भारत की जंगे आजादी के इतिहास में (10 मई 1857 के बाद) सर्वप्रथम अंग्रेजी सेना को हिंदुस्तानी सैनिकों ने कहां परास्त किया था ? शायद ही कोई तत्काल जवाब दे पाए। कारण ? यह मुक्ति संघर्ष आठ दशक पहले मुंबई तट से पांच हजार किलोमीटर दूर, हिंद महासागर के पूरब में हुआ था। तब सिख, पंजाबी मुसलमान और केरल के ईसाई योद्धाओं ने आजादी घोषित कर दी थी। ब्रिटिश अफसर कप्तान एल. डब्ल्यू टी विलियम और उनके गुर्गे सूबेदार मुजफ्फर खान का वध कर दिया था। बागियों में रहे थे हवलदार मेहर अली, नायक गुलाम कादिर और केरल के रेडियो ऑपरेटर मैथ्यू इत्यादि। इन सब अभियुक्तों पर ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम ने 13 अगस्त 1947 के दिन मौत की तिथि निश्चित कर दी थी। हालांकि बाद में वह आजीवन कारावास में तब्दील हो गई थी। फिर रिहा हो गए।
आज (31 मार्च 2023) इस द्वीप के स्वतंत्रता संग्राम की अस्सीवीं जयंती है। विषय यही है कि इस किस्म की भी जंग कभी हुई थी ? भारत छोड़ो (9 अगस्त 1942), नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा मोइरंग (मणिपुर) को मुक्त (14 अप्रैल 1944) कराना, और मुंबई का नौसैनिक विद्रोह (22 फरवरी 1946) के कई महीनों पूर्व का यह प्रसंग है। इन फांसी के सजायाफ्ता सैनिकों की भाग्यावस्था के फल स्वरूप भारत ऐन वक्त पर आजाद हो गया। अपने ही नागरिकों को ब्रिटिश सेना से लड़ने पर पाकिस्तान और भारत की सरकारें बचाने का साहस नहीं जुटा पाईं, हालांकि अंग्रेजभक्त मोहम्मद अली जिन्ना स्वाभाविक है कि लाहौर के सहधर्मी हवालदार मेहर अली और नायक गुलाम कादिर को फांसी पर लटकते कैसे देख पाते ? उधर जवाहरलाल नेहरू ने भी इन सैनिकों की परवाह नहीं की क्योंकि वे सब आजाद हिंद फौज के रेडियो पर उनके हरीफ़ सुभाष बोस के राष्ट्रवादी उद्बोधन से प्रेरित हुए थे।
देशभक्तों के इस जनसंघर्ष के घटना स्थल का नाम है क्रिसमस द्वीप। भूभाग केवल सवा सौ वर्ग किलोमीटर (बाराबंकी जनपद के बराबर) है। मुंबई सागरतट से पांच हजार किलोमीटर दूर पश्चिम में। हिंदेशियाई शहर जावा से साढ़े तीन सौ किलोमीटर दूरी पर। यहां की आजादी का रण रोमांचकारी है। हालांकि भारत के अमृत महोत्सव में किसी का भी ध्यान इस द्वीप-राष्ट्र पर नहीं गया। इतिहासवेत्ता मियां मोहम्मद इरफान हबीब और उनकी सखा रोमिला थापर ने इसे महत्व नहीं दिया क्योंकि सिख, ईसाई और मुसलमानों ने एकजुट होकर ब्रिटिश कमांडर को मारा और हराया था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तो अहिंसावादी थी। सशस्त्र विद्रोह को नकारना उसका चलन रहा। अतः अभी तक भारत के इतिहास के पृष्ठों में यह जद्दोजहद शामिल नहीं हो पाया। केवल सरसरी तौर पर उल्लेख मात्र हुआ, थोड़ा बहुत।
इस ब्रिटिश गुलाम देश “क्रिसमस द्वीप” का इतिहास दिलचस्प है। ऐतिहासिक रूप से, एशियाई, आस्ट्रेलियाई, चीनी, मलय, और भारतीय मूल की जनसंख्या वाला यह द्वीप इस्लाम और बौद्ध धर्म के अनुयायियों का हैं। सर्वप्रथम यूरोपीय 1615 में यहां प्रवेश करने वाले थॉमस के रिचर्ड रोव थे। इसका नाम बाद में क्रिसमस के दिन (25 दिसंबर) 1643 को कैप्टन विलियम माइनर्स द्वारा रखा गया था। द्वीप का अधिकांश (63 प्रतिशत) राष्ट्रीय उद्यान में शामिल है। मानसूनी वन के कई क्षेत्र हैं। यहां मूल रूप से फॉस्फेट (लवण) का खनन किया जाता रहा। कप्तान विलियम मायनोर्स की “रॉयल मैरी” नामक एक अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी का पोत, जब क्रिसमस दिवस पर रवाना हुआ था, तो 1643 में इस द्वीप का नाम ही वैसा रख दिया गया था।
यहां यह गौरतलब विषय यह है कि जब परतंत्र एशियाई राष्ट्रों का प्रथम सम्मेलन नई दिल्ली में (23 मार्च से 2 अप्रैल 1947 तक) को नामित प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने आयोजित किया था तो क्रिसमस द्वीप के समीपस्थ पड़ोसी इंडोनेशिया के स्वाधीनता सेनानी डॉ अहमद सुकर्ण को उन्होंने आमंत्रित किया था। छद्म रूप से उन्हें दिल्ली लाने के लिए युवा पायलट विजयानंद पटनायक (बाद में उड़ीसा के मुख्यमंत्री बीजू बाबू) को भेजा था। अर्थात हिंदेशिया की मुक्ति संघर्ष में नेहरू ने इतना साहस तो दिखाया था, मगर चंद किलोमीटर दूर इस ब्रिटिश गुलाम देश क्रिसमस द्वीप की भी मदद भी तो कर सकते थे। क्यों नहीं किया ? बर्तानिया से याराना ? जबकि वहां भारतीय काफी संख्या में वास करते रहे।
यदि हिरोशिमा पर अणु बम न गिरता और जापान आत्मसमर्पण न करता तो एशिया में कई ब्रिटिश उपनिवेश स्वतः मुक्त हो जाते, भारत को भी जोड़कर। त्रस्त अंग्रेज बिस्तर समेटने लगे थे। इन दास द्वीपों पर अमरीका में बसे मलयाली-भाषी विद्युत इंजीनियर उल्लात्ती मनमदन ने अपनी इतिहास-विषयक प्रकरणों में विस्तार से उल्लेख किया है। वे अमेरिका में बसे लेखक हैं। नेताजी सुभाष बोस के साथी जनरल मोहन सिंह तथा कुमारन नायर की गाथा भी इसीसे जुड़ी हुई है। जब जापानी सेना से अंडमान द्वीपों को आजाद कराया था तभी क्रिसमस द्वीप की स्वतंत्रता भी बड़ी समीप लग रही थी। पर ब्रिटेन की विश्व युद्ध में जीत से तनिक देरी हो गई।
इस मुक्ति युद्ध का यादगार दिन था 10 मार्च 1942 जब ब्रिटिश फौजी अफसर एक जन्मदिन उत्सव में मजा ले रहे थे। तब बागियों के अगुआ मियां मीर अली और गुलाम कादिर ने शस्त्रागार पर कब्जा कर लिया था। उनके साथ रहे नासिर हुसैन, मीर अली, अल्लाहदत्त, मोहम्मद अशरफ, अब्दुल अजीज, शेर मोहम्मद, नियाज अली इत्यादि। उनके साथ वहां सिख सैनिक भी जुड़ गए थे। यह सारी खबर उस वक्त के सिंगापुर दैनिक “स्ट्रेट्स टाइम्स” (सितंबर 1947) में प्रकाशित हुई थी। इन सारे कैदियों को 18 सितंबर 1947 को फांसी दी जाने वाली थी पर तब तक भारत आजाद हो गया था। इन क्रांतिकारियों में आधे पाकिस्तान चले गए क्योंकि उनका गांव पश्चिमी पंजाब में थे। उसी वक्त भारत के लाल किले में आजाद हिंद फौज के नेताओं पर “देशद्रोह” का मुकदमा चल रहा था। नारा लगता था : “सहगल, ढिल्लन, शहनवाज ! इंकलाब जिंदाबाद” !! हालांकि क्रिसमस द्वीप के इन बागियों को अंग्रेजों की पराजय के बावजूद फांसी मिली थी। मगर सब बच गए। आज इस द्वीप से इंग्लैंड लाल केकड़े का स्वाद चखने आयात करता है। फास्फेट को भी।
[उपरोक्त लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं]