कोरोना काल में टेक्नालाजी के किसी भी प्लेट फार्म से अगर आपको संवाद करना है तो दो शब्दों से बच नहीं सकते, म्युट और अनम्युट। डिक्शनरी में म्युट शब्द अब तक गूंगा के लिए दर्ज है। उसके विलोम का अर्थ बताने की जरूरत नहीं है। जाने-माने वकील और राज्यसभा सदस्य केटीएस तुलसी ने राज्यसभा की 20 सितंबर की शर्मनाक घटना को समझाने के लिए म्युट शब्द का उपयोग किया है। इस तरह यह शब्द अब कानूनी भी हो गया है। अपने एक लेख में आरोप लगाया है कि उस घटना की वास्तविकता को छिपाने के लिए टीवी फूटेज और राज्यसभा के नियम बुक को म्युट कर दिया गया। क्या वास्तव में ऐसा है?
यह क्या एक वकील का गढ़ा गया नया तर्क है? जिससे विपक्ष जनमानस में अपना मुकदमा जीत सके? ये सवाल इसलिए हैं क्योंकि उस शर्मनाक असंसदीय घटना से राज्यसभा के औचित्य पर बहस छिड़ सकती है। कुछ आवाजें उठने लगी हैं। संविधान निर्माताओं ने राज्यसभा की कल्पना दो लक्ष्यों से की थी। पहला लक्ष्य था कि चरित्र में एकात्मक संविधान को संघात्मक व्यवस्था का एक व्यवहारिक ढांचा देना है। वह राज्यसभा से ही संभव है। दूसरा लक्ष्य था कि राज्यसभा में वे लोग आएं जो संसदीय संस्कारों में पले-बढ़े हैं। जिन पर सरस्वती की कृपा है, छिन्नमस्ता काली कपाली की नहीं। इसे जो भी याद कर सकेगा वह राज्यसभा की उस घटना को संविधान की हत्या से कम नहीं मानेगा।
राजनीतिक लक्ष्य से नियोजित रीति से वह घटना घटी। इसके प्रमाण आ गए हैं। राज्यसभा के उप सभापति हरिवंश पर अचानक हमला ही इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
स्वभाव से विनम्र, व्यवहार में समावेशी और पवित्र, (मेरी समझ से पवित्र व्यक्ति वह है जो पापी को गले लगाने के लिए हमेशा तैयार रहता है। किसने नहीं देखा है, यानी सभी ने देखा-सुना कि हरिवंश थर्मस में चाय और कप लेकर महात्मा गांधी की मूर्ति के सामने उपवास का उपहास उड़ाते सांसदों के पास पहुंचे।) अध्ययन-मनन में बेमिशाल हरिवंश पर हमला दोहरा अपराध है। पहला-मनुष्यता पर और दूसरा-संसदीय परंपराओं पर। अपने कुकृत्य को छिपाने के लिए उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया। यह तीसरा गुनाह है। क्या राज्यसभा अब गुनाहओं का देवता बना रहेगा? यह हर कोई पूछ रहा है जो संसदीय प्रक्रियाओं से रंचमात्र भी परिचित है। मैंने राज्यसभा की कवरेज एक या दो बार ही की है। लेकिन लोकसभा की प्रेस गैलरी से रिर्पोटिंग का करीब दो दशक का अनुभव है। इस आधार पर कह सकता हूं कि संसदीय प्रक्रियाओं का प्रारंभिक ज्ञान मुझे है।
इस आधार पर उस दिन की घटना को जब दखता हूं तो पाता हूं कि विपक्ष के तर्क रोज बदल रहे हैं। नए-नए तर्क खोजे जा रहे हैं। केटीएस तुलसी ने अपने लेख में विपक्ष की ओर जो तर्क दिए जा रहे थे उसे छोड़कर नया तर्क दिया। इससे पहले विपक्ष के चार आरोप रहे। पहला कि उस दिन की कार्यवाही का समय बढ़ाने के लिए सदन से सम्मति प्राप्त नहीं की गई। दूसरा कि उप सभापति ने विपक्ष की मांग पर मत विभाजन की अनुमति नहीं दी। तीसरा कि विधेयक को शोर-शराबे में पास करा दिया। चौथा कि प्रक्रिया नियमावती, संसदीय परंपरा और उसकी पुरानी नजीरें निर्णय का आधार नहीं थी। ये आरोप तथ्यहीन है। मनगढ़ंत हैं और विपक्ष की राजनीति को एक तर्क देने के लिए बार-बार दोहराए जा रहे हैं।
वैसे तो यहां मुझे राज्यसभा की कार्यवाही की नियमावली का विस्तार से उल्लेख करना चाहिए। लेकिन यह कोई शोध पत्र नहीं है। इसलिए उसकी मोटी-मोटी बातें बता देने से काम चल जाएगा। पहली बात जो जाननी चाहिए वह यह कि भारत में अंग्रेजी जमाने से ही संसदीय प्रक्रिया की नियमावली का निरंतर विकास हुआ है। उसके सौ साल पूरे हो रहे हैं। सदन कैसे चले, इसका निर्धारण राजनीतिक दल के प्रतिनिधि करते हैं। सचिवालय उसे कागज पर उतारता है। आसन पर बैठा अधिकारी व्यक्ति (उसका पद चाहे जो हो) वह उसी से निर्देशित होता है। उस दिन उप सभापति यही कर रहे थे।
सदन की सम्मति से ही कार्यवाही का समय हमेशा बढ़ाया जाता है। क्या कभी इसके लिए संसद में मत विभाजन कराने का उदाहरण है? यह सवाल यूं ही नहीं है। हमेशा आवश्यकता होने पर समय बढ़ा दिया जाता है। कोरोना काल महामारी का है। इस कारण सांसदों के बैठने की विशेष व्यवस्था की गई थी। सिर्फ साठ सदस्य राज्यसभा के सदन में बैठाए जा सके। शेष सदस्य लोकसभा और गैलरी में थे। इससे समझा जा सकता है कि उप सभापति को सदन के संचालन में कुछ व्यवहारिक कठिनाइयां तो थी ही, उसे विपक्ष की राजनीति ने विकराल बना दिया। महामारी से भी विपक्ष की चेतना साफ-सुथरी नहीं हो पाई। वह घटना कोरोना संक्रमण को बढ़ाने में सहायक थी जबकि उससे बचने के लिए ही सारे इंतजाम किए गए थे। संसद के इतिहास में बैठने की ऐसी व्यवस्था पहली बार की गई थी। उस घटना ने उसका भी मजाक उड़ाया। क्या जो कानून बनाते हैं वे उससे उपर हैं?
संसदीय कार्य प्रणाली से थोड़ा भी जिनका परिचय है वे जानते हैं कि मत विभाजन की मांग के लिए एक निश्चित पद्धति है। सदस्य को अपनी सीट पर रहना होता है। वहीं से वह यह मांग कर सकता है। मत विभाजन की अगर किसी ने मांग की तो उसे दरकिनार नहीं किया जाता। जब भी मत विभाजन होता है तो गैलरी खाली कराई जाती है। सदन में हर सदस्य अपनी सीट पर पहुंचता है। चाहे पर्ची से हो, या बटन दबाकर, दोनों स्थिति में सदस्य यह कार्य अपनी निर्धारित सीट से ही कर पाता है। टीवी फुटेज में तस्वीर को कोई गूंगा नहीं कर सकता। मेरे पास 12.56 से 1 बजकर 57 मिनट का पूरा ब्योरा है। इसी दौरान हंगामा और उप सभापति पर हमले होते रहे हैं। अगर मार्शल न बचाते तो हरिवंश अस्पताल में होते। क्या संसदीय मर्यादा इसे ही कहते हैं!
यह कहा जा रहा है कि दो सदस्यों ने अपनी सीट से मत विभाजन के लिए आवाज लगाई। हो सकता है, ऐसा किया हो। उस नक्कार खाने में क्या वह तूती की आवाज नहीं रही होगी? जब उप सभापति को अपना अंग-भंग होने से बचाव की चिंता हो तब यह तर्क कि मत विभाजन की मांग को उन्होंने अनसुनी कर दी, इससे वाहियात कुतर्क क्या हो सकता है। मान लें कि उन्होंने सुना, वैसे तो यह संभव ही नहीं है, लेकिन एक बार मान भी लें तो जैसा दृश्य उस समय था उसमें मत विभाजन क्या संभव था? शब्दों के तीर कमान चलते देखना आनंद की बात होती है। पर जब शब्द चूक जाएं और लक्ष्य यह हो कि संसदीय प्रक्रिया में पराजय का सामना नहीं करना है तो हंगामा और हंगामे के बाद उसे उचित ठहराने के लिए कुतर्कों की थेथरई ही उपाय है, जिसे विपक्ष और उनके वकील अपने लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।
सच तो यह है कि मत विभाजन विपक्ष चाहता ही नहीं था। अगर चाहता तो लंबी बहस के बाद अचानक हंगामा और हंमला पर नहीं उतरता। राज्यसभा में ऐसा उस दिन जो हुआ वह एक फैसले का नतीजा था। इसे कौन नहीं जानता कि सड़क पर संघर्ष का राजनीतिक स्वभाव लुप्त हो गया है। संसद को ही अपनी राजनीति के लिए अखाड़ा बनाने की संसदीय प्रवृति अब राजनीतिक दलों के स्वभाव में आ गई है। पहले कोई सांसद अकेले या विपक्ष के सांसद सामूहिक रूप से सदन में विरोध जताते थे तो उसका तरीका संसदीय मर्यादाओं से निर्धारित होता था। इक्के-दुक्के अपवाद भी होते थे। लेकिन राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद हंगामे का निर्णय दल के नेता करने लगे। उस दिन की घटना पर अगर जांच बैठाई जाए और दूध का दूध और पानी का पानी हो सके तो पता चलेगा कि वह दलीय निर्णय था। यह नेतृत्व के निर्देश के बगैर हो ही नहीं सकता था।
राज्यसभा का एक नियम आसन को अधिकार देता है कि हंगामाई सांसदों को वह चाहे तो निलंबित कर सकता है। उप सभापति हरिवंश नियम 256 के तहत यह कर सकते थे। उन्होंने धैर्य रखा। उदारता की मिशाल कायम की। इसके ठीक विपरीत एक उदाहरण ही स्पष्टता के लिए काफी है। 15 मार्च, 1989 का दिन था। विपक्षी सदस्य हमले नहीं कर रहे थे। अपने अधिकारों का वास्ता देकर बोफोर्स सौदे में घोटाले पर चर्चा की मांग कर रहे थे। यह याद कर किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि राज्यसभा के 63 सदस्यों को उस दिन निलंबित कर दिया गया। इस घटना के विरोध में 124 लोकसभा सदस्यों ने सामूहिक इस्तीफा दिया। अगर यह बात पुरानी लगती है तो नया उदाहरण 2014 का है। लोकसभा चुनावों से पहले जब मनमोहन सिंह की सरकार ने आंध्रप्रदेश पुनर्गठन विधेयक को जबरन पारित कराया। विपक्षी सदस्यों को उस दिन जबरन निकाला गया था। क्या राज्यसभा में ऐसा हुआ? इसके विपरीत उप सभापति ने इस आशा में सदन को 15 मिनट के लिए स्थगित किया कि विपक्ष शांत होगा और सहयोग करेगा।
यह पुराना रिवाज है। हर हफ्ते अगले हफ्ते का कार्यक्रम बिजनेस एडवाइजरी कमेटी निर्धारित करती है। जिसमें सदन के पक्ष-विपक्ष के प्रतिनिधि भी होते हैं। जिसे संसदीय कार्य मंत्री सदन में बताता है। कृषि विधेयकों पर राज्यसभा में 20 सितंबर को चार घंटे की बहस तय थी। इसमें दो विधेयक थे और विपक्ष के संशोधन और प्रस्ताव थे। राज्यसभा के हस्ताक्षर रजिस्टर में दर्ज है कि उस दिन सत्तापक्ष के 110 सदस्य सदन में थे और 70 सदस्य विपक्ष के थे।
मीडिया में भी यह उजागर हुआ है कि विपक्ष के 107 राज्यसभा सदस्यों में से उस दिन 33 अनुपस्थित थे। अगर विपक्ष मत विभाजन के बारे में ईमानदार होता तो वह अपने संख्या बल को सुनिश्चित करता। लेकिन विपक्ष ने उल्टी राह ली। जो लोग उप सभापति पर सवाल खड़े कर रहे हैं और उनके कंधे पर रखकर नरेंद्र मोदी सरकार पर बंदूक चला रहे हैं उन्हें याद रखना चाहिए कि यूपीए के पहले कार्यकाल में आठ विधेयक बिना बहस के 17 मिनट में पारित कराए गए थे। 23 दिसंबर, 2008 को नौ विधेयक 15 मिनट में पास कराए गए। दूसरे कार्यकाल में 20 विधेयक पांच मिनट में लोकसभा से पारित कराए गए। उसी दौरान राज्यसभा में पांच विधेयक पांच मिनट में पारित कराए गए। ऐसे बहुत उदाहरण हैं। सोनिया गांधी की सदस्यता खतरे में थी क्योंकि वे लाभ के पद पर भी थीं। इससे उन्हें बचाने के लिए जो विधेयक आनन-फानन मेें पारित कराया गया उसे राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने वापस कर दिया था।
एक तथ्य जिसे समझने की जरूरत है और जिसमें ही विपक्ष के आरोपों का सही-सटीक जवाब भी है। वह यह कि कृषि विधेयकों और उन पर संशोधनों सहित प्रस्तावों पर इक्ठ्ठे बहस जो चली वह चार घंटे की थी। जिसमें 33 सदस्यों ने हिस्सा लिया। विपक्ष को ज्यादा समय मिले और वह अपना पक्ष पूरी तरह से रख सके इसलिए सत्तापक्ष ने अपना समय भी उन्हें दिया। ऐसा यदा-कदा ही होता है। पहली बार 1963 में ऐसा कई सदस्यों ने डा. राममनोहर लोहिया के लिए लोकसभा में किया था।
विपक्ष के सदस्य बहस में बोले। जैसे ही वोटिंग का समय आया अचानक हंगामा शुरू हो गया। सवाल यह है कि क्या किसी सदस्य या समूह को यह अधिकार है कि वह आसन पर हिंसक हमला करे और सदन को बंदी बना ले? ऐसी घटना को अरूण जेटली ने एक बार ‘विपक्ष की अंधेरगर्दी’ बताया था। उप सभापति ने 20 सितंबर को जिनके-जिनके संशोधन और प्रस्ताव थे उनका नाम पुकारा। आश्चर्य तो उन वरिष्ठ सदस्यों के व्यवहार पर हुआ जो अपने प्रस्ताव पर पुकारे जाने के बावजूद सीट पर नहीं गए। यह सदन की परंपरा और नियमों को ठेंगा दिखाना नहीं है तो क्या है?
जाहिर है कि ऐसा आचरण उस कहावत को चरितार्थ करता है, उल्टे चोर कोतवाल को डाटे। मतदान या जरूरी होने पर मत विभाजन में विपक्ष की रूचि नहीं थी। होती तो वे आसन के सामने जमघट नहीं लगाते। जैसा दृष्य टीवी फुटेज में दिखता है उससे कोई भी समझ सकेगा कि उप सभापति को वहां ‘अभिमन्यु’ की भांति घेरना लक्ष्य था। उप सभापति पर जो-जो आरोप विपक्ष ने लगाएं हैं वे तथ्यों पर टिकते नहीं हैं। यही समय है जब याद किया जाना चाहिए कि संविधान निर्माताओं ने राज्यसभा के बारे में क्या सोचा था? जो सोचा था क्या यह घटना उसके अनुरूप है? महात्मा गांधी का एक प्रसिद्ध वचन है कि ‘अनुषासनहीनता स्वयं में हिंसा का एक रूप है।’ इसे उस घटना से जोड़ कर देखें तो आसन पर हमले करने वाले सदस्यों को गांधीजी आइना दिखा रहे हैं। ऐसे अनेक कथन समय-समय पर संविधान निर्माताओं के हैं जो सदस्यों को आचरण की भाशा देते हैं।
राज्यसभा की भूमिका स्पश्ट है। उसके सदस्यों से कैसी अपेक्षा है और क्या अपेक्षा है, यह समय-समय पर हमारे महापुरूशों ने निषान लगाकर बताया। 1992 में राश्ट्रपति के.आर. नारायन ने कहा कि ‘सदन में अव्यवस्था मध्ययुगीन प्रवृति की द्योतक है।’ 1997 में स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती पर संसद के दोनों सदनों ने संसदीय अनुषासन का संकल्प लिया। 2001 में पुनः उसे दोहराया गया। इस साल जनवरी में कामनवेल्थ स्पीकर्स कांफ्रेंस में यह सबने स्वीकारा कि सदन में अव्यवस्था और हिंसक आचरण से संसदीय लोकतंत्र को सबसे बड़ा खतरा है। क्या विपक्ष इन बातों से अनजान है?