“विश्व थ्येटर दिवस” पर आज (27 मार्च 2023) मेरा मस्तिष्क कुलांचें भर रहा है। कब वह मनोरम दौर, कम से कम वह शुभ पल, आएगा जब लखनऊ में हिंदी नाटकों के दर्शक अग्रिम बुकिंग कराया करेंगे। तरक्की तब दिखेगी जब उसके टिकट काला बाजार में बिकेंगे। जैसे दादर-मुंबई में मराठी-गुजराती के दर्शकों के साथ होता है। फोकटिया दर्शक हतोत्साहित होंगे। सभी दैनिकों में होड़ लगेगी, उम्दा समीक्षा लिखने के लिए। जैसे फिल्म के लिए होती है। फिर आम दर्शक कई दिनों घरेलू चौपालों में पात्रों के अभिनय की चर्चा करता रहेगा। कभी मार्केट में कहीं कोई मंचीय पात्र दिखा तो भीड़ में फुसफुसाहट होगी : “अरे यह तो वही हैं”। कुछ ऑटोग्राफ के लिए भी लपकेंगे। जैसे मैंने किया था एक बार स्व. केपी सक्सेना के साथ। हालांकि बाद में मेरे वे हमराही बन गए थे। उनका लेख था : “मैं आसनसोल गया था।” गजब का व्यंग था। मेरा सपना है कि राजनेता भी ऐसे ही नए युग में इन नाट्यकारों का सार्वजनिक मंच पर सम्मान करेंगे। चाय पर चुनावी चर्चा में उन्हे शामिल कराएंगे। जनसमर्थन दिलवाने हेतु उनसे वोट मांगेंगे। तब चेन्नई, मुंबई, कोलकाता के सिने निर्माता अवध आकर इन कलाकारों को खोजेंगे। और फिर “लगान” (लखनवी) सरीखी फिल्में ज्यादा बनेंगी। कारवां उनका लंबाता जाएगा।
चूंकि मानव हृतंत्री तो आशा से ही निनादित होती हैं। अतः यह सब हकीकी हो सकती हैं। पश्चिम-दक्षिण भारत (मेरी मातृभाषा तेलुगू क्षेत्र मिलाकर) में ऐसा हो रहा है। जमीन पर मंच के तारे दमकते है। अवतरित रहे हैं। बस शर्त यही है कि हिंदी थ्येटर पादरीनुमा नैतिक और उपदेशात्मक न हों। मार्क्सवादी थ्येटर इसीलिए कलात्मकता से कटा रहा। वे सोवियत सपना बुनते थे जो मिखाइल गोर्बाचोव ने तार तार कर डाला।
आधुनिक नाटककारों में सफदर हाशमी नायाब रहें। उनकी “मशीन” अलग किस्म की थी। हम श्रमजीवियों और बुद्धिकर्मियों के लिए मनभावन थी। इंदिरा गांधी की एमर्जेंसी पर उनका कटाक्ष यादगार रहेगा। क्रूर आलोचकों ने उनकी हत्या कर दी। विजयन देथा की राजस्थानी लोकगाथा की रूह को हबीब तनवीर ने जिस्म से दिया था। नाम दिया था “चरनदास चोर”। दस्यु भी ईमानदार और पेशेवर कौशल से संपन्न था। लेखक-निर्देशक-अभिनेता उत्पल दत्त की तो सानी नहीं। उनकी “मानुशेर अधिकार” तो विह्वल कर डालता हैं। कई बार बंगाल की कांग्रेस सरकार ने उन्हें सलाखों के पीछे डाल दिया। पाबंदी तो भयभीत शासकों ने विजय तेंदुलकर की “सखाराम बाइंडर” पर भी ठोक दी थी। जन-विरोध के बाद हटाना पड़ा। तमिल के स्व. चो रामास्वामी भुलाए नहीं जा सकते। द्रविड़ कज़गम पर उनके नाटकों द्वारा हमलों के लिए।
हिंदी क्षेत्रों में इप्टा (25 मई 1942) को विख्यात रहा है। क्यों न हो ? इसे वैज्ञानिक डॉ होमी जहांगीर भाभा ने प्रेरित किया था। वे स्वयं रोमां रोलां की “पीपुल्स थ्येटर” की अवधारणा से अनुप्राणित हुए थे। ब्रिटिश साम्राज्य के समय बंगाल अकाल में मरे लाखों शवों से द्रवित होकर विनय राय के कल्चरल स्क्वेड ने “भूखा है बंगाल” रचा था। हालांकि बाद में महासचिव पीसी जोशी खुद उनकी कम्युनिस्ट पार्टी का सांस्कृतिक मतलब इप्टा से साधने लगे थे। राजनीतिक संदेशा वाजिब हो, पर पार्टी का ठप्पा लगने से विश्वसनीयता क्षीण हो जाती है।
राष्ट्रीय रंगमंच के लिए लखनऊ का योगदान अप्रतिम रहा। चंद नाम हैं जैसे सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ, जितेंद्र मित्तल, प्रभात बोस, स्व उर्मिल थपलियाल आदि। इन सब का योगदान विशाल है। इसी क्रम में उल्लेखनीय हैं वे लोग भी हैं जो अन्य पेशों में रहे मगर रंगमंच को अनुष्ठान मानकर जुड़े रहे। पदमश्री डॉ राज बिसारिया (अंग्रेजी साहित्य में मेरे प्राचार्य थे) जो थ्येटर के विशिष्ट गुरु और भारतेंदु अकादमी के संस्थापक रहे। वैज्ञानिक डॉ अनिल रस्तोगी के “दर्पण” का योगदान तो सदा काबिले-तारीफ रहेगा। डॉ रस्तोगी ने बताया कि : “लखनऊ का रंगमंच पिछले एक वर्ष बहुत सक्रिय रहा। अब उसमें नए-नए प्रयोग होने लगे हैं। “दर्पण” संस्थान ने कुछ पुरानी प्रस्तुतियों के साथ उर्मिल थपलियाल के निर्देशन में ब्रेख्त, हेमेंद्र, कामता नाथ आदि की कृतियों को मंचित किया।” दर्पण के ही उपाध्यक्ष हैं डॉ एके सिंह जो मशहूर प्लास्टिक सर्जन हैं। मेडिकल विश्वविद्यालय के कुलपति भी। एक दिलचस्प जिक्र के तौर पर वरिष्ठ वकील इंद्र भूषण (आईबी) सिंह द्वारा पेश नाटिका “सांग” जरूरी है। उच्च न्यायालय में जज कैसे नामित होते हैं की प्रक्रिया पर यह तीव्र कटाक्ष हैं। अर्थात इस अवध नगरी का मंच हेतु योगदान वृहद है जिस पूरा ग्रंथ लिखा जा सकता है।
अब मुंबई, अहमदाबाद, बड़ौदा और हैदराबाद में थ्येटर पर कुछ मेरी अपनी की गई रिपोर्टिंग का संदर्भ भी दे दूं। यह आवश्यक है ताकि सनद रहे। साक्ष्य और सबूत प्रस्तुत कर दूं कि आखिर एक मुझ जैसे बुद्धिकर्मी, श्रमजीवी की थ्येटर पर टिप्पणी हेतु अर्हता क्या है ? बात सितंबर 1958 की है लखनऊ विश्वविद्यालय का छात्र यूनियन की टीम प्रत्येक वर्ष नैनीताल शरदोत्सव नाट्य समारोह में शिरकत करती थी। उस वर्ष (नजरबाग में मेरी पड़ोसी) प्रोफ़ेसर केसी श्रीवास्तव अपनी टीम को नहीं ले जा पाये। यूनियन में हमारी समाजवादी युवक सभा के प्रत्याशी स्व विनयचन्द्र मिश्रा अध्यक्ष चुने गए थे। (वे भारतीय बार काउंसिल के राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा मुलायम सिंह सरकार के महाधिवक्ता भी रहे।) मिश्रजी ने मुझे नैनीताल नाटक प्रतियोगिता में टीम ले जाने का निर्देश दिया। हमारी टीम को सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार मिला। तभी से नीरस राजनीति शास्त्र का छात्र, मैं सरसता की ओर आकृष्ट हुआ। लखनऊ आंध्र एसोसिएशन के उत्सवों पर हमारी प्रस्तुतियां होती रहीं।
मगर रंगमंच का विशद ज्ञान बम्बई (मुंबई) में मिला, जब अक्तूबर 1962 से 1968 तक वहां “टाइम्स ऑफ इंडिया” में रहा। फिर इसी दैनिक के संवाददाता बनकर अहमदाबाद, बड़ौदा और हैदराबाद में गुजराती तथा तेलुगु मंच की जानकारी पायी। केवल समीक्षा और लेखन की। पत्रकार को अभिनय कहां आ पाता हैं ?
मुंबई में रंगमंच तो अद्भुत शिखर पर हैं। वहां भेंट हुई थी सत्यदेव दुबे से। वह दौर उनका कशमकश और उथल पुथल वाला था। शुरुआत थी। तब तक पद्म भूषण और नाटक अकादमी पुरस्कार उन्हे मिला नहीं था। दुबे ने ज्यां पाल सार्त्र की रचना “नो एग्जिट” (बंद दरवाजे) का मंथन किया था। उसकी समीक्षा मैंने लिखी थी। “टाइम्स ऑफ इंडिया” में छपी। चर्चित हुई। दुबे जी को पसंद भी आई। यह करीब अक्टूबर 1966 की बात है जब मैं एक रिपोर्टर था। फिर हमारी हिंदी सहयोगी पत्रिका “धर्मयंग” के संपादक डॉ धर्मवीर भारती के “अंधायुग” के दुबे जी ने मंचन किया। बड़ी ख्याति पाई। उसी कालखंड में इस्मत चुगताई, ख्वाजा अहमद अब्बास, फणीश्वरनाथ रेणु आदि से भी मेरा साबिका पड़ा। कृपा थी हमारे सीनियर साथी मोहम्मद शमीम (अमीनाबाद, लखनऊ) की जिन्होंने मुझे “फिल्मफेयर” में लिखना सिखाया। उन्हीं के मार्फत फिल्म और थ्येटर के शीर्ष सितारों से निजी भेंट भी होती रही। तुलनात्मक रूप से मैंने पाया कि मेरी मातृभाषा तेलुगु को थ्येटर में प्राप्त संपन्नता का बुनियादी कारण यह रहा कि हैदराबाद तथा चेन्नई के आंध्र फिल्मीजनों ने अपने रंगमंच वालों की खूब वित्तीय मदद की। अतः वे विपन्न नहीं रहे।
बस यही त्रासदी है लखनऊ में निमंत्रण-कार्ड वाले अर्थशास्त्र के कारण। केवल इसी पर थ्येटर कैसे पल सकता है ? यदाकदा चंदा और अनुदान मिले तो दीगर बात है। सभागार का भाड़ा कैसे निकले ? हिंदी में नाटय साहित्य विपुल है। मगर सुनियोजित रीति से मंचन प्रोत्साहित नहीं हो पाया।
विडंबना रही कि आर्यावर्त (उत्तर दिशा) में ही भरतमुनि द्वारा नाट्यशास्त्र रचित हुआ। फिर विंध्य के दक्षिण में व्यापा। पहला नाटक “लक्ष्मी स्वयंवर” इंद्र की सभा (स्वर्ग) में मंचित हुआ था। नाट्यशास्त्र को पंचम वेद में कहा गया है। प्रथम वेद (ब्रह्मा द्वारा सृजित) ऋग्वेद से शब्द लिए गए, सामवेद से गीत, यजुर्वेद से अभिनय और अभिव्यक्ति तथा अथर्वेद से भावनाएं आदि। तो इस पांचवें वेद के प्रति पर्याप्त ध्यान देने और प्रसार करने का संकल्प ही आज के दिन नाट्यशास्त्रियों को लेना होगा।
[उपरोक्त लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. संसथान का सहमत होना आवश्यक नही है]
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