आज जो युद्ध चल रहा है, बहुत कम लोग उसके महत्व को जानते होंगे। एक सज्जन ने मुझसे पूछा है कि ‘‘हम जो कार्य कर रहे हैं क्या उसे युद्ध की संज्ञा दी दर्जा सकती है?’’ मैंने तो तुरंत उत्तर दिया, ‘‘हमारी लड़ाई में युद्ध के सब लक्षण विद्यमान हैं।’’ हमें जो चीज चाहिए, अर्थात स्वराज, वह युद्ध के बिना कदापि नहीं मिल सकती; इसलिए साधन भी युद्ध के होने चाहिए अर्थात हमें सामान्य व्यवहार को बंद करके आपद्-धर्म का आचरण करना चाहिए।
युद्ध में और इसमें सिर्फ इतना अथवा भारी भेद यही है कि हमारे युद्ध में पशुबल को, शस्त्रबल को अवकाश नहीं है। इतना ही नहीं बल्कि शरीर-बल का उपयोग करना हमारी हार है। इस युद्ध में अन्य लक्षण सामान्य युद्ध के समान ही हैं। इसमें सामान्य युद्ध के समान ही आत्मत्याग, प्रशिक्षण और योजना आदि की आवश्यकता है। सामान्य युद्ध के समय अधिकांश जनता अपनी चालू प्रवृत्तियों को त्याग देती है। वह सार्वनिक संकट के समय अपने व्यक्तिगत दुःखों को बिसरा देती है। अनीति पर चलने वाला नीति का मार्ग ग्रहण करता है, लुटेरा लूटने का धन्धा छोड़ देता है, व्यभिचारी व्यभिचार को त्याग देता है और चोर चोरी करना बंद कर देता है। सब लोग देश की स्वतंत्रता का जाप करते हैं। ऐसे समय लोगों के पास अदालतों में जाने का वक्त नहीं होता; विद्यार्थी देश की स्वतंत्रता प्राप्ति में भाग लेते हैं और उसी को विद्याभ्यास मानते हैं।
लेकिन ऐसे समय सबसे शोभनीय गुण तो दृढ़ता और वीरता होते हैं। इनकी सबसे अधिक जरूरत दिखाई देती है। एक बार निश्चय कर लेने पर, उससे न हटना यह हुई दृढ़ता। आज सरकारी स्कूल को छोड़ना फिर कल उस पर पश्चाताप करना और तीसरे दिन पुनः उसी स्कूल में दाखिल होने के लिए प्रयत्न करना दृढ़ता नहीं है। ऐसी दुर्बलता के कारण देश का पतन होता है, वह कभी उन्नत नहीं हो सकता।
हम ऐसी (मौ. जफरूल्मुल्क का मुकदमा सार्वनिक रूप में चलाने की) मांग कर ही नहीं सकते। ऐसी मांग करना यह बताता है कि जेल में जाने की हमारी नीयत नहीं है। समझ में नहीं आता कि हम ऐसा क्यों करते हैं। खुद जफरूल्मुल्क के लिए जेल महल के समान है। हमें तो ऐसा काम करना चाहिए, जिससे सरकार त्राहि-त्राहि पुकारे और हमारा मांगा हुआ दे दे अथवा हमें समुद्र में डाल दे। गुलामी में रहने से, समुद्र में डूबना बेहतर है।
मैं सरकार की तुलना डाकू से करता रहा हूं। कोई डाकू हमारी जायदाद लूट ले जाए और बाद में हमें आधी वापस देना चाहे तो क्या हम उसे ले सकते हैं? परंतु यह सरकार तो डाकू से भी बुरी है। सरकार ने हमारा सब छीन लिया है। इतना ही नहीं, वह तो हमारी आत्मा पर भी अधिकार करना चाहती है। सरकार हमें गुलाम बनाना चाहती है। तो हमें उसे इतना-भर कह देना है कि जब तक हमारा वित्तमात्र नहीं; बल्कि हमारी इज्जत, हमारी आजादी वापस नहीं मिलती, तब तक तुमसे मुहब्बत रखना हराम है।
(गुजराती से)
नवजीवन, 31-10-1920