सर्वोच्च अदालत को निर्मित और प्रचिलित कानूनों को सुधारने का अधिकार भले ही हो, पर विकृत करने का हक कतई नहीं है। क्या लिंग-भेद और प्राचीन नियमों को मिटाने की अर्हता का दावा वह कर सकती है ? भारत में अराजकता की आशंका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। प्रसंग यहां है : गत सप्ताह वाला, (20 अप्रैल 2023), जब समलैंगिक विवाहों को कानूनी मान्यता देने की मांग संबंधी याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने पूछा कि : “क्या विवाह के लिए महिला और पुरुष का ही होना जरूरी है।” उन्होंने कहा कि “हम इन (समलैंगिक) संबंधों को न केवल शारीरिक संबंधों के रूप में देखते हैं, बल्कि एक स्थिर और भावनात्मक संबंध के रूप में इससे ज्यादा देखते हैं।” जस्टिस चंद्रचूड़ पांच जजों की बेंच द्वारा सुनवाई कर रहे थे। उनका कहना था : “समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने के लिए विवाह की विकसित धारणा को फिर से परिभाषित करने की आवश्यकता है, क्योंकि वर्तमान में पति-पत्नी रूप केवल महिला और पुरुष का ही अस्तित्व है।”
सर्वोच्च न्यायालय की ऐसी असामान्य राय से समाज में विघटनकारी तत्वों को बल मिलेगा, क्योंकि भारत में विवाह एक संस्थागत अनुष्ठान है। औपचारिक संस्कार है। ब्रिटिश राज में कानून मंत्री सर हेनरी सम्नर मेइन, जिन्होंने “प्राचीन कानून” नामक पुस्तक (1861 में) लिखी थी, ने भारत में 1872 में अंतधार्मिक विवाह हेतु कानून बनाया था। उसी वक्त इसका तीव्र विरोध हुआ था कि शादी के लिए यह वासना का आधार बन जाएगा। परिणामतः अनैतिकता को बल मिलेगा। इस कानून के बाद आजाद भारत में “विशेष विवाह एक्ट 1954” बना था। सभी भारतीयों पर लागू था। इसमें भी विवाह नर-नारी के बीच था। यह विधेयक प्राकृतिक नियमों को घटा-बढ़ा नहीं सकता।
प्रकृति के कानून के दो मूल रूप हैं : (1) सार्वभौमिक जो यह बताता है कि कुछ स्थितियां अन्य शर्तों के साथ जुड़ती हैं, और (2) वह एक संभाव्य कानून है। अतः प्रश्न उठता है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय समलैंगिक विवाह को एक नये संस्कार के रूप में मान्य करार दे तो ? अपनी इस नई व्याख्या में प्रधान न्यायाधीश महोदय को सिद्ध करना होगा कि समलैंगिक विवाह नैसर्गिक तथा प्राकृतिक है। क्योंकि प्राचीन वैदिक ग्रंथों के अनुसार ऐसी विवाह पद्धति अप्राकृतिक ही नहीं, वह अवरोधक और पापमूलक हो जाएगी। समाज का विघटन कराएगी। पाणिग्रह का एक मूल आधार वंश-वृद्धि है। समान लिंग वाले प्रजनन कैसे कर सकते हैं ? यदि ऐसा निर्णय हो गया, तो फिर दंडसंहिता की धारा 377 (अप्राकृतिक अपराध) को भी खत्म करने की मांग उठेगी। इसके तहत अभी किसी पुरुष, स्त्री और पशु से अप्राकृतिक रीति से कामक्रिया अवैध है। दंडनीय अपराध भी। इसमे दस वर्ष की कैद है। जुर्माना अलग।
गौर कर लें इस्लाम में निकाह (शादी) पर। दूल्हे और दुल्हन के बीच यह एक करारनामा है। इस निकाह के लिये दोनों की अनुमति होना ज़रूरी है। दुल्हे को शुल्क जिसे “महर” कहा जाता है, अदा करना पडता है। निकाह के दौरान लड़का और लड़की तीन बार “कुबूल है” कहते हैं। तभी पूरी होती है।
अब हिंदू विवाह एक्ट 1954 की धारा 12 पर गौर कर लें। पारंपरिक पाणिग्रहण संस्कार को कथित रूप से आधुनिक बनाने के नाम पर ऐसा किया गया था। इसमें भी विवाह अनिवार्यतः स्त्री और पुरुष में होता है। बल्कि उसका प्रावधान है कि प्रत्यर्थी की नपुंसकता के कारण विवाहोतर संभोग न हो पाया हो तो शादी भंग की जा सकती है। अर्थात, गर्भधारण एक मान्य शर्त है, संतानोत्पत्ति हेतु।
हिंदू धर्म में विवाह का बंधंन जन्म-जन्मांतर का माना जाता है। श्रुतिग्रंथो में विवाह के स्वरूप को व्याख्यातित किया गया है। इसमें कहा गया है कि दो शरीर, दो मन, दो बुद्धि, दो हृद्य, दो प्राण एवं दो आत्माओं का मेल ही विवाह है। जब जातक का जन्म होता है तब वो देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण का ऋणि होता है। विवाह कोई शारीरिक या सामाजिक अनुबन्ध मात्र नहीं हैं, यहाँ दाम्पत्य को एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक साधना का भी रूप दिया गया है। इसलिए कहा गया है “धन्यो गृहस्थाश्रमः”। ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रमों के साधकों को वांछित सहयोग देते रहते हैं। विवाह को सामान्यतया मानव जीवन की एक आवश्यकता माना गया है। वासना का दाम्पत्य-जीवन में अत्यन्त तुच्छ और गौण स्थान है। बाइबिल में भी विवाह केवल एक पुरुष और महिला के बीच होते हैं। महिला के पिता या अभिभावक की सहमति से वे एक साथ रहते हैं और प्रजनन का प्रयास करते हैं। ईसाई मानते हैं कि विवाह ईश्वर के समक्ष एक वाचा है। उनका विवाह परिवार और दोस्तों की उपस्थिति में होगा जो गवाह के रूप में हैं। बच्चे पैदा करना ईसाई धर्म का हिस्सा ही हो सकते हैं। खुद सर्वोच्च न्यायालय ने सितंबर 1998 को (“क” बनाम अस्पताल) मुकदमे में निगदित किया था कि : “विवाह भिन्न लिंगवालों के दो स्वस्थ शरीरों का पवित्र संगम है।” परिवार से तात्पर्य भार्या-भर्ता से है। संतानोत्पत्ति ही विवाह का मूल आधार है।
इस संदर्भ में भारत की बार काउंसिल का प्रस्ताव कल (23 अप्रैल 2023) एक मील पत्थर है। उसके प्रस्ताव में सर्वोच्च न्यायालय से आग्रह किया है कि इस मसले को संसद पर छोड़ दें। जनप्रतिनिधि ही सदन में बहस के बाद नीति और नियम तय करें। अतः सर्वोच्च न्यायालय को देश की इस शीर्ष अधिवक्ताओं को संसद की राय माननी चाहिए।