इक्कीसवीं सदी का भारत-अमीर देशों की कठपुतली हैं वैश्विक संस्थाएं

के.एन.गोविंदाचार्य

जैसा कई बार कहा जा चुका है कि समाज मे पिछले 500 वर्षों मे जो बदलाव आया है उतना बदलाव पिछले 5000 वर्षों मे नही आया।उपनिवेशवाद, हथियारवाद, टेक्नोलॉजी, साम्राज्यवाद, आदि का बोलबाला पिछले 500 वर्ष के इतिहास का अंत स्थल है। दो विश्वयुद्धों के बाद यूरोप, अमेरिका ने रणनीति मे बदल किया। “संयुक्त राष्ट्र संघ” उसी की उपज है।

उसकी संचालन प्रक्रिया तय करने मे अमेरिका, यूरोप की विशेष भूमिका रही। एक देश को एक वोट का अधिकार दिया पर सभी जानते है कि लोभमय से अमीर देश छोटे-छोटे गरीब या Single Commodity Countries को दबाकर अपने पक्ष मे रखते हैं। सुरक्षा परिषद् का सदस्य कौन बने? कैसे तय होता है? वह प्रक्रिया कितनी पारदर्शी या लोकतांत्रिक है? उसी प्रकार संचालन विधि वीटो पॉवर होना कितना लोकतांत्रिक है?

नियम तो गब्बर लोगों के हाथ मे ही रहे तो अब्बर देश असहाय ही रहेंगे। वही प्रक्रिया 60 के दशक के शीतयुद्ध के पर्व में अफ्रिका के देशों के प्रति उपनिवेशवादियों या पूर्व उपनिवेशवादियों का रहा। उससे उपरोक्त स्थापना की पुष्टि होती है। वह स्थितिगति मध्य और दक्षिणी अमेरिकी देशों की हुई। 70 के दशक मे जो अराजकता पूर्वी और दक्षिण एशिया मे फैली उसके पीछे भी देसी-विदेशी न्यस्त स्वार्थी तत्वों का हाथ है। कई कठपुतली शासकों को इन साम्राज्यवादियों के द्वारा बैठाया गया, जैसे ईरान। उनके खिलाफ हुए विद्रोहों में उनकों बेरहमी से कुचला गया। अब ये अमीर देश परोक्ष साम्राज्यवादी शोषण के रास्ते पर चल पड़े। सैनिक शक्ति की बजाय धनशक्ति का एवं छलशक्ति का सहारा लिया जाने लगा।

आइ. एम. एफ, वर्ल्ड बैंक का सहारा लिया गया। उसी प्रकार WTO सरीखे संगठनों का भी इस्तेमाल हुआ। स्पर्धा की जगह कार्टेलाइसेशन की प्रक्रिया चली। पर लूट अबाधित रही। इस शोषण को और अधिक व्यापक और गहरा बनाने के उद्देश्य से GATT और व्यापक सर्वंकश बनाने की कोशिश शुरू हुई। वार्ता के कई चक्र होने के बाद उरेगुए चक्र की शुरुआत हुई| 80 से 85 तक के विस्तारवाद के अनुभवों से सीखकर शोषण की प्रक्रिया के रूप में नैतिक और कानूनी कोशिशों को देखा जाना चाहिये। लोभ, भय, छल के सहारे लोकउद्धारक छवि अमीर देशों ने बनाई। तेल उत्पादक देश और चीन इन वार्ताओं से दूर अपनी खिचड़ी अलग पकाते रहे। 

GATT की उरेगुए चक्र की वार्ता से डंकल ड्राफ्ट का उदय हुआ। जिसमें वस्तुओं के व्यापार के साथ टेक्नोलॉजी, पूंजी, वस्तुओं के मुक्त प्रवाह की वकालत की गई। साथ ही फिलहाल कृषि को अलग रखकर बात की गई, जिससे अधिकतम सहमति प्रारूप के लिये पाई जा सके। प्रयत्नपूर्वक देशों को इस व्यापक समझौते के लिये राजी किया गया। उस समझौते का आवरण और प्रस्तुतिकरण काफी आकर्षक और मोहक था।

जैसे कि यह कहा गया कि इस मंच पर आ जाने से एक साथ 150 देशों से व्यापार संभव होगा। पर किसी ने पूछ ही नहीं कि की भारत का विदेश व्यापार तो प्रभावी रूप से 15-20 देशों से होता है। शेष अगर राजी भी हों तो हम उससे लाभ कैसे लेंगे? उसी प्रकार ग्लोबल विलेज की प्रस्तावना रखी गई। उसके साथ-साथ Comparative Advantage (तुलनात्मक लाभ) की संकल्पना रखी गई। असल में Single Commodity Countries को अपने जाल मे फंसाकर मकड़ी की तरह शिकार को निचोड़ लेने मे ये अमीर देश सफल रहे।

विश्व व्यापार संगठन बनाने के समय एक देश को एक वोट की वकालत की गई, और कहा गया कि छोटे और निर्बल राष्ट्रों का भी एक वोट होगा। पर असल मे तो यह भारत सरीखे देशों के प्रति छलपूर्ण व्यवहार था। एक तरफ Global Village का सपना दिखाना और दूसरी तरफ 30 लाख की आबादी वाले देश को एक वोट, और 100 करोड़ के भारत को एक ही वोट प्रदान करना, यह षड़यंत्र था।

उसी प्रकार पूंजी, तकनीकी वस्तुएँ तीनों के वैश्विक मुक्त प्रवाह का रंगीन दृश्य दिखाया गया। उसके साथ यह सब लोकतांत्रिक होने और विश्व को एक बस्ती समझने में छल करके मनुष्यों के विश्वभर मे मुक्त प्रवाह को छुट नही दी गई। वीजानियम और माइग्रेशन को कितने कड़ाई से निपटा गया इसके दर्दनाक दृश्य स्मृति मे अभी भी ताजा हैं।

इसी छल प्रपंच का दौर 1995 से प्रारंभ हुए। WTO का दृश्य 2005 तक देखा जा सकता है। इस बीच पेटेंट क़ानून, सोशल क्लॉज़, लेबर क्लॉज़, पर्यावरणीय तकाजे, इन्टलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स, TRIMS; Green Room व्यवस्था, Amber Box सब्सिडी आदि के संबंध में निर्णयों की व्यवस्था करना उसी जकड़नवादी वृत्ति का संकेत है 1995 से 2005 के बीच निचोड़ने की गति अधिक रही। व्यापक और गहरी रही। फलतः चाड़ देश के वृक्ष, सूडान की बकरियाँ लगभग क्षीण हो गई। उसमे दक्षिणी अमेरिका देश, अफ्रिका के देश आदि का शिकार किया गया। Value Addition और Technology Transfer की जगह पैसे को पैसे से खींचने की रणनीति और प्राकृतिक और खनिज संसाधनों की लूट का रूप बना। भारत में भी कमोवेश यही स्थिति बनी। विदेशी निवेश, विनिवेश, विदेशी व्यापार आदि की व्यवस्थाओं से विदेशी निवेशकों, FDI आदि को फायदे हुये। इन अनुभवों को पहले से ही कई पुस्तकों में लिखा जा चुका है जैसे – 1. Enough is Enough, 2. When Corporations Rule the World, 3. Globalisation and its discontent, 4. Confessions of an Economic hitman आदि| इस बीच चीन, रूस फिर से आर्थिक दृष्टि से बढे। राजनैतिक दृष्टि से अधिनायकवाद और अर्थव्यवस्था के नाते बाजारवाद के नए मॉडल बनने लगे हैं।

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