बिल्ली होती है ना, बिल्ली । वह क्या करती है, दूध पीते समय अपनी आंखें बंद कर लेती है और सोचती है कि कोई उसे देख नहीं रहा। यही हाल पानी से जुड़ी सभी ऐजेंसियों का भी है। गंगा पथ पर पानी की गुणवत्ता जांचे बिना वह हर घर नल जल पहुंचाने में जुटी हैं। डिटेल में जाने से पहले सौरभ सिंह की छोटी सी कहानी सुन लीजिए। सौरभ सिंह दिल्ली में पढ़े हैं लेकिन पिछले करीब दो दशकों से वाराणसी, गाजीपुर, बलिया, नया भोजपुर क्षेत्र यानी गंगा किनारे कुंओं को पुनर्जीवित करने में जुटे रहते हैं। वे गंगा पथ पर आर्सेनिक का दावा करने वाले शुरुआती लोगों में शामिल हैं। उनकी लगातार अपील पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने बलिया और आसपास के क्षेत्रों का दौरा किया और माना कि इस इलाके में आर्सेनिक भयावह स्तर तक फैला है। 2016 में भारी मात्रा में शिकायतें मिली थीं कि यूपी-बिहार के सरकारी स्कूलों में बच्चों को आर्सेनिक वॉटर सप्लाई हो रहा है। इसे भी सही पाकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने दोनों राज्यों और केंद्र को कार्रवाई के लिए कहा लेकिन हालात आज तक नहीं बदलें।
आर्सेनिक के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि जब शरीर को खोखला कर देता है, तभी बाहर नजर आता है। यानी गंगा पथ पर एक बड़ी जनसंख्या आर्सेनिक को अनजाने में ही अपने शरीर में लेकर चल रही है। जानकारी बाहर आने का फायदा भी बाजार ही उठा रहा है
अपने भविष्य से अनजान नौनिहाल जहर पीने को मजबूर हैं। मानवाधिकार आयोग ने अलग-अलग शिकायतों पर कई बार सरकारों को लिखा लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात। अब आर्सेनिक क्या है यह थोड़ा जान लीजिए। आर्सेनिक कोई प्रदूषण नहीं है जो मल- मूत्र या उद्योंगों के कचरे से गंगा में जा रहा है। वास्तव में आर्सेनिक गंगा में है ही नहीं। आर्सेनिक गंगा तट पर मौजूद भूमिगत जल में है। यह हजारों साल पहले हिमालय से बहकर आया एक सेमी मेटिलिक तत्व है, जो आयरन, कैल्शियम, कॉपर आदि के साथ क्रिया करता है । इसे इसके जहरीलेपन की वजह से जाना जाता है। इसमें कैंसर पैदा करने की क्षमता है और ये हवा, पानी, त्वचा और भोजन के संपर्क में आकर हमारे शरीर में पहुंच जाता है । विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि 10 पार्ट प्रति बिलियन आर्सेनिक मिला पानी ही सुरक्षित होता है लेकिन बलिया और आसपास के क्षेत्रों में आर्सेनिक की मात्रा एक हजार से पंद्रह सौ पार्ट प्रति बिलियन तक पहुंच गई है। यह विश्व स्वास्थ्य संगठन के मापक से कई सौ गुना ज्यादा है।
नदी ने रास्ता बदला तो एक लंबी प्रक्रिया से आर्सेनिक जमीन के नीचे दब गया। नदी की इस छोड़ी हुई जमीन पर गांव बस गए। यहां तक तो सारा मामला प्रकृति और मनुष्य के सामंजस्य का था। लोग सीधे गंगा से लेकर या स्थानीय कुंओं का पानी पीते थे। समस्या शुरू हुई अस्सी के दशक में जब सरकारों ने इसी तरह की एक जल मुहैया नीति के तहत बेतरतीब हैंडपंप लगवा दिए। फिर धीरे से हैंडपंप में मोटर फिट होने लगी और बटन दबाते ही पानी आने लगा। लालच बढ़ी और इस सुविधा को लोग अपने आंगन में ही चाहने लगे। खेतों में भी बोरिंग की बाढ़ आ गई। नतीजा यह हुआ कि यूपी-बिहार में गंगा पथ पर शायद ही कोई शहर होगा, जहां जमीन पर छेदों की संख्या लाख से कम हो। इससे भूमिगत जल का स्तर नीचे चला गया तो लोगों ने और गहरा खोदना शुरू किया। खोदते-खोदते हम वहां तक पहुंच गए जहां आर्सेनिक लेयर थी और पानी में आर्सेनिक आ गया। सुविधा उगलने वाले हैंडपंप अचानक जहर उगलने लगे। आज गंगा पथ से आने वाले चावल में अच्छा खासा आर्सेनिक है। दुनिया को पहले आर्सेनिक के बारे में बताने वाले वैज्ञानिक प्रो. दीपांकर चक्रवर्ती के साथ सौरभ सिंह ने यहां कुओं को फिर से सामाजिक जीवन से जोड़ने की पहल की। लेकिन आराम के पानी के आदी गांव को कुएं के पानी से जोड़ने में काफी मेहनत लगती है।
सरकारों ने भी 2008 में दावा किया था कि हैंडपंप बंद कर दिए जाएंगे लेकिन वे आज तक चल रहे हैं और नए भी लग रहे हैं। क्योंकि निजी जमीन पर हैंडपंप लगाने पर कोई रोक नहीं है। दीपांकर चक्रवर्ती अब नहीं रहे लेकिन सौरभ सिंह इस मुहिम को लगातार जारी रखे हैं। वे अब तक करीब साढ़े चार लाख पानी के नमूनों की जांच कर चुके हैं। इतने बड़े पैमाने पर जांच किसी सरकारी ऐजेंसी ने भी नहीं की। सरकारी ऐजेंसियों को उनके डाटा की जरूरत होती है लेकिन वे कह क्या रहे हैं, यह कोई नहीं सुनना चाहता। लोक लेखा समिति के अध्यक्ष रहे मुरली मनोहर जोशी ने भी अपनी रिपोर्ट में यह माना था कि गंगा पथ पर आर्सेनिक से अब तक लाखों लोग हताहत हुए हैं। आर्सेनिक के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि जब शरीर को खोखला कर देता है, तभी बाहर नजर आता है। यानी गंगा पथ पर एक बड़ी जनसंख्या आर्सेनिक को अनजाने में ही अपने शरीर में लेकर चल रही है। जानकारी बाहर आने का फायदा भी बाजार ही उठा रहा है, तीस रुपये में बीस लीटर पानी की केन सप्लाई का धंधा गांवों में फैल गया है। लोग केन का पानी यह समझ कर पी रहे हैं कि यह मिनरल वॉटर है। लेकिन सच्चाई यह है कि बोर करके फिल्टर किए गए पानी में भी अच्छा खासा आर्सेनिक है।
आर्सेनिक को पानी से अलग करने के दावे चाहें जितने हों, लेकिन वैज्ञानिक रूप से यह अब तक संभव नहीं हो पाया है। कम जरूर हो सकता है। लेकिन उसके लिए आर्सेनिक फिल्टर को लगातार देखभाल की आवश्यकता होती है। 2020 में लौटते हैं। जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने घोषणा कर दी कि वे हर घर नल जल पहुंचा के रहेंगे। इस योजना की कार्य प्रक्रिया बड़ी सीधी सादी है। जमीन में बोर कीजिए, पानी निकालिए और लोहे के एक ऊंचे स्टैंड पर रखी प्लास्टिक की टंकी तक पहुंचा दीजिए। फिर इस टंकी से पाइपलाइन द्वारा गांव तक पानी पहुंच जाएगा। जमीन से पानी निकालना इन दिनों नया उभरता रोजगार है। गंगापथ पर आत्मनिर्भरता जमीन खोदने में ही छिपी लगती है। नई जल जीवन व्यवस्था भी पुरानी ढर्रे पर ही काम कर रही है। बस बजट थोड़ा ज्यादा हो गया है। यह योजना साढ़े तीन लाख करोड़ रुपये की है। पॉलिसी गाइड में कोई चेंज नहीं है। कोई विजन डाक्युमेंट भी अब तक जारी नहीं हुआ है।
नई योजना में भी सारा काम ठेकेदार के द्वारा ही संपन्न होता है। यह वही ठेकेदार या स्थानीय नेता हैं, जो आर्सेनिक रिमुवल प्लांट भी लगाते और मैंटेंन करते हैं। यह ठेकेदार ही जमीन खोदकर पानी निकालेंगे और घर तक पाइप लाइन बिछाएंगे। इस सेटअप का मैंटेनेंस भी ठेकेदार ही करेंगे। नल में पानी आ रहा है या नहीं, या किस गुणवत्ता का पानी सप्लाई हो रहा है, इसे जानने का कोई सिस्टम नहीं बनाया गया है। जल संसाधन विभाग के इंजीनियर ठेकेदारों से ही पूछ कर रिपोर्ट देंगे कि पानी की गुणवत्ता कैसी है। इस बीच जल शक्ति मंत्रालय ने सोशल मीडिया कैंपेन शुरू कर दिया है, जिसमें जल जीवन मिशन की सफलता का गान है। मुख्य धारा के मीडिया में भी सक्सेस स्टोरी अपनी जगह बना रही हैं। बिल्ली आंखें बंद किए हुए रोमांटिसाइस हुई जा रही है।