हम अन्यत्र यह उल्लेख कर चुके हैं कि किस तरह भारत सरकार की गलत आयात नीति के कारण कृषि के क्षेत्र में उत्पादन तथा उत्पादकों पर प्रतिकूल परिणाम होता है। यहां यह उल्लेखनीय है कि यूरोप के उन देशों में, जो यूरोपीय आर्थिक समुदाय के अंतर्गत हैं, कृषि उपज के लिए संरक्षण व्यवस्था का विकास किया गया है। एक ओर तो इस व्यवस्था के अंतर्गत संपूर्ण यूरोप में कृषि के माल की कीमतों में समानता लाई जाती है, दूसरी ओर यदि कुछ सरकारें अन्य देशों से सस्ते दर पर कृषि उपज का आयात करती हैं तो उनके ऊपर यह बंधन लगाया जाता है कि इसके कारण निर्माण होने वाला अंतर वे सरकारें किसानों को सहायता राशि के रूप में दें। यूरोपीय आर्थिक समुदाय के बजट में खर्चे का 75 प्रतिशत भाग किसानों को दी जाने वाली सहायता राशि के लिए खर्च होता है।
यह दुःख का विषय है कि अन्य नीतियों के समान हमारी आयात-निर्यात की नीतियां भी भारत की नहीं, वरन् विदेशियों की सुविधा की दृष्टि से निश्चित की जाती हैं। हमारे दूतावास अपने देश के वाणिज्य की दृष्टि से सक्रिय तथा सतर्क नहीं रहते। राज्य व्यापार निगम भी सतर्कता का परिचय नहीं देता। बीच में कई देशों से यह सुझाव आया था कि आपसी व्यापार की दृष्टि से तीसरे विश्व के देशों में अपना अलग गुट बनाना चाहिए। एक दूसरे की आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहना चाहिए। एक दूसरे को तकनीकी सहायता करनी चाहिए और इस तरह तीसरे विश्व को यहां तक संभव हो वहां तक आर्थिक दृष्टि से स्वयंपूर्ण बनाना चाहिए जिससे उन्हें विकसित पश्चिमात्य देशों पर अवलंबित न रहना पड़े और तीसरे विश्व के देशो की अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप करने का उन्हें अवसर न मिले। किंतु इस विचार पर किसी ने भी गंभीरतापूर्वक ध्यान नहीं दिया।
जहां तक भारत का संबंध है, यह स्पष्ट है कि यहां अपने आर्थिक साम्राज्यवाद के अधिकार क्षेत्र निर्माण करने का प्रयास विदेशी सरमायेदार कर रहे हैं और भारत सरकार किन्हीं कारणों से उनको पूरी सहायता प्रदान कर रही है। इसी के फलस्वरूप हमारी सर्वसाधारण तथा आयात-निर्यात नीतियां भी भारत के लिए प्रतिकूल और विदेशियों के लिए अनुकूल बनती जा रही हैं। भारत के किसान को उसके माल की कीमत एक रुपया भी अधिक देने के लिए जो सरकार तैयार नहीं है वही सरकार अधिक कीमत देकर उसी भाव में यहां बेचने की खुली छूट विदेशी किसानों को देती है। इस तरह के कई उदाहरण अन्यत्र दिए हैं। विदेशियों को उसी भाव के लिए जो अधिक पैसा दिया जाता है उसका आधा हिस्सा भी भारत के ही किसानों को यदि सरकार ने दिया तो उसको अपना उत्पादन बढ़ाने की प्रेरणा मिलेगी। देश स्वयंपूर्णता की ओर आगे बढ़ेगा। सरकार द्वारा विदेश परस्त नीति अपनाये जाने का कारण कुछ भी हो, किंतु एक बात स्पष्ट है कि ये नीतियां आमतौर पर देश के लिए और विशेष रूप से किसानों के लिए हानिकारक हैं।
वैसे तो ये नीतियां सभी उत्पादकों के लिए घातक हैं चाहे ये उत्पादक औद्योगिक क्षेत्रके हों या कृषि क्षेत्र के। तो भी इनमें भी पक्षपात किया जाता है। हमारी निर्यात नीति औद्योगिक उत्पादकों के अनुकूल और किसानों के प्रतिकूल है। आज किसान की कई चीजों की विदेश में मांग है, जैसे-प्याज, मूंगफली, चीनी, आलू, जुआर आदि। किंतु जो सहूलियतें तथा सहायता सरकार औद्योगिक उत्पादकों को देती है वह कृषि के उत्पादकों को देने के लिए तैयार नहीं है। यदि यह तैयारी रही तो किसानों को तो लाभ होगा ही, विदेशी मुद्रा की दृष्टि से भी देश लाभांवित होगा।
किंतु इससे भी अधिक गंभीर बात आयात नीति की है। जो माल यहां पैदा नहीं हो सकता उसको आयात करना तो नीतिसंगत है, किंतु जो माल देश में निर्माण हो सकता है वही अधिक कीमत देकर विदेशों से आयात करना हानिकारक है। इस नीति के दुष्परिणाम बहुत हैं। विदेश से माल आजा है तो माल के आगमन तथा नियंत्रण के कारण देशी माल की कीमत कम हो जाती है। बाजार में उस माल की पूर्ति अधिक होने के कारण नियंत्रण को छोउ़कर भी स्वाभाविक रूप से देशी माल की कीमत बाजार में कम हो जाती है। इसके कारण अगले माल यही माल पूरी मात्रा में पैदा करने की प्रेरणा किसानों के मन में समाप्त हो जाती है। यह माल किसान या तो पैदा नहीं करता या कम परिमाण में पैदा करता है और अपनी शक्ति कुछ ऐसा दूसरा माल पैदा करने में लगा देता है कि जिससे उसको अधिक पैसा मिले। यानी उत्पादन करने की उसकी प्रेरणा का मूल भाव समाप्त हो जाता है। इसके कारण उस चीज का उत्पादन देश में घटता है। उत्पादन कम होने से विदेशों से आयात करने की आवश्यकता निर्माण होती है और इस प्रकार आयात करने के लिए सरकार को बहाना मिल जाता है। इस तरह अगले साल आयात बढ़ता है। इस कारण उसके अगले साल उस माल का देशी उत्पादन और घटता है। इसके फलस्वरूप आयात और भी बढ़ाना आवश्यक प्रतीत होता है। इस तरह का दुष्टचक्र प्रारंभ होता है जो किसान तथा कृषि उत्पादन के लिए घातक है।
इन सब बातों का विचार करते हुए आयात-निर्यात नीति का पुनर्निर्धारण करने की आवश्यकता है। यह करते समय किसानों के प्रतिनिधियों के साथ सलाह-मशविरा करना भी उपयोगी रहेगा।
ध्येय-पथ पर किसान
दत्तोपन्त ठेंगड़ी
अध्याय 3 भाग-1
किसान और सरकार