औपचारिकता भर रह गया डब्ल्यूटीओ, (इक्कीसवीं सदी की भारत यात्रा, भाग-3)

के.एन.गोविंदाचार्य

साल 2005 के बाद पूरी दुनिया में “विकास” के बारे में बहस भी शुरू हो गई। 2008 के अमेरिका मे हुई मंदी का अमेरिका पर विशेष प्रभाव पड़ा। अब कर सी वर्चुअल मनी कन्वर्टबिलिटी, एक्सचेंज रेट, बिटकॉइन की समस्या आदि बहस के दायरे मे आ गई है। WTO केवल एक औपचारिकता के नाते बची हुई। इस पृष्टभूमि मे भारत मे भी अब विकास की संकल्पना, उपकरण, विधि आदि के बारे में चर्चा शुरू हो गई है।

साल 2012 मे संयुक्त राष्ट्र संघ की एक कमेटी की सिफारिशों में विकास की एक रूपी अवधारणा मापदंडों और तरीकों को त्याग दिया गया।यह भी कहा गया कि हर देश का अपना विकास पथ होना चाहिये। एक ही दवा सभी को फायदा नहीं देगी। विधाता ने ही हर देश को अलग-अलग प्रश्नपत्र दिये है। अपने परिश्रम, प्रतिभा, कौशल और अनुभव से, प्रयोग से अपने विकास को हासिल करना है। 

विकास की समझ, प्राथमिकता आदि भी अलग हो सकती है। विकास क्या? किसका? कैसे? कब तक? किसको प्राथमिकता देकर? और किसकी कीमत पर विकास? आदि का उत्तर तो अपने जड़ों से जुड़कर, देशज सोच परंपरा, अनुभव से ढूंढना होगा।

पूरी दुनिया मे प्रकृति विध्वंश और पर्यावरण विनाश और उसके प्रभाव के चर्चे हो रहे हैं। विकास मापदंड के बारे मे बहस चल रही है। कैलोरी इनटेक, केमिकल कन्सेप्शन, एनर्जी इनटेक, जीडीपी ग्रोथ रेट आदि सभी एकांगी, अपूर्ण और कई बार तो नुकसानदेह साबित हुई है। इन्हीं अनुभवों में से सुख मानक Happyness Index की चर्चा शुरू हुई है। भूटान सरीखे देश ने इस सन्दर्भ मे नये प्रयोग किये है। इसकी चर्चा पूरी दुनिया मे चल रही है। पूरी दुनिया की 500 वर्षों की जीवनयात्रा ने कई मूल ग्राही पहलुओं पर सोचने के लिये जरुरत बन गई है। 

पिछले 500 वर्षों में जो प्रक्रिया चली। वह मोटे तौर पर मानव केन्द्रिक कही जा सकती है। उसमे मनुष्य को सामाजिक प्राणी मानने के बावजूद विकास प्रक्रिया में एकाकी व्यक्तिवादिता Individualism पर जोर रहा। परिवार, पड़ोस, पानी, पेड़, पशु, पहाड़ सभी चोट खा गई। फिर भी वह एकाकी मानव सुखी होने की बजाय विकार एवं बीमारियों से ग्रस्त, अवसाद ग्रस्त, हिंसक, क्रूर, स्वार्थी एकाकी प्राणी मे तब्दील हो रहा है| इन पहलुओं पर गहराई से अध्ययन हुए है। अब तो पूरी दुनिया को नष्ट करने के लिये आवश्यक अणु बम पृथ्वी को सात बार नष्ट कर सकते हैं। अन्तरिक्ष में उड़ान भर रहा मानव अपने को अकेला और खोखला अनुभव कर रहा है। जिन्दगी लंबी और बोझिल बन रही है।

टेक्नोलॉजी तो मानव की सृष्टि मे जरुरत के बारे मे सवाल उठाने लगी है। इन्हीं अनुभवों के प्रकाश मे पिछले 10 वर्षों से विकास का अधिष्ठान, परिभाषा और पैमाने के बारे मे मूलभूत परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव मे आ रही है।

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