लद्दाख में भारतीय सेना की बड़ी संख्या में उपस्थिति ने पाकिस्तान को भी मुश्किल में डाल दिया है। लद्दाख की सीमाएं पाकिस्तान के नियंत्रण में पड़े हुए गिलगित-बाल्तिस्तान से लगती है। गिलगित-बाल्तिस्तान 1947 तक जम्मू-कश्मीर का हिस्सा था। भारत पाकिस्तान के नियंत्रण में पड़े हुए जम्मू-कश्मीर के सभी क्षेत्रों को वापस लेने का संकल्प दोहराता रहा है।
गिलगित-बाल्तिस्तान न केवल पाकिस्तान के लिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वह अफगानिस्तान की सीमाओं को भारत की सीमाओं से अलग करता है, बल्कि वह चीन के लिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि सिक्यांग को पाकिस्तान से मिलाने वाला काराकोरम मार्ग इसी क्षेत्र से होकर जाता है। इसलिए चीन भी पाकिस्तान पर इस क्षेत्र की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए दबाव डाल रहा है।
भौगोलिक दृष्टि से यह काफी कठिन क्षेत्र है। छह हजार फीट से अधिक ऊंचाई वाले लगभग 20 पर्वत शिखर इस क्षेत्र में हैं। लगभग 73 हजार वर्ग किलोमीटर में फैले हुए इस क्षेत्र की आबादी 20 लाख से अधिक नहीं है।
जम्मू-कश्मीर पर अपने काल्पनिक अधिकार को¨ सिद्ध करने के लिए अब तक पाकिस्तान इस क्षेत्र को अपनी संवैधानिक व्यवस्था में लेने से बचता रहा था। अब तक उसकी स्थिति पाकिस्तान के प्रशासनिक नियंत्रण में पड़े हुए एक स्वायत्तशासी क्षेत्र की रही है। लेकिन अब पाकिस्तानी सेना उसे वैधानिक रूप से पाकिस्तान का अंग देखना चाहती है, ताकि वह इस क्षेत्र की सुरक्षा के लिए आवश्यक सामरिक तंत्र विकसित कर सके। इसलिए उसने पाकिस्तान सरकार को निर्देश दिया है कि उसका स्वायत्तशासी क्षेत्र का दर्जा समाप्त करके उसे पाकिस्तान के पांचवें प्रांत के रूप में पाकिस्तान में शामिल कर लिया जाए। लेकिन यह काम उतना आसान नहीं है, जितना पाकिस्तानी सेना ने शुरू में सोचा था।
पाकिस्तान के विपक्षी दलों ने न केवल इस प्रस्ताव का विरोध करना शुरू कर दिया है क्योंकि उन्हें लगता है इससे जम्मू-कश्मीर पर पाकिस्तान की स्थिति कमजोर हो जाएगी, बल्कि उसने इस पूरे मामले में सेना की भूमिका पर ही सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं।
पाकिस्तान गिलगित-बाल्तिस्तान को अपना पांचवां प्रांत तभी बना सकता है, जब वह इसके लिए अपने संविधान में संशोधन करे। संविधान में संशोधन करने के लिए पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेंबली के दो तिहाई सदस्यों का अनुमोदन आवश्यक है। लेकिन इमरान सरकार राष्ट्रीय असेंबली का दो तिहाई बहुमत जुटाने की स्थिति में नहीं हैं। पिछले आम चुनावों में पाकिस्तानी सेना के खुले और सक्रिय समर्थन के बावजूद इमरान खान की पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ को राष्ट्रीय असेंबली में बहुमत प्राप्त नहीं हुआ था। इस समय राष्ट्रीय असेंबली के 372 सदस्यों में तहरीक-ए-इंसाफ के 156 सदस्य ही हैं। अनेक छोटे दलों को जोड़-बटोरकर सरकार को 179 सदस्यों का समर्थन हासिल है, जबकि विपक्ष के पास 161 सदस्य हैं। इस कठिनाई को देखते हुए सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा ने विपक्षी नेताओं की एक बैठक बुलाई थी और उनसे गिलगित-बाल्तिस्तान को पाकिस्तान के पांचवां प्रांत बनाने के कानून का समर्थन करने का आग्रह किया था।
विपक्षी दलों ने सेना को कोई सीधा आश्वासन देने के बजाय उसकी राजनैतिक भूमिका पर ही सवाल उठा दिए। सबसे तीखी प्रक्रिया लंदन में बैठे नवाज शरीफ ने व्यक्त की और अपनी पार्टी के सांसदों को निर्देश दिया कि वे राजनैतिक मामलों में सेना के हस्तक्षेप का सीधा और खुला विरोध करें। उनके अलावा पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेताओं ने तथा मौलाना फजलुर रहमान की जमात ए-उलेमा-इस्लाम ने सेना की भूमिका पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है और गिलगित-बाल्तिस्तान को पाकिस्तान का पांचवां प्रांत बनाने के निर्णय का विरोध करना शुरू कर दिया है।
विपक्ष के इस विरोध में अब अन्य पार्टियां भी शामिल होती जा रही हैं। इससे इमरान खान की मुसीबत बढ़ गई है और उन्हें अपने बिल के लिए दो तिहाई बहुमत जुटाना मुश्किल लगने लगा है। इतना ही नहीं राजनीति में सेना के हस्तक्षेप का विरोध करने के लिए विपक्ष सड़कों पर उतरने की तैयारी कर रहा है।
पाकिस्तान की समस्या केवल राष्ट्रीय असेंबली में दो तिहाई बहुमत जुटाने तक सीमित नहीं है। पिछले सात दशकों में पाकिस्तान सरकार को इस क्षेत्र के लोगों के निरंतर विरोध का सामना करना पड़ा है। इस क्षेत्र की मुख्य आबादी शिया और इस्माइली है। 1948 में इस क्षेत्र के 85 प्रतिशत लोग शिया या इस्माइली थे। गिलगित क्षेत्र की शिया आबादी पाकिस्तानी सुन्नियों और कश्मीरी सुन्नियों दोनों को संदेह की दृष्टि से देखती रही है। गिलगित-बाल्तिस्तान को एक षड्यंत्र के अंतर्गत पाकिस्तान के नियंत्रण में लाया गया था।
1947 में यह क्षेत्र डोगरा शासन में था। उसकी सुरक्षा के लिए महाराजा हरि सिंह ने गिलगित-स्काउट नाम से एक अलग बल बनाया था, जिसका कमांडर विलियम ब्राउन था। उसने पाकिस्तान से साठगांठ करके इस इलाके को पाकिस्तान के प्रशासनिक नियंत्रण में पहुंचा दिया। पाकिस्तान सरकार इस क्षेत्र के निवासियों पर गहरा अविश्वास करती थी। इसलिए उन्हें सीमांत प्रदेशों में लागू उस दंड संहिता द्वारा शासित किया गया, जो अपराधियों के लिए बनाई गई।
इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों को प्रशासन से पूछे बिना एक गांव से दूसरे गांव जाने की भी मनाही थी। 1963 में इस क्षेत्र के 5180 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र शम्सगाम को चीन को सौंप दिया गया। 1970 में इस पूरे इलाके को एक प्रशासनिक इकाई बनाने के लिए उत्तरी क्षेत्र नाम दिया गया। 1979 में ईरान की इस्लामी क्रांति के बाद इस क्षेत्र के शियाओं ने अपने अधिकार मांगना शुरू किया। जिया उल हक ने उन्हें नियंत्रित करने के लिए अन्य क्षेत्रों से सुन्नी आबादी वहां बसाना शुरू की।
आज गिलगित-बाल्तिस्तान की 30 प्रतिशत आबादी सुन्नी है। यह क्षेत्र 1984 तक मुख्य पाकिस्तान से कटा हुआ ही था। क्योंकि इस क्षेत्र में परिवहन व्यवस्था अविकसित थी। चीन द्वारा काराकोरम मार्ग बनाए जाने के बाद इस क्षेत्र के लोग पाकिस्तान के मुख्य क्षेत्रों में पहुंचना शुरू हुए। पर उन्हें यह भी समझ में आया कि चीन उनके इलाके को अपनी कॉलोनी में परिवर्तित करता जा रहा है।
पाकिस्तान ने गिलगित-बाल्तिस्तान को अपने नियंत्रण वाले कश्मीर से भी अलग ही रखा है। तथाकथित आजाद कश्मीर के नेता उसे अपने में मिलाने की कोशिश में लगे रहे हैं। 1993 में उन्होंने अपने यहां के हाईकोर्ट से एक आदेश पारित करवाकर गिलगित-बाल्तिस्तान को आजाद कश्मीर का अंग बनाने की कोशिश की। लेकिन पाकिस्तान सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से हाईकोर्ट के इस आदेश को निरस्त करवा दिया।
गिलगित-बाल्तिस्तान की सबसे बड़ी समस्या यह रही है कि इस क्षेत्र की संवैधानिक स्थिति स्पष्ट न होने के कारण उनके कोई वैधानिक अधिकार नहीं है। वे पाकिस्तानी प्रशासकों के मनमाने व्यवहार पर निर्भर रहने को विवश है। इस क्षेत्र में होने वाले नागरिक आंदोलन तथा विरोध-प्रदर्शन की गूंज पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेंबली और अदालतों तक पहुंचाई जाती रही।
इस क्षेत्र को 2009 में एक विधायी परिषद देने का निर्णय हुआ। तब से वहां विधायी परिषद के चुनाव अवश्य होते हैं, अगले चुनाव 15 नवंबर को होने हैं, लेकिन यहां की विधायिका के पास कोई वास्तविक अधिकार नहीं है। सारे अधिकार पाकिस्तान द्वारा नियुक्त किए जाने वाले प्रशासकों के ही पास होते हैं। सितंबर 2009 में पाकिस्तान सरकार ने चीन सरकार के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसके अनुसार चीन को इस क्षेत्र में 7000 मेगावाट बिजली पैदा करने वाले एक विशाल बांध को बनाने का अधिकार मिल गया। इस बांध का यहां के लोगों द्वारा तीव्र विरोध किया जा रहा है।
पाकिस्तानी सेना के संरक्षण में चीन इस क्षेत्र की अपनी सभी योजनाओं को पूरी करने में लगा हुआ है। यह बिजली उत्पादन उसके द्वारा बनाए जा रहे औद्योगिक कॉरिडोर की सफलता के लिए बहुत आवश्यक है। इसलिए भी चीन अपनी सभी योजनाओं को जल्दी से जल्दी पूरा करने के लिए इस क्षेत्र को सुरक्षित बनाना चाहता है और वह पाकिस्तान सरकार पर इसे अपना पांचवां प्रांत बनाने के लिए दबाव डाल रहा है।
भारत ने यह कहते हुए पाकिस्तान की गिलगित-बाल्तिस्तान को अपना पांचवां प्रांत बनाने की कोशिश का तीव्र विरोध किया है कि यह पूरा इलाका वैधानिक रूप से भारत का अंग है और उसकी स्थिति में किया गया कोई भी परिवर्तन भारत को स्वीकार्य नहीं होगा।
भारत के लिए गिलगित-बाल्तिस्तान का विशेष महत्व रहा है। गिलगिल-बाल्तिस्तान के भारत का अंग होने के कारण ही 1947 में भारत की सीमाएं अफगानिस्तान से लगती थीं। गिलगित-बाल्तिस्तान के पाकिस्तान के अनधिकृत नियंत्रण में जाने के बाद हमारी अफगानिस्तान तक पहुंच बाधित हो गई। पिछले सात दशक से पाकिस्तान हमारे और अफगानिस्तान के बीच एक दीवार बनने की कोशिश कर रहा है। गिलगित-बाल्तिस्तान को अपने नियंत्रण में लेकर हम न केवल अफगानिस्तान के निर्माण में अधिक सक्रिय भूमिका निभा सकते हैं, बल्कि मध्य एशिया तक अपनी पहुंच भी सुगम कर सकते हैं। इस क्षेत्र में चीन की चुनौती का सामना करने के लिए भी अपने इस क्षेत्र में फिर से हमारा नियंत्रण होना आवश्यक है।
1948 में जब हमने कारगिल को पाकिस्तानी हमलावरों के नियंत्रण से छुड़ाया था तो इस क्षेत्र का रणनीतिक महत्व देखते हुए इसे भी पाकिस्तानी हमलावरों के नियंत्रण से छुड़ा लेना चाहिए था। पाकिस्तान द्वारा नियंत्रित तथाकथित आजाद कश्मीर से यह क्षेत्र छह गुना अधिक बड़ा है और हमारे लिए उसका रणनीतिक महत्व बहुत अधिक है। पाकिस्तान इस क्षेत्र को अब अपना पांचवां प्रांत बनवाने में सफल हो भी जाए तो उस पर नियंत्रण रखना उसके लिए आसान नहीं होगा। इस क्षेत्र के लोगों में पाकिस्तान और चीन दोनों के खिलाफ लेकर तीव्र भावनाएं रही हैं।
पाकिस्तान और चीन दोनों ही यहां के लोगों के साथ अमानवीय व्यवहार करते रहे हैं। यह क्षेत्र संसार के सबसे सुंदर क्षेत्रों में से एक है और यहां के लोग मूल रूप से बौद्ध थे और उनसे जबरन इस्लाम स्वीकार करवाया गया था। उनके बारे में यह प्रचार किया जाता रहा है कि वे पाकिस्तान का अंग होना चाहते हैं। सच्चाई यह है कि वे अपने नागरिक अधिकार चाहते हैं, जो उनकी संवैधानिक स्थिति स्पष्ट हुए बिना संभव नहीं है।
गिलगित-बाल्तिस्तान के लोग जानते हैं कि पाकिस्तान उनकी नहीं अपनी सुरक्षा के लिए इस क्षेत्र को अपना पांचवां प्रांत बनाना चाहता है। जिस तरह बलूचिस्तान के पाकिस्तान का एक प्रांत होने के बावजूद बलूच लोगों का दमन समाप्त नहीं हो गया, उसी तरह गिलगित-बाल्तिस्तान का पांचवां प्रांत बन गया तो भी यहां के लोगों का दमन समाप्त नहीं हो जाएगा। इस क्षेत्र के लोगों की स्थिति इसलिए भी विकट रहने वाली है क्योंकि उनकी संख्या कम है। उनकी विधायिका की शक्ति भी कम ही रहेगी और वह पाकिस्तान के सत्ता के गलियारों पर अपना कोई प्रभाव डालने की स्थिति में नहीं होगी।
भारत को इस क्षेत्र के लोगों की आवाज बनना चाहिए और हमें समूचे जम्मू-कश्मीर को जल्दी से जल्दी भारतीय विधान की परिधि में लाने के अपने संकल्प को कार्यरूप देने की कोशिश करनी चाहिए। गिलगित-बाल्तिस्तान को लेकर पाकिस्तान का राजनैतिक वर्ग अंर्तकलह में पड़ा है। वह पाकिस्तान की राजनीति में सेना के निरंतर हस्तक्षेप से उद्वेलित है। ऐसे में गिलगित-बाल्तिस्तान पाकिस्तान के लिए चिंगारी बन सकता है।