें सूर्य कभी नहीं छिपता? और यदि ऐसा नहीं चाह सकते, तो फिर सरकार से दूर भागना चाहिए।
प्रत्येक धर्म सिखाता है कि धर्म के प्रति बेवफाई जैसा और कोई पाप नहीं है। इसलिए मैंने लिखा है कि इस सरकार के विद्यालयों में शिक्षा पाना जिस डाली पर बैठे हों, उसी को काटने के समान है। इसलिए जिन लड़कों ने अभी तक सरकारी स्कूल या कालेज नहीं छोड़ा है, उनसे मैं कहता हूं कि तुम बार-बार अपने हृदय को टटोलो। तुम्हें लगे कि इस सरकार का अंत करना ही चाहिए, तो हमारा सत्व, हमारी बहादुरी इसी में है कि सरकार के स्कूल-कालेजों से तुरंत निकल जाएं।
आचार्य महाराज ने तुम्हें बताया कि कुछ सहयोग तो अनिवार्य है, जब कि कुछ ऐसा है, जिससे हम तुरंत हाथ खींच सकते हैं। कुछ प्रकार की वस्तुओं का त्याग करने के लिए तो सारे देश का त्याग कर देना तक उचित हो सकता है। ऐसा देश-त्याग करने का समय आयेगा या नहीं, यह मैं नहीं कहता। परंतु आज वह समय नहीं आया, इसलिए हम इस पर विचार नहीं करते। हम जो तपश्चर्या करें, वह अपने काम के लायक ही करना चाहिए। हमारे लिए जितनी चित्त-शुद्धि आवश्यक हो, अथवा जितने रोग से मुक्ति प्राप्त करनी हो, उतनी यदि एक दिन के उपवास से हो सकती हो तो दो दिन का उपवास करने वाला बेवकूफ कहलाता है।
जितनी तपस्या करना हमने तय किया है, उतनी से यदि हमारा काम हो जाता हो, तो अधिक नहीं करनी चाहिए। यही जवाब तार, रेल बगैरह के सहयोग के विषय में है। जिस सहयोग से हमारे तेज का हनन होता है, जिस सहयोग से हम सरकार से इच्छापूर्वक दान लेते हैं, उसका तुरंत त्याग कर देना चाहिए। सरकारी पाठश्शालाओं में जाना ऐसा ही सहयोग है। अब सौभग्य से राष्ट्रीय महाविद्यालय बन गया है। हमारे आचार्य और अध्यापकों- जैसे लोग सभी जगह नहीं होते। मैं इनकी तुलना स्थानीय गुजरात कालेज के प्रोफेसर के साथ नहीं करना चाहता। वह तो थोड़े समय में अपने-आप हो जाएगी। अभी तक कालेज न छोड़ने वाले विद्यार्थियों को राष्ट्रीय पाठशाला न खुलने से पहले जितना डर था, उतना अब नहीं रहा। अब वे यह नहीं कह सकते कि नया विद्यालय न खुले तो क्या होगा? उन्हें तो तुरंत ही इस महाविद्यालय में भरती हो जाना चाहिए।
मेडिकल कालेज के एक विद्यार्थी ने मुझसे पूछा कि हमें असहयोग करना हो तो क्या करें? मेडिकल कालेज के विद्यार्थी दो प्रकार के हैं। उनमें जो फीस देकर पढ़ने वाले हैं, वे तो कल ही हट जाएं। परंतु जो सरकार से छात्रवृत्ति लेकर पढ़ते हों और जिन्होंने एक खास मियाद के भीतर वह रकम लौटा देने या कुछ वर्ष नौकरी करने का इकरार किया हो, उन्हें मैं आज ही कालेज छोड़ देने की सलाह नहीं देता। लोगों से हम जो रूपया इकट्ठा करते हैं उसमें से मैं उन्हें रूपया नहीं दे सकता। वे और कहीं से उतनी रकम जुटाकर, सरकार को चुकाकर, अपने प्रयत्न से मुक्ति प्राप्त कर सकते हों तो ऐसा करना उनका कर्त्तव्य है।
परंतु अपनी जेब से शुल्क आदि चुकाने वाले विद्यार्थियों का प्रश्न, मेरे सामने इस समय खासतौर से है। हमें चिकित्सा-शास्त्र सीखने की दूसरी सुविधा मिले या न मिले, तो भी जिस विद्या को ग्रहण करने से हमारी स्वतंत्रता दूर जाती दिखाई दे, उस विद्या का त्याग करना चाहिए और जब तक ऐसी सुविधा न मिले, तब तक उस विद्या का मोह छोड़कर किसी दूसरे धंधे में लग जाना चाहिए। यह पीढ़ी यदि शौर्यहीन बन जाएगी, तो विद्या प्राप्त करके भी, वह क्या कर लेगी? विद्या के मोह की मैं निंदा नहीं कर रहा हूं। मैं स्वीकार करता हूं कि विद्या का मोह होना युवकों का धर्म है। परंतु उस मोह की खातिर, अपने देश को, अपने धर्म को होम नहीं देना चाहिए।
जिस विद्या से धर्म की रक्षा हो सके, वही विद्या है। इस पिद्यापीठ में यही सूत्र स्वीकार किया गया है। वह सूत्र मुझे बहुत अच्छा लगा है। ‘सा विद्या या विमुक्तये’ जिनसे मुक्ति मिले, वही विद्या है। मुक्ति दो प्रकार की है। एक मुक्ति वह है, जो देश को पराधीनता से छुड़ाए। वह थोड़े समय के लिए होती है। दूसरी मुक्ति सदा के लिए है। मोक्ष, जिसे परम धर्म कहते हैं, प्राप्त करना हो तो सांसारिक मुक्ति भी अवश्य होनी चाहिए। अनेक भयों में रहने वाला मनुष्य स्थाई मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। स्थाई मोक्ष प्राप्त करना हो तो निकटवाला मोक्ष प्राप्त करना ही पड़ेगा। जिस विद्या से हमारी मुक्ति दूर जाती है, वह विद्या त्पाज्य है, वह विद्या राक्षसी है, वह विद्या धर्म विरूद्ध है। सरकारी विद्यालय में मिलने वाली विद्या कैसी भी हो, त्याज्य है एंव राक्षसी सरकार द्वारा मिलने के कारण तो सर्वथा त्याज्य है।
विद्यार्थी मां-बाप के साथ कैसा बरताव करें, अब मैं विद्यार्थियों से इस बारे में कुछ कहूंगा। उनकी आज्ञा का उल्लंघन करें या न करें। उनकी आज्ञा का सुंदर रूप में पालन करना तुम्हारा परम धर्म है। परंतु तुम्हारा अतंर्नाद माता-पिता की आज्ञा से भी बढ़कर है। तुम्हारा अंतर्नाद तुमसे यह कहे कि मां-बाप के वचन केवल दुर्बलता के ही (सूचक) हैं, सरकारी पाठशाला छोड़ने में तुम्हारा पुरूषार्थ है, तो माता-पिता की आज्ञा का उल्लंघन करके भी तुम सरकारी पाठशाला छोड़ दो। परंतु यह अंतर्नाद कौन सुन सकता है? मैंने पहले कई बार कहा है, वही फिर कहता हूं कि जिस मनुश्य में विनय भरा हो, जो सदा आज्ञापालन करता रहा हो, जिसने नीति-नियमों को समझ लिया हो और उनका पालन किया है, वही आज्ञा का उल्लंघन कर सकता है। जो दया-धर्म को अपने जीवन में प्रधानता देता हो, जिसने ब्रहा्रचर्य व्रत का पालन करके अपनी इंद्रियों पर काबू पा लिया हो, जिसने न तो अपने हाथ-पैर मैले किए हों, न मन मैला किया हो, जिसने अस्तेय व्रत का पालन किया हो, जिसने अनेक प्रकार के छल-कपट करके परिग्रह न बढ़ाया हो, वही कह सकता है कि मेरे अंतःकरण की यह आवाज है। तुम गांधी की आवाज लेकर, अपने मां-बाप के पास न जाना। तुम अपनी ही आवाज लेकर अपने माता-पिता के पास, जाना और उन्हें दंडवत प्रणाम करके कहना कि हम आपकी आज्ञा का पालन नहीं कर सकते।
एक विद्यार्थी ने मुझसे कहा कि मैंने मां-बाप की आज्ञा का उल्लंघन करके सरकारी पाठश्शाला तो छोड़ दी, परंतु अब वे कहते हैं कि मैं राष्ट्रीय महाविद्यालय में न जाऊ। मैंने उससे कहा कि उनकी इस आज्ञा का तुम जरूर पालन करो। मां-बाप का खयाल है कि नए विद्यालय में मिलने वाली शिक्षा से नुकसान होगा और इसलिए वे ऐसी शिक्षा प्राप्त करने से रोकना चाहें, तो ऐसा करने का उन्हें हक है और ऐसी आज्ञा मानना पुत्र का धर्म है। जो नई चीज मां-बाप को बुरी लगे, उससे वे बच्चों को दूर रख सकते हैं। वे मैला उठाने को मजबूर नहीं कर सकते। हर एक विद्यार्थी यह देख ले कि इस मामले में उसका फर्ज क्या है और उसके बाद जो अपना कर्त्तव्य लगे, उसका पालन मां-बाप या सरकार के विरोध के बावजूद करे। ऐसा किए बिना देश ऊपर नहीं उठ सकता।
अब मैं तुमसे बंबई में हुई एक घटना के बारे में कहता हूं। वहां कुछ विद्यार्थियों ने शर्म-शर्म के नारे लगाए। उन आवाज लगाने वाले में भाई निबंकर भी थे। बंबई की सभा में मैंने श्रीमती बेसेंट के इस अपमान (के अनौचित्य) पर जोर दिया था। जिस किसी विद्यार्थी ने असहयोग करना अंगीकार किया हो, उसके हाथों शांति-भंग होना मैं नहीं चाहूंगा। असहयोग करने वाले को उसकी तीन शर्तें स्वीकार करनी चाहिए। उनमें से पहली शर्त यह है कि तुम शांति को अपने हृदय में लिखकर रखना; न तो तुम शांति-भंग करो, न किसी को गाली दो, न गुस्सा करो, न किसी के तमाचा मारो और न शर्म-शर्म की आवाजें लगाओ। जब तक ऐसा किया जाता रहेगा, तब तक आप इस आंदोलन के योग्य नहीं बन सकेंगे। मैंने भाई निबंकर से कहा कि तुमने शांतिभंग की है। तुम्हें श्रीमती बेसेंट या भाई पुरूषोत्तमदास या भाई सीतलवाड़ ने कितना ही आघात पहुंचाया हो, तो भी श्शेम-शेम कहना तुम्हारा धर्म नहीं था। तुम्हारा धर्म तो यह था कि शांत रहते अथवा शांतिपूर्वक सभा से चले जाते। भाई निबंकर मेरी बात समझ गए और उन्होंने भरी सभा में इसके लिए पश्चाताप किया और अपनी बहादुरी दिखा दी। जो अपनी भूल स्वीकार कर ले और उसके लिए पश्चाताप करे, वह सच्चा बहादुर है। ऐसा करके भाई निबंकर आगे बढ़े हैं।
इसी प्रकार तुमसे, जो गुजरात कालेज में जाते हैं तथा जो इस महाविद्यालय में भरती हो गए हैं, मैं चाहता हूं कि तुम अपना धर्म न छोड़ो। असहयोग की प्रतिज्ञा के तीन पद हैं। पहला पद है शांति। असहयोग शांतिमय, तलवार के बिना होना चाहिए। जबान भी तलवार है, हाथ भी तलवार है और लोहे का धारवाला टुकड़ा भी तलवार है। दूसरा पद अनुशासन या संयम है और तीसरा यज्ञ है। हम शुद्ध हों तभी यज्ञ या बलिदान कर सकते हैं। बलिदान दिए बिना कोई पवित्र शुद्ध नहीं बन सकता और विशुद्ध हुए बिना तुम अपनी पाठशाला न छोड़ना। यहां इस वक्त लगभग साठ विद्यार्थी हैं। इनमें से पांच ही विद्यार्थी हों, तो इतने से भी विद्यापीठ अपना कामकाज चलाएगा। उसकी जड़ पवित्र होगी तो उस पर स्वराज्य की स्थापना होगी। जिसने अपनी शुद्धि नहीं की, वह इस पवित्र नींव की विशुद्धता में वृद्धि नहीं करेगा। परंतु उसकी बदनामी कराएगा। इसलिए इस विद्यालय में दाखिल होने वाले विद्यार्थियों, मैं कहता हूं कि यदि तुम असहयोग के इन तीनों पदों का पालन करना न चाहते हो तो तुम इसे छोड़ दो।
इस सभा में आए हुए माता-पिताओं से मैं कहता हूं कि आप राष्ट्रीय परिषद् में उपस्थित थे। उसके प्रस्ताव आपने हाथ उठाकर पास किए हैं, आप कांग्रेस के भी मानने वाले हैं, आप अपनी जिम्मेदारी पूरी तरह समझ लीजिए। आप अब अपने बच्चों पर आघात मत कीजिए। आप हिन्दुस्तान पर आघात मत कीजिए, आपके लड़के-लड़कियां यज्ञ करना चाहें, तो उन्हें ऐसा करने से रोकिए नहीं बल्कि उन्हें आशीर्वाद दीजिए और इस राष्ट्रीय विद्यालय में अपने आशीर्वाद सहित भेजिए। ऐसा नहीं करेंगे तो आप अपने को लजाएंगे, गुजरात को लजाएंगे और यह साबित करेंगे कि गुजरात और इसलिए भारत कमजोर है।
गुजरात ने तब तक राजनीतिक मामलों में कभी इतना प्रमुख भाग नहीं लिया। अब गुजरात से आगे से राजनीति में पड़ने का निश्चय किया है। उसका यह निश्चय बना रहे और उससे गुजरात व गुजराती लोग समस्त भारत में चमक उठें। आप में सचाई अथवा वीरता न आई हो किंतु यदि वह आपके बच्चों में आई हो तो उसे आप अवश्य पोषित कीजिए। ईश्वर आपको इतनी शक्ति दे, यह प्रार्थना करके मैं विराम लेता हूं।
(गुजराती से) नवजीवन, 18.11.1920 (15 नवंबर, 1920 को, अहमदाबाद में विद्यार्थियों के समक्ष भाषण)
उस दौर में तो नहीं थे लेकिन उस दौर को इन लेखों के जरिए जी सकते हैं