फुटपाथ पर बिकते शर्मा और शुक्ल के ‘सप्रेंम भेंट’

उमेश सिंह

दृश्य-एक। ‘युद्ध में अयोध्या’ व ‘अयोध्या का चश्मदीद’ के लेखक व चर्चित पत्रकार हेमंत शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘तमाशा मेरे आगे’ को ३० दिसंबर २०१४ को लार्ड मोहन सहाय को सादर भेंट किया। प्रेमपूर्ण ढंग से भेंट की गई यह किताब मौके पर मेरे हाथ में है। रविवार को दिल्ली के दरियागंज के फुटपाथ पर सजने वाली पुस्तकों की मंडी में किलों के भाव में बिकने वाली किताबों में यह भी शामिल है।

दृश्य-दो।  केदार सम्मान से अलंकृत कवि दिनेश कुमार शुक्ल ने ‘नया अनहद’ को २२ दिसंबर २०१४ को प्रिय कवि-आलोचक-अनुज श्रीयुत सुशील सिद्धार्थ को सप्रेम भेंट किया। लेकिन तमाशा मेरे आगे की तरह ही यह भी किताब हमे किलों के भाव वाले पुस्तकों के बाजार में मिली। गौरतलब है कि दिनेश कुमार शुक्ल ख्यातिलब्ध कवि है जिनकी सृजनात्मक  उर्वरता के प्रतीक ‘समय चक्र’, ‘कभी तो खुले कपाट’, ‘नया अनहद’, ‘कथा कहो कविता’, ‘ललमुनिया की दुनिया’, ‘आखर अरथ’ और ‘समुद्र में नदी’ आदि है। इन्होंने पाब्लो नेरुदा कीर कविताओं का काव्यानुदवाद भी किया है।
– ये दो दृश्य ऐसे है जो कि सवाल पर सवाल खड़ा कर रहे है। क्या यह लेखन को पहचानने के अवमूल्यन का दौर है? लोगों के पास किताबे है और उसे भेंट भी कर रहे है लेकिन व्यस्तता इस कदर बढ़ गई है कि पुस्तकों के पढऩे का शायद समय ही नहीं है? बदलती जीवन शैली में फुर्सत से पढऩे का वक्त हाथ से फिसल तो नहीं गया है? पढऩे-पढ़ाने और साहित्य के प्रति जो रुचि थी, जो आकर्षण था, जो रचनात्मक माहौल था, अब धीरे-धीरे खत्म तो नहीं हो रही है? कहीं यह घनीभूत संवेदनाओं के क्षरण का प्रतीक तो नहीं है? एक दूसरे के प्रति प्रेम रहता है, समर्पण रहता है, तभी लेखक अपनी पुस्तकों को भेंट करता है। यहां बाजार का समीकरण काम नहीं करता है। यहां तो प्रेम का रंग चढ़ होता है। यह भी हो सकता है कि ये किताबे जब भेंट की गई हो तब प्रेम का चटक रंग एक दूसरे के ऊपर चढ़ा रहा हो और बाद में किसी कारण बस उतर गया हो और किलों के भाव में यही प्रेम फुटपाथ पर आ गया। फिलहाल कुछ भी हो सकता है। इन्हीं दोनों दृश्य को हम दूसरे तरीके से भी देख सकते है, समझ सकते है। जिसे किताब भेंट की गई, उसकी अगली जेनरेशन के पास साहित्य की समझ न रही है।
यह भी हो सकता है कि साहित्य के शौक  के कारण घर में किताबे ज्यादा हो गई हो और परिजनों के लिए घर छोटा पड़ गया हो। इसलिए किताबों को कबाड़ी के हाथो बेच दिया गया हो। यह भी संभव है कि लेखकों में इगो की टकराहट भी खूब रहती है। जब भेंट किया गया हो, उस दौर के बाद किसी मुद्दे पर दोनों का एक दूसरे से इगो टकरा गया हो। एक दूजे के प्रति प्रेम में ढलान आ जाने पर भी ऐसा हो सकता है। फिलहाल हम जैसे लोगों का भी एक बड़ा वर्ग है जो पढऩा तो चाहता है लेकिन उसका जेब इतना भारी नहीं है कि वह अपने पढऩे के शौक को पूरा क र सके। यदि ऐसा नहीं होता तो फुटपाथ पर सजी दुकानों पर बेतरतीब ढंग से रखी गई किताबों में अपनी रुचि की पुस्तकों को खोजने में सुबह से दोपहर नहीं हो जाता। जब भी दिल्ली में रहता हूंं, और यदि मेरी किस्मत से उसी बीच रविवार पड़ गया तो फिर हम इस अवसर का फायदा उठाने से नहीं चूकते है। इसी का सुखद परिणाम है कि दिल्ली में ही मेरी आलमारी में दो रैक किताबों से भर गई है और सस्ती किताबों के खरीदने की गति यूं ही जारी रही तो दूसरी आलमारी का भी जुगत करना पड़ेगा।
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– केदार सम्मान से २०१७ में अलंकृत कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने कहा कि जो लोग हिंदी की रोटी खा रहे है। संस्थाओं के जरिए हिंदी के उन्नययन के लिए मोटी रकम ले रहे है, दरअसल हिंदी के लिए कुछ खास काम नहीं कर रहे है। चार दशक पहले का माहौल अच्छा था। लोग बैठकी लगाते थे, कविताओं पर चर्चा करते है लेकिन नई पीढ़ी में यह रुचि धीरे-धीरे खत्म हो गई। इसी का नतीजा है कि अब साहित्य के सौ रुपए किलों के बिकने का बोर्ड भी दिखने लगा है। जब पढऩे का माहौल ही नहीं रहा तो आखिर कोई अपने घरों में किताब क्यो रखेगा। एक दौर वह भी था जब कि घर में बनाई गई लाइब्रेरी का घर की आत्मा तक कहा गया लेकिन अब तो बहुत मुश्किल से ही कुछ घरों में ऐसी आत्मा निवास कर रही होगी।
भारत भूषण सम्मान से विभूषित व डा. राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय के साकेत महाविद्यालय के हिंदी के शिक्षक डा. अनिल सिंह ने कहा कि यह भी हो सकता है कि जिसे भेंट किया गया हो, वह नहीं रह गया हो और नीलाम हो गया। भेंट किया हुआ कभी कभी इनइंपारटेंट हो जाता है। सुशील दिल्ली में रहते थे। उनकी डेथ हो गई। बच्चों की रुचि नहीं रही होगी या घर में जगह सीमित रही होगी। ऐसा भी हो सकता है कि ये किताबे गलती से चली गई हो। यह कोई अवमूल्यन की बात नहीं है। ऐसा होता रहता है। मुझे दिल्ली के उसी दरियागंज मार्केट में जर्मन कवि रेनर मारिया रिल्के का एक कविता संग्रह मिला जिसे उन्होंने वर्ष १९५७ में अपनी ‘जिप्सी डार्लिंग’ को भेंट किया था। अब तो वह जिप्सी डार्लिंग भी बुजुर्ग हो गई होगी। । दरअसल समय चीजों का महत्व कम कर देता है। यदि ऐसा नहीं होता तो दूसरे का उन किताबों को पढऩे का मौका कैसे मिलता? पहले तो किराए पर किताबे मिलती थी।
–  आचार्य विश्वनाथ पाठक शोध संस्थान के निदेशक साहित्यकार डा. विन्ध्यमणि ने कहा कि यह लेखन को पहचानने के अवमूल्यन का दौर है इसीलिए  उसने किताबों को कबाड़ी के हाथो बेच दिया। बदलती जीवन शैली में पढऩे का वक्त लोगों के पास कम हो गया है लेकिन कवि, लेखक ज्यादा हो गए है और किताबे भी ज्यादा आने लगी है। दो पीढिय़ों में स्वभावगत अंतर भी रहता है। हो सकता है कि कवि की अगली पीढ़ी का झुकाव पिता से इतर हो। आखिर वह उन किताबों का क्या करेगा?
इस मामले में डा. नामवर सिंह ने अच्छा कदम उठाया। उन्होंने अपनी सभी किताबे इंदिरा गांधी राष्टीय कला केंद्र को भेंट कर दी। आखिर वे किताबे सुरक्षित तो रहेंगी। कबाड़ी के हाथ तो नहीं जाएगी। लेकिन यह सवाल यह भी है कि पुस्तकालयों में जाकर पढऩे वालों की तादात भी तो कम हो गई है।

1 thought on “फुटपाथ पर बिकते शर्मा और शुक्ल के ‘सप्रेंम भेंट’

  1. आदरनिय
    देश मे कितने विकास खंड मे पुस्तकालय है ।गाँवो मे कागज मे पुस्तकालय है ।
    पढनेमे लोगो की रुचि नही रही ।
    सरकारे लोगो को पढाना नही चाहती ।वर्तमान समय मे शिक्षा मात्र नौकरी के लिए लोग कर रहे है ।
    शिक्षक की एवं शिक्षा का बाजारीकरण सबसे ज्यादा प्रभाव डाल रहा है ।

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