आज आजादी के 75 साल पूरा करने को दो साल बचे हैं। प्रकृति ने हमें सोचने का एक अवसर दिया है। हम सोचें उन मजदूरों की आंख में आंख डालकर जिन्हें महानगरों ने मुसीबत की इस घड़ी में अपना नही समझा। जिनके खून पसीने की कमाई से महानगरों की अट्टालिकाएं खड़ी है। उन किसानों के बेटों को जो मजदूर बनने को मजबूर हुए और महनगरों की ओर रूख किया। उनके कपड़ों पर लगे पैबंद की पैमाइश न करें। अतीत की ओर झांके कि आखिर ऐसा क्यों हुआ।
कोरोना से पूरी दुनिया त्रस्त है। भारत भी उसकी जद में है। सबकुछ ठप है। ऐसे में हर शहरी को अपना गांव याद आ रहा है। अमीर हो या गरीब। जो रोजी रोटी के लिए शहर आया था वह किसी कीमत पर गांव पहुंचना चाहता है। क्योंकि उसे पता है कि गांव पहुंचते ही उसकी हर एक मुश्किल गांव की अपनी मुश्किल समझी जाएगी। यह कोई कानून या संविधान में नहीं है, बल्कि गांव का स्वभाव है। यह स्वभाव एक दिन में नही बना। इसके पीछे सदियों का संकल्प, और उसकी निरंतरता है। उसकी अपनी व्यवस्था थी। गांव के बनने का भी एक शास्त्र था। एक गांव की दूरी दूसरे गांव से कितनी होगी इसका भी एक तय मानक था। गांव में विज्ञान, अध्यात्म और कला बड़ी महत्व की थी। गांव का अपना सामाजिक अर्थशास्त्र था। गांव किसी पर निर्भर नही था। निर्भर तो आजादी के बाद हमारे नीति नियंताओं ने बनाया। गांधी के स्वराज्य और गांव को तो खूंटी पर टांग दिया गया। यह सब अंग्रेजीदां लोग कर रहे थे। आजादी के बाद जिनके हाथ सत्ता की बागडोर आयी। रही सही कसर उदारीकरण ने पूरी कर दी। आज हर किसी को गांव याद आ रहा है।
भूंमडलीकरण के बाद गांव का अपना अर्थशास्त्र बहुत कम ही बचा है। सही स्थिति में गांव को गांव बनाने में उसके सामाजिक अर्थशास्त्र की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। आजादी के पहले से ही अंग्रेजो की नजर भारत के गांवों को लग गई थी। क्योंकि अंग्रेजों को पता था कि भारत का शक्तिकेन्द्र उसके गांव हैं। इसीलिए गांवों की व्यवस्था को अपनी व्यवस्था के अनुरूप बनाने की कवायद शुरू कर दी थी। दरअसल गांवों की अर्थनीति थी कि हर एक के अंदर सुरक्षा का भाव हो। गांव के किसी व्यक्ति को ये न लगे कि उसके बिना उसका नही चलेगा। यह भाव हर एक के अंदर हो यही गांव के अर्थनीति की सफलता थी। आज बाजारबाद के दौर में गांव की अपनी कोई अर्थनीति नहीं बची
दो साल बाद आजादी के 75 साल हो जाएंगे। आज इसके ठीक दो साल पहले हम जिस जगह खड़े हैं एक बार रूक कर सोचने के लिए प्रकृति ने हमे अवसर दिया है। सोचेंगे तब जब हमें यह अहसास होगा कि हम 73 साल तक हम किस रास्ते पर चले ? क्या हम सोचेंगे कि जिस स्वराज्य के लिए हम लड़े वह स्वराज्य आजादी के बाद हमें मिला ? गांधी जी तो स्वराज्य का आधार भारत के लाखों गांव को ही मानते थे। इन्हीं गांवों को मजबूत बनाने से भारत मजबूत होगा। आजादी के आंदोलन के दौरान गांधी जी ने गांव गांव घूमकर कहा था कि गांवों की सेवा करने से ही सच्चे स्वराज्य की स्थापना होगी। अन्य सब प्रयत्न निरर्थक होंगे। गांधी जी ने 18 जनवरी 1947 को हरिजन सेवक संघ में लिखा “हिन्दुस्तान में सच्चे लोकराज्य में शासन की इकाई गांव होगा। सच्चा लोकराज्य केन्द्र में बैठे हुए बीस आदमीयो से नहीं चल सकेगा। उसे हर गांव के लोगों को नीचे से चलना होगा।”
आजादी के आंदोलन के दौरान गांधी जी का सबसे ज्यादा जोर गांवों और किसानों पर था। गांधी जी हिन्द स्वराज में कहते हैं “मै आपसे यकीनन कहता हूं कि खेतों में हमारे किसान आज भी निर्भय होकर सोते हैं। जबकि अंग्रेज और आप वहां सोने के लिए आनाकानी करेंगे….किसान न किसी के तलवार के बल से उसके बस में हुए हैं और न होंगे। वे तलवार चलाना नहीं जानते, न ही किसी की तलवार से डरते हैं। वे मौत को हमेशा अपना तकिया बनाकर सोने वाली महान प्रजा है.. बात यह है कि किसानों ने प्रजा मंडलों ने अपने और राज्य के कारोबार में सत्याग्रह को काम में लिया है। जब राजा जुल्म करता है तब प्रजा रूठती है। यह सत्याग्रह ही है” मतलब सत्याग्रह की प्रेरणा भी गांधी जी ने इसी गांव और किसान ली।
गांधी जी का प्रबल विश्वास था कि विकेंद्रीकरण ही शोषण के खिलाफ श्रेष्ठ उपाय है। इसलिए उन्होंने न केवल राजनीतिक, बल्कि आर्थिक विकेंद्रीकरण को भी उतना ही आवश्यक बताया। ग्राम स्वराज्य, पंचायत राज्य, ग्रामोद्योग, खादी, आदि पर गांधी जी के विचार विकेंद्रीकरण का ही विस्तार है। गांधी कुटीर और लघु उद्योगों के हिमायती थे।
कुटीर और लघु उद्योगों की लिस्ट में साबुन, तेल, बिस्किट, मोमबत्ती, अगरबत्ती आदि बनाना है। पर खुद ही याद करने की कोशिश करें, कुटीर-लघु उद्योग में बना यह सामान आपने आखिरी बार कब खरीदा था। नमकीन बनाने का काम भी कुटीर-लघु उद्योग की लिस्ट में है। लेकिन बड़ी-बड़ी कंपनियों के इस क्षेत्र में उतर आने के बाद कुटीर उद्योग के लिए इसका भी स्कोप खत्म हो गया है। आज बड़े शहर हों या कोई कस्बा, कोने-कोने में किसी-न-किसी बड़ी कंपनी के पैकेट दुकानों पर टंगे मिल जाएंगे। इसी तरह आप रसोई में उपयोग वाले मसालों को ले सकते हैं, झाड़ू बनाने को ले सकते हैं, दरी उद्योग, कालीन उद्योग, बर्तन उद्योग को ले सकते हैं। ये सब लघु-कुटीर उद्योग लगभग नष्ट ही हो गए और इनमें लगे लोग दिहाड़ी मजदूर हो गए।
गांधी जी सत्य और अहिंसा के सिद्धांत पर आजाद भारत का नवनिर्माण करना चाहते थे। हिन्दुस्तान के गांवों में उन्हे सत्य और अहिंसा के साक्षात दर्शन होते थे। इसीलिए गांधी जी बार-बार जोर देकर गांवों की, गांव पंचायतों की, ग्राम स्वराज्य की, ग्रामोद्योग की और गोरक्षा की बातें करते थे। जवाहरलाल नेहरू गांधी जी के विचारों के खिलाफ थे। दोनो के पत्र इसकी तस्दीक करते हैं। साल 1945 के बीच हुए दोनो के पत्र व्यवहार से दोनों को अलग-अलग दिशाओं में बढ़ते हुए हम देख सकते हैं। संविधान सभा की बहस में भी दो विपरीत धाराएं दिखाई देती है। एक धारा स्वराज्य की, गांव पंचायतों, विकेन्द्रीकरण की, स्वैच्छिक सहयोग की वकालत करती है तो दूसरी धारा पश्चिमी लोकतंत्र की, व्यक्तिगत आजादी की, प्रभसत्ता की, केन्द्रीकृत ढ़ाचे की वकालत करती दिखाई देती है। इन दोनो विचारधाराओं के बीच कोई निर्णायक बहस नहीं हुई। संविधान में उन मुद्दों को शामिल न करने के जो तर्क दिए गए थे वे इतने लचर थे कि उन्हें स्वीकार करना असंभव था, परंतु भारत विभाजन के कारण जो परिस्थितियां उत्पन्न हो गई थी उनके चलते पस्शिचमीकरण के वकीलों की चाल चल गई, जो आज तक चल रही है……समय ने कुछ बदला भी है………