ब्रिक्स सदस्यों का भू राजनीतिक महत्व

प्रज्ञा संस्थानब्राज़ील, रूस, इंडिया, चाइना और साउथ अफ़्रीका के गुट को ब्रिक्स कहा जाता था, लेकिन इस साल जनवरी में इस समूह का विस्तार हुआ और इसमें मिस्र, इथियोपिया, ईरान, सऊदी अरब के साथ यूएई भी शामिल हुए. चीन, रूस और ईरान खुलकर पश्चिम विरोधी बातें करते हैं. दूसरी तरफ़ सऊदी अरब, यूएई और मिस्र पश्चिम और चीन के बीच संतुलन बनाकर रखते हैं. मिसाल के तौर पर भारत और ब्राज़ील को छोड़कर सभी ब्रिक्स सदस्य चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव यानी बीआरआई में शामिल हैं.

ब्राज़ील भले चीन की बीआरआई परियोजना में शामिल नहीं है, ब्राज़ील के कुल निर्यात का एक तिहाई चीन को होता है. लेकिन सभी ब्रिक्स सदस्य देशों में भारत एकमात्र देश है, जो पश्चिम से रणनीतिक साझेदारी मज़बूत कर रहा है और चीन से तनावपूर्ण संबंध को लेकर भी संतुलन बनाए हुए है. भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर है. दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमेरिका है और दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था चीन है.

भारत एक तरफ़ इंडो-पैसिफिक में चीन से मुक़ाबले के लिए क्वॉड में है तो दूसरी तरफ़ ब्रिक्स में भी है. ब्रिक्स और क्वॉड के लक्ष्य बिल्कुल अलग हैं. ब्रिक्स पश्चिम के प्रभुत्व को चुनौती देने की बात करता है और क्वॉड को चीन अपने लिए चुनौती के तौर देखता है.

जब ब्रिक्स का विस्तार नहीं हुआ था तब तक यह बातचीत का चौपाल था.” ऐसे में भारत के लिए रणनीतिक और आर्थिक तौर पर हासिल करने के लिए बहुत कुछ नहीं था. लेकिन अब ब्रिक्स का विस्तार हो चुका है और यहाँ एक किस्म की प्रतिस्पर्धा है. विस्तार के बाद ब्रिक्स के पास वैश्विक जीडीपी का 37 फ़ीसदी हिस्सा है जो कि यूरोपियन यूनियन की जीडीपी से दोगुना है. चीन चाहता है कि ब्रिक्स प्लस पश्चिम के ख़िलाफ़ डटकर खड़ा रहे लेकिन जिस तरह से विस्तार हुआ है, उसमें चीन का मक़सद हासिल होता दिख नहीं रहा है.  ब्रिक्स के भीतर भी प्रतिस्पर्धा होगी न कि चीन का पूरी तरह से दबदबा होगा. यहाँ तोलमोल की पर्याप्त गुंजाइश होगी.”

हाल ही में चीन ने पाकिस्तान को ब्रिक्स में शामिल करने का समर्थन किया है. रूस ने भी तत्काल पाकिस्तान की सदस्यता का समर्थन कर दिया. लेकिन भारत भी ब्रिक्स का संस्थापक सदस्य है और बिना भारत के समर्थन के पाकिस्तान का  गुट में आना आसान नहीं है. भारत अब किसी खेमे का बनकर नहीं रहना चाहता है. भारत की विदेश नीति की बुनियाद गुटनिरपेक्ष रही है. अब भारत गुटनिरपेक्ष के बदले बहुपक्ष की बात करता है. यानी भारत अपने हितों के हिसाब से सभी पक्षों के साथ रहेगा. भारत का ब्रिक्स और क्वॉड में होना विरोधाभासी तो लगता है, लेकिन पश्चिम को भी ये बात पता है कि भारत के ब्रिक्स में होने से उसे कोई नुक़सान नहीं है और रूस को भी पता है कि भारत के क्वॉड में होने से उसके हितों के साथ समझौता नहीं होगा. हालांकि पश्चिम और रूस दोनों भारत के क्वॉड और ब्रिक्स में होने पर अपनी असहजता ज़ाहिर करते रहे हैं. क्वॉड में भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान हैं.

वहीं, भारत के ब्रिक्स और रूस के साथ क़रीबी को लेकर अमेरिका अपनी असहजता ज़ाहिर करता रहा है. पिछले चार सालों में कई पश्चिम के विश्लेषकों और अधिकारियों ने भारत को अपने पाले में लाने के लिए चीन कार्ड का इस्तेमाल किया. पश्चिम को यह बात पसंद नहीं है कि भारत अपनी पसंद की विदेश नीति पर आगे बढ़े.”

जनवरी 2024 में ब्रिक्स का विस्तार हुआ था और अब यूएई भी इसका सदस्य है पश्चिम यह नैरेटिव गढ़ने की कोशिश करता है कि चीन और रूस दोनों एक हैं.  पश्चिम से भारत को लेकर सलाह की कमी नहीं है. दिलचस्प यह है कि रूस में पीएम मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की पाँच सालों बाद द्विपक्षीय बातचीत हुई. इसके ठीक पहले भारत ने घोषणा की थी कि एलएसी पर दोनों देश पट्रोलिंग को लेकर एक समझौते पर पहुँच गए हैं .

कई विशेषज्ञों का मानना है कि भारत के लिए रूस से रिश्तों में संतुलन बनाए रखना एक बड़ी चुनौती है. रूस से अच्छे रिश्ते में भारत का हित सीधा जुड़ा है. रक्षा ज़रूरतें, मध्य एशिया और ऊर्जा के मामले में रूस से अच्छा संबंध होना अनिवार्य है. भारत को मध्य एशिया पहुँचना है तो ईरान के ज़रिए ही पहुँच सकता है. रूस के बिना भारत के लिए मध्य एशिया पहुँचना आसान नहीं है क्योंकि रूस का ईरान और मध्य एशिया में ख़ासा प्रभाव है.

ईरान, सऊदी अरब और यूएई के आने से 40 प्रतिशत तेल व्यापार ब्रिक्स के हिस्से में आ गया है. अगर ब्रिक्स देश भुगतान के लिए कोई अपना प्रबंध कर लेते हैं तो इसका बड़ा असर होगा. ज़ाहिर है इसका बड़ा फ़ायदा चीन को होगा लेकिन भारत को भी होगा. बहुपक्षीय दुनिया में हर प्लेटफॉर्म ज़रूरी है और भारत अपने हितों को साधने के लिए हर प्लेटफॉर्म पर है. भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने विदेश नीति की बुनियाद गुटनिरपेक्षता में रखी थी. उसके बाद की जितनी सरकारें आईं सबने इस नीति का पालन अपने-अपने हिसाब से किया है.

हंगरी में सोवियत यूनियन के हस्तक्षेप के एक साल बाद 1957 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संसद में बताया था कि भारत ने क्यों इस मामले में यूएसएसआर की निंदा नहीं की. नेहरू ने कहा था, ”दुनिया में साल दर साल और दिन ब दिन कई चीज़ें घटित होती रहती हैं, जिन्हें हम व्यापक रूप से नापसंद करते हैं. लेकिन हमने इनकी निंदा नहीं की है क्योंकि जब कोई समस्या का समाधान खोज रहा होता है तो उसमें निंदा से कोई मदद नहीं मिलती है.

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