रामायण और महाभारत हमारे राष्ट्रीय ग्रंथ हैं। उसमें वर्णित व्यक्ति हमारे लोकजीवन में रच बस गए है। राम सीता धर्मराज द्रोपदी भीष्म हनुमान आदि। रामायण-महाभारत के चरित्रों ने सारे भारतीय जीवन को हजारों सालों से मंत्रमुग्ध सा कर रखा है। संसार के अन्य महाकाव्यों के पात्र इस तरह लोकजीवन में घुले मिले नहीं है। रामायण यदि एक मधुर नीतिकाव्य है तो महाभारत एक व्यापक समाजशास्त्र। व्यासदेव ने एक लाख संहिता लिखकर असंख्य चित्रों, चरित्रों और चारित्र्यों का यथावत चित्रण बड़ी कुशलता से किया है। बिलकुल निर्दोष तो सिवा एक परमेश्वर के कोई नही है। उसी तरह केवल दोषपूर्ण भी इस संसार में कोई नही है। यह बात महाभारत बहुत साफ-साफ बता रहा है। एक ओर जहां भीष्ण युधिष्ठिर जैसों के दोष दिखाए गए हैं, तो दूसरी ओर कर्ण और दुर्योधन के गुणों पर भी प्रकाश डाला गया है।
हम सभी जानते हैं कि महाभारत में ही गीता श्रीकृष्ण ने कही। सुनने वाला भक्त अर्जुन इतना समरस हो गया कि उसे भी श्रीकृष्ण संज्ञा मिल गई। इसका वर्णन करते हुए व्यासदेव इतना समरस हो गए कि उन्हें भी कृष्ण करने लगे। कहने वाला कृष्ण, सुनने वाला कृष्ण और रचने वाला कृष्ण। इस तरह इन तीनों में मानों अदैत उतपन्न हो गया। मानों तीनो की समाधि लग गई। गीता की अध्येता में ऐसी ही एकाग्रता चाहिए। इसी क्रम में विनोबा जी का गीता प्रवचन हम प्रज्ञा संस्थान के लोकनीति केन्द्र पर हम आपके लिए लेकर आए हैं।
कुछ लोगों का ख्याल है कि गीता का आरंभ दूसरे अध्याय से समझना चाहिए। दूसरे अध्याय के ग्वारहवे श्लोक से प्रत्यक्ष उपदेश का आरंभ होता है, तो वहीं से आरंभ क्यों न समझा जाए? एक व्यक्ति ने विनोबा जी से पूछा कि “भगवान ने अक्षरों में अकार को ईश्वरीय विभूति बताया है। इधर अशोच्यानन्वशोचस्त्वम् के आरंभ में अनायास ‘अकार’ आ गया है। अत: वहीं से आरंभ मान लेना चाहिए।” विनोबा जी ने प्रवचन में कहा कि इस दलील को हम छोड़ दें तो भी इसमें शंका नही है कि वहां से आरंभ मानना अनेक दृष्टियों से उचित ही है। फिर भी उससे पहले के प्रस्ताविक भाग का भी महत्व है ही। अर्जुन किस भूमिका में है, किस बात का प्रतिपादन करने के लिए गीता की प्रवृत्ति हुई है। यह इस प्रस्ताविक कथा भाग के बिना अच्छी तरह समझ में नहीं आ सकता।
कुछ लोग कहते हैं कि अर्जुन का क्लैब्य दूर करके उसे युद्ध में प्रवृत्त करने के लिए गीता कही गई है। उनके मत में गीता केवल कर्मयोग नहीं बताती, बल्कि युद्ध योग का भी प्रतिपादन करती है। पर जरा विचार करने से इस कथन की भूल हमे दिखाई पड़ेगी। अठारह अक्षौहिणी सेना लड़ने के लिए तैयार थी। तो क्या हम ये कहेंगे की सारी गीता सुनाकर भगवान ने अर्जुन को उस सेना को योग्य बनाया? अर्जुन घबड़ाया न कि उसकी सेना। तो क्या सेना की योग्यता अर्जुन से अधिक थी। यह बात कल्पना में भी नहीं आ सकती। अर्जुन, जो लड़ाई से परावृत्त हो रहा था, सो भय के कारण नहीं। सैकड़ो लड़ाइयों में अपना जौहर दिखाने वाला वह महावीर था। उत्तर-गो ग्रहण के समय उसने अकेले ही भीष्म,द्रोण और कर्ण के दांत खट्टे कर दिये थे। सदा विजय प्राप्त करने वाला और सब नरों में एक ही सच्चा नर, ऐसी उसकी ख्याति थी। वीरवृत्ति उसके रोम-रोम में भरी थी। अर्जुन को उकसाने के लिए, उत्तेजित करने के लिए क्लैब्य का आरोप तो कृष्ण ने भी करके देख लिया, परंतु उनका वह तीर बेकार गया। और फिर उनको दूसरे मुद्दो को लेकर ज्ञान-विज्ञान संबंधी व्याख्यान देने पड़े। तो यह निश्चित है कि महज क्लैब्य-निरसन जैसा सरल तात्पर्य गीता का नहीं है।
कुछ दूसरे लोग कहते है कि अर्जुन की अहिंसा-वृत्ति को दूर करके उसे युद्ध में प्रवृत्त करने के लिए गीता कही गई है। मेरी दृष्टि से यह कथन भी ठीक नही है। यह देखने के लिए पहले हमें अर्जुन की भूमिका बारीकी से समझनी चाहिए। इसके लिए पहले अध्याय से दूसरे अध्याय में पहुंचने पर हमें बहुत सहायता मिलेगी।
अर्जुन, जो समर भूमि में कर्तव्यभाव और निश्चय करके खड़ा था। क्षात्रवृत्ति उसके स्वभाव में था। युद्ध को टालने का भरसक प्रयास किया जा चुका था। फिर भी वह नहीं टला था। कम से कम मांग का प्रस्ताव और श्रीकृष्ण जैसे की मध्यस्थता, दोनों बातें बेकार हो चुकी थी। ऐसी स्थिति में अनेक देशों के राजाओं को एकत्र करके और श्रीकृष्ण से अपना सारथ्य स्वीकार कराके वह रणांगण में खड़ा था। और वीरवृत्ति के उत्साह में वह श्रीकृष्ण से कहता है – “दोनों सेनाओं के बीच मेरा रथ खड़ा कीजिए, जिससे मैं एकबार उन लोगों के चेहरे तो देख लूं, जो मुझसे लड़ने के लिए तैयार होकर आए हैं।” कृष्ण ऐसा ही करते हैं। वह देखत है कि दादा,बाप,बेटे,पोते, सगे संबंधियों का जबरदस्त जमघट। बाप,बेटे,पोते और सगे संबंधियों की चार पीढियां मरने मारने के अंतिम निश्चय से वहां एकत्र हुई है।
यह बात नहीं कि इससे पहले उसने इस बात की कल्पना नहीं थी। परंतु प्रत्यक्ष दर्शन का कुछ अलग ही प्रभाव पड़ता है। उस सारे स्वजनसमूह को देखकर उसके हृदय में उथल पुथल मचती है। उसे बहुत बुरा लगता है। आज तक उसने अनेक युद्धों में अनेक वीरों का संहार किया था। उस समय उसे बुरा नहीं लगा। उसका गांडीव कभी हाथ से नही गिरा। कभी आंखे नहीं गीली हुई और न ही शरीर कांपा। आखिर इस समय ऐसा क्यों हुआ। क्या अशोक की तरह उसके अंदर अहिंसा वृत्ति का उदय हुआ था। नहीं, यह तो केवल स्वजनाशक्ति थी। इस समय भी यदि गुरू, बंधु और आप्त सामने न होते, तो उसने शत्रुओं के मुंड गेंद की तरह उड़ा दिए होते। परंतु इस आशक्तिजनित मोह ने उसकी कर्तव्यनिष्ठा ने ग्रस लिया। तब उसे तत्वज्ञान याद आया। कर्तव्यनिष्ठ मनुष्य के मोहग्रस्त होने पर भी नग्न कर्तव्यच्युति सहन नहीं होती। वह कोई सदविचार उसे पहनाता है। यही हाल अर्जुन का हुआ। वह अब झूठमूठ प्रतिपादन करने लगा कि वास्तव में युद्ध एक पाप है। युद्ध से कुलक्षय होगा, व्यभिचार फैलेगा, अकाल पड़ेगा। समाज पर तरह तरह के कष्ट आएंगे। तरह तरह की दलीलें देकर वह कृष्ण को समझाने लगा।
यहां मुझे एक न्यायाधीश का किस्सा याद आता है। एक न्यायाधीश था। उसने सैकड़ों अपराधियों को फांसी की सजा सुनाई। परंतु एक दिन खुद उसी का लड़का खून के जुर्म में उसके सामने पेश किया गया। बेटे पर खून का जुर्म साबित हुआ। और उसे फांसी की सजा देने की नौबत न्यायाधीश पर आ गई। तब वह हिचकने लगा। वह बुद्धिवाद बघारने लगा। फांसी की सजा बड़ी अमानुषी है, ऐसी सजा देना मनुष्य को शोभा नही देता। इससे अपराधी के सुधरने की आशा नष्ट हो जाती है। खून करने वाला भावना के आवेश में खून कर डाला। परंतु उसकी आंखों पर से जुनून उतर जाने पर उस व्यक्ति को गंभीरतापूर्वक फांसी के तख्ते पर चढाकर मार डालना समाज की मनुष्यता के लिए बड़ी लज्जा की बात है। बडा कलंक है। यह दलीलें वह न्यायाधीश देने लगा। यदि अपना लड़का सामने न आया होता, तो जज साहब बेखटके जिंदगीभर फांसी की सजा देते रहते। किंतु वे अपने लड़के के ममत्व के कारण ऐसी बातें करने लगे। उनकी वह बात आंतरिक नहीं थी। वह आसक्तिजनित थी। यह मेरा लड़का है। इस ममत्व में वह वांग्मय निकला।
अर्जुन की गति भी इस न्यायाधीश की तरह हुई। उसने जो दलीलें दी थी, वे गलत नहीं थी। पिछले महायुद्ध के ठीक यही परिणाम दुनिया ने प्रत्यक्ष देखे हैं। परंतु सोचने की बात यह है कि वह अर्जुन का तत्वज्ञान नही था। कोरा प्रज्ञावाद था। कृष्ण इसे जानते थे। इसलिए उन्होंने उस पर जरा भी ध्यान न देकर सीधा उसके मोह-नाश का उपाय शुरू किया। अर्जुन यदि सचमुच अहिंसावादी हो गया होता, तो उसे किसीने कितना ही अवांतर ज्ञान विज्ञान बताया होता, तो भी असली बात का जवाब मिले बिना उसका समाधान न हुआ होता। परंतु सारी गीता में इस मुद्दे का कहीं भी जवाब नहीं दिया है। फिर भी अर्जुन का समाधान हुआ है। यह सब कहने का अर्थ इतना है कि अर्जुन की अहिंसा-वृत्ति नही थी। वह युद्दप्रवृत्त ही था। युद्द उसकी दृष्टि से उसका स्वभावप्राप्त और अपरिहार्यरूप से निश्चित कर्तव्य था। उसे वह मोहके वश होकर टालना चाहता था। और गीता का मुख्यत: इस मोह पर ही गदाप्रहार है……………आगे गीता का प्रयोजन:अपना अपना स्वधर्म