देहरादून से एक विद्यार्थी का हिन्दी में लिखा पत्र मिला है। उसका सार इस प्रकार हैःहमारे कालेज के छात्रावास में अब तक भंगी हमारी जूठन खाते रहे हैं। परंतु जब से जागृति हुई है हमने यह रिवाज बंद कर दिया है और हम उन्हें स्वच्छ चतानियां और दाल देते हैं। इससे हरिजन असंतुष्ट हैं। जूठन में उन्हें कुछ घी और व्यंजन मिल जाते थे। विद्यार्थी ये चीजें हरिजनों के लिए अलग नहीं रख सकते थे। और यह कठिनाई भी है कि हमने जो नया रिवाज अपनाया है उस पर दृढ़ रह सकते हैं, मगर हरिजन जाति-भोजों वगैरह की जूठन लेना जारी रखेंगे। अब क्या किया जाए? और जब आप इस प्रश्न का उत्तर दें तो साथ ही मैं आपसे यह भी जानना चाहूंगा कि हमारी छुट्टियां जो जल्दी ही आनेवाली हैं, उनका हम उत्तम उपयोग कैसे करें?
पत्र-लेखक ने जो कठिनाई बताई है, वह वास्तविक है। हरिजनों को जूठन की ऐसी आदत पड़ गई है कि वे न केवल उनमें कोई असम्मान नहीं मानते, बल्कि उसकी आशा लगाए रहते हैं। उन्हें जूठन न मिले तो इसे वे निश्चित हानि समझेंगे। परंतु इस दुःखद सत्य से यही प्रकट होता है कि हरिजन और सवर्ण हिन्दू दोनों का कितना पतन हो गया है। विद्यार्थियों को इस बात की चिंता करने की जरूरत नहीं कि दूसरे स्थनों पर क्या होता है। उनके लिए पहली चीज सही रास्ते पर होना है और मैं उन्हें सुझाव दूंगा कि उनके लिए जो खाना आम तौर पर बनता है, उसमें से एक जुदा भाग वे निश्चयपूर्वक मेहतरों के लिए अलग रख दिया करें।
देहरादून के विद्यार्थियों ने खर्च का प्रश्न उठाया है। मुझे भारत-भर के छात्रावास जीवन का कुछ ज्ञान है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि विद्यार्थी आम तौर पर व्यंजनों और विलास की वस्तुओं पर, जितना चाहिए उससे कहीं अधिक, व्यय करते हैं। मुझे यह भी मालूम है कि बहुत से विद्यार्थी अपनी थाली में, बहुत सी जूठन न छोड़ना, शान के खिलाफ समझते हैं। मेरा उनसे यह कहना है कि अपनी थाली में कुछ भी जूठन छोड़ना ही शान के खिलाफ बात है और गरीबों की अवहेलना का चिन्ह है। किसी को भी, खास तौर पर विद्यार्थियों को, यह हक नहीं है कि वे जितना आसानी से खाया जा सके, उससे ज्यादा थाली में लें। एक विद्यार्थी का यह काम नहीं कि वह व्यंजनों और विलास की वस्तुओं की संख्या बढ़ाए। विद्यार्थी जीवन हर बात में संयम का अभ्यास करने के लिए है और यदि वे संयम का तरीका अपनाएं और अपनी थालियों में कुछ जूठन न छोड़ने की स्वच्छ आदत डाल लें, तो वे देखेंगे कि अपने लिए बने हुए मामूली खाने में से, अपने मेहतरों के लिए उदारतापूर्वक एक भाग रख देने के बावजूद, उनके खर्च में कुछ बचत ही हो जाएंगी।
और फिर इतना करने के बाद मैं उनसे आशा रखूंगा कि वे हरिजनों के साथ अपने सगे भाइयों जैसा बरताब रखें, उनसे प्रेमपूर्वक बोलें और बताएं कि दूसरों की थाली की जूठन खाने की गंदी आदत छोड़ देना और अपने जीवन में दूसरे सुधार करना, उनके लिए क्यों जरूरी है। रही बात विद्यार्थियों के, छुट्टियों का उपयोग करने की, सो यदि वे उत्साह से काम हाथ में लें तो बेशक बहुत से काम कर सकते हैं। उनमें से कुछ मैं गिना देता हूंः
(1) छुट्टियों तक के लिए छोटा-सा सुकल्पित शिक्षा क्रम बनाकर रात और दिन की पाठशालाएं चलाना।
(2) हरिजन मुहल्लों में जाकर उनकी सफाई करना और हरिजन लोग मदद दें तो ले लेना।
(3) हरिजन बालकों को सैर के लिए ले जाना, उन्हें अपने गांवों के नजदीक के दृष्य दिखाना, उन्हें प्रकृति का अध्ययन करना सिखाना, आस पास की चीजों में आत तौर पर उनकी दिलचस्पी पैदा करना और बातों ही बातों में, उन्हें भूगोल इतिहास की काम जलाऊ जानकारी देना।
(4) उन्हें ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ की सरल कथाएं पढ़कर सुनाना।
(5) सरल भजन सिखाना।
(6) हरिजन लड़कों के शरीर पर जहां भी मैल पाया जाए, वह सब साफ कर देना और बड़ों तथा बच्चों, दोनों को स्वास्थ्य विज्ञान के सरल पाठ सिखाना।
(7) चुने हुए क्षेत्रों में हरिजनों की जनगणना करना और उनकी स्थिति की विस्तृत जानकारी इकट्ठी करना।
(8) बीमार हरिजनों को डाक्टरी सहायता पहुंचाना।
हरिजनों में क्या-क्या किया जा सकता है, उसका यह एक नमूना है। यह जल्दी-जल्दी में बनाई हुई सूची है, परंतु मुझे संदेह नहीं कि विचारशील विद्यार्थी इसमें बहुत सी बातें बढ़ा लेगा।
मैंने अभी तक अपना ध्यान हरिजनों की सेवा तक सीमित रखा है, परंतु सवर्णों की भी एक सेवा करनी है, जो कम जरूरी नहीं है। सवर्ण कैसे भी हों, इसकी परवाह न करके विद्यार्थी अक्सर सत्यंत कोमल ढंग से उनमें अस्पृश्यता निवारण का संदेश पहुंचा सकते हैं। इतना अधिक अज्ञान फैला हुआ है जिसे प्रामाणिक सत्साहित्य विवेकपूर्वक वितरित करके आसानी से दूर किया जा सकता है। विद्यार्थी अछूतपन मिटाने और न मिटाने वालों की सूची तैयार कर सकते हैं और उसे तैयार करते समय वे ऐसे कुंओं, पाठशालाओं, ताल-तलैयों और मंदिरों को दर्ज करा सकते हैं, जो हरिजनों के लिए खुले हैं और जो नहीं खुले हैं।
यदि ये सब काम वे ढंग से और लगातार करेंगे, तो उन्हें आश्चर्यजनक परिणाम दिखाई देंगे। हर एक विद्यार्थी को एक नोटबुक रखनी चाहिए, जिसमें उसे अपना काम ब्योरेवार दर्ज रना चाहिए। छुट्टियों के अंत में अपने काम की एक सर्वग्राही किंतु संक्षिप्त रिपोर्ट तैयार करके, प्रांतीय ‘हरिजन सेवक संघ’ को, भेजी जा सकती है। यहां दिए गए सुझावों में से कुछ या तमाम को दूसरे विद्यार्थी ग्रहण करें या न करें, मैं अपने पत्र लेखक से यही आशा रखूंगा कि जो कुछ उसने और उसके साथियों ने किया हो उसकी रिपोर्ट मुझे भेज दें।
(अंग्रेजी से)
हरिजन, 1.4.1933