संविधान सभा की रट में रमी कांग्रेस राजनीतिक यथार्थ को पहचानने में कब और किस समय विफल हो गई? स्वाधीनता संग्राम का वह कौन सा वर्ष है? भारत विभाजन की नींव कब पड़ी? हिन्दू-मुस्लिम संबंधों में पक्की गांठ कब लगी? क्यों लगी? मुस्लिम नेतृत्व में हिन्दू प्रभुत्व की मानसिक ग्रंथि के पैदा होने का ऐतिहासिक समय कौन सा है? कब एक राजनीतिक प्रश्न ने धार्मिक और सांप्रदायिक टकराव की राह पकड़ ली? इस तरह के जितने भी सवाल हो सकते हैं उनका एक ही जवाब है। वह यह कि 1937 का वह वर्ष है जब भारत के भाग्य का उल्टा फैसला हुआ। उस वर्ष की राजनीतिक घटनाओं में इन सवालों के जवाब हैं। इसी अर्थ में वह वर्ष बहुत निर्णायक था, जो नेतृत्व की भूल से दुर्भाग्यपूर्ण हो गया।
कांग्रेस और मुस्लिम लीग में न पटने वाली खाई उसी साल पड़ी। उसके बाद जो कुछ हुआ वह इतिहास का पीड़ादायी अध्याय है। उस साल चुनाव हुए थे। कांग्रेस ने मुस्लिम लीग के साथ साझा सरकार नहीं बनाई। अगर कांग्रेस का नेतृत्व साझा सरकार के लिए तैयार हो जाता तो इतिहास बदल सकता था। इतिहास की दृष्टि से उन घटनाओं को जानना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है उन घटनाओं को संविधान की यात्रा के उतार- चढ़ाव में देखने और समझने की। यह जरूरत आज पहले से अधिक है। इसलिए है कि इतिहास को संविधान से अलग कर नहीं देखा जा सकता है। वह इतिहास संविधान सभा की राजनीति से वैसे ही जुड़ा है जैसे कि शरीर में खून और पसीना जुड़ा रहता है। उसे शरीर के सजीव क्रम का एक अंग माना जाता है। सरकार बनाने के लिए कांग्रेस नेतृत्व ने क्या किया और कैसे किया? यही वह समस्या है जो कांग्रेस- मुस्लिम लीग संबंधों को नया मोड़ देती है।
यह आम धारणा है कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग में कड़वाहट उत्तर प्रदेश से शुरू हुई। यह आंशिक सत्य है। पूरा सच यह है कि वह सिर्फ उत्तर प्रदेश तक ही सीमित नहीं रही। उसके तार तब के बंबई प्रांत से भी जुड़े थे। मुहम्मद अली जिन्ना बंबई के निवासी थे। सार्वजनिक जीवन में उनका एक महत्वपूर्ण स्थान था। तभी तो वे 1934 में सेंट्रल असेंबली के लिए निर्विरोध निर्वाचित हुए थे। 1937 के चुनाव में कांग्रेस बंबई की विधान सभा में स्पष्ट बहुमत नहीं पा सकी। उसके सामने मुस्लिम प्रतिनिधित्व का प्रश्न था। एक भी मुस्लिम सीट पर कांग्रेस को सफलता नहीं मिली थी। ज्यादातर सीटों पर मुस्लिम लीग जीती थी। सरकार बनाने के लिए कांग्रेस नेतृत्व ने क्या किया और कैसे किया? यही वह समस्या है जो कांगे्रस- मुस्लिम लीग संबंधों को नया मोड़ देती है। इस बारे में क्रमश: जैसा घटा उस आधार पर मधु लिमए ने अपनी पुस्तक ‘महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू’ के एक अध्याय में निष्कर्ष निकाला कि मुस्लिम लीग का रुख तो उस समय सकारात्मक था।
जिन्ना ने ब्रिटिश गवर्नर की चाल को नाकाम कर बंबई प्रांत में एक कठपुतली सरकार बनाने के उनके इरादे पर पानी फेर दिया था। तब कांग्रेस नेतृत्व ने विपरीत बुद्धि से काम लिया। वक्त की जरूरत जो थी उसे नहीं पहचाना। मुस्लिम लीग के साथ साझा सरकार बनानी चाहिए थी। मुस्लिम लीग तो उत्तर प्रदेश की ही तरह बंबई में भी साझा सरकार बनाने पर सहमत थी। इसके विपरीत कांग्रेस नेतृत्व चाहता था कि मुस्लिम लीग के विधायक कांगे्रस में सम्मिलित हो जाएं। ‘मुस्लिम लीग के लिए यह अपमानजनक था। इसलिए जिन्ना ने इस सुझाव को नकारा। वे सरकार बनाने के लिए कांगे्रस को सहयोग देने पर सहमत थे। लेकिन अपनी पार्टी मुस्लिम लीग का विसर्जन करना नहीं चाहते थे।’ इससे ही कांग्रेस और मुस्लिम लीग में दूरी बढ़ती गई। जो अक्टूबर, 1937 में मुस्लिम लीग के लखनऊ अधिवेशन में प्रकट हुई।
मुस्लिम लीग के नेता जिन्ना, खलीकुजमा और नवाब मुहम्मद इस्माइल खां ने अपन अपमान को वहां रोष में बदला। मुस्लिम लीग को लड़ने के लिए तैयार करना शुरू कर दिया। अधिवेशन में जिन्ना ने कांग्रेस नेतृत्व पर तमाम आरोप लगाए। उसका सार था कि कांग्रेस मुस्लिम लीग को बरबाद करना चाहती है। मधु लिमए ने माना है कि जिन्ना का ओराप आधारहीन नहीं था। कांग्रेस नेतृत्व ने उस समय जो भूल की, वह क्यों हुई? इसके लिए कौन था जिम्मेदार? जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष थे। इसलिए वे ही उस भयानक भूल या ऐतिहासिक नासमझी के लिए जिम्मेदार हैं। यही मधु लिमए ने भी माना है। ऐसा क्यों हुआ? इसकी गहरी छानबीन पहले भी हुई है। लेकिन जैसा मधु लिमए ने समग्रता में उन घटनाओं को देखा है वैसा अन्यत्र नहीं मिलता। तमाम संदर्भों और उपलब्ध संस्मरणों के हवाले से उन्होंने एक चित्र खींचा है। जिसमें जवाहरलाल नेहरू की भूमिका बहुत निर्णायक थी, यह वे तथ्यों के आधार पर बताते हैं।
‘जवाहरलाल नेहरू का दृष्टिकोण मार्क्सवादी था। वे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के मार्क्सवादियों के प्रभाव में थे।’ नेहरू और उनके भरोसे वाले नेता राजनीतिक सवाल की मार्क्सवादी व्याख्या कर रहे थे। सवाल राजनीतिक था। जिसका एक पहलू हिन्दू- मुस्लिम संबंधों से जुड़ता था। नेहरू और उनके मार्क्सवादी साथी अपनी वैचारिक जड़ता में थे। इसलिए वे यह समझने में असमर्थ थे कि राजनीतिक निर्णय से ही हिन्दू-मुस्लिम संबंधों का व्याकरण भी निर्धारित होगा। नेहरू और उनके मार्क्सवादी साथी साझा सरकार बनाने के सवाल को राजनीतिक से ज्यादा आर्थिक मानते थे। उन दिनों जिन्ना का दृष्टिकोण जो था उसके ठीक उलट नेहरू सोचते थे। जिन्ना मानते थे कि समस्या प्रमुखतया राजनीतिक है। लेकिन नेहरू राजनीतिक विषय को आर्थिक हित से जुड़ा हुआ समझते थे। इस कारण भी उन्होंने मुस्लिम लीग की उपेक्षा की। उनकी यह धारणा वक्त ने गलत साबित की कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
हिन्दू-मुस्लिम संबंधों को वे मार्क्सवादी दृष्टि से देखने के अभ्यस्त थे। मधु लिमए ने लिखा है कि नेहरू के मार्क्सवादी साथियों ने उन्हें प्रभावित किया। जिससे उन्होंने मुस्लिम लीग से साझा सरकार को नकारा। कांग्रेस हमेशा से साझा सरकार के प्रति अनिच्छा के भाव में रही है। कांग्रेस के इस दृष्टिकोण को मुस्लिम लीग ने ‘हिन्दू प्रभुत्व’ के रूप में देखा। मधु लिमए लिखते हैं कि ‘जवाहरलाल नेहरू साझा सरकार के विरोध में सिर्फ 1937 में ही नहीं थे बल्कि उनका यह रवैया 1946 में भी बना रहा जब उन्होंने पंजाब की यूनियनिस्ट पार्टी के साथ सहयोग को नकारा।’ लेकिन कांग्रेस में जवाहरलाल नेहरू से किसी नेता की उस समय असहमति का कोई उदाहरण नहीं मिलता। सरदार पटेल, राजेंद्र प्रसाद, मौलाना आजाद भी नेहरू से सहमत थे। क्या तब कांग्रेस नेतृत्व ने दूरदर्शिता नहीं दिखाई? चुनावी सफलता ने कांग्रेस नेतृत्व को मदांध बना दिया? उस समय महात्मा गांधी की भूमिका क्या थी? ये सवाल आज भी जवाब मांग रहे हैं। इन नेताओं से भिन्न विचार वाले थे, नेताजी सुभाष चंद्र बोस। वे साझा सरकार के पक्षधर थे। उनके कारण ही असम में साझा सरकार बन सकी। इससे यह समझा जा सकता है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस अगर नेतृत्व में होते तो 1937 का इतिहास दूसरा होता। भारत अखंड रहता।
मधु लिमए ने इसे चिह्नित किया है कि जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, राजेंद्र प्रसाद और मौलाना ने 1937 में अदूरदृष्टि से काम लिया। हिन्दू बहुल राज्यों में कांग्रेस को तब बड़ी चुनावी सफलता मिली थी। जिससे वे अभिभूत थे। वे चाहते तो मुस्लिम लीग के नेतृत्व को मिलाकर रखते। तब महात्मा गांधी की भूमिका क्या थी? आश्चर्य है कि उन्होंने भी जिन्ना की उपेक्षा की। प्रतिक्रिया में जिन्ना गांधीजी से बात करना चाहते थे। लेकिन एक पत्र में उन्होंने अपनी असमर्थता व्यक्त की। जिससे जिन्ना में गहरा असंतोष उपजा। प्रतिक्रिया में जिन्ना ने यह समझ लिया कि राजनीतिक शक्ति अर्जित किए बगैर धार्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक सवालों को सुलझाना कठिन होगा। यह भी अर्थ निकाला कि कागजी संविधान की धाराओं में ताकत नहीं होती। कांग्रेस के रवैए से जिन्ना ने सोचा कि ‘स्थिति का एक मात्र हल यह है कि एक अलग राज्य स्थापित होना चाहिए जो प्रभुता संपन्न हो।’
जवाहरलाल नेहरू ने जिन्ना को एक पत्र भेजा। यह 4 फरवरी, 1938 का है। वे लिखते हैं कि ‘मुझे नवाब इस्माइल खां और चौधरी खलीकुजमा से यह मालूम करके बड़ी प्रसन्नता हुई कि उत्तर प्रदेश की मुस्लिम लीग या उत्तर प्रदेश मुस्लिम लीग पार्लियामेंट्री बोर्ड इस कार्यक्रम को (जो कांग्रेस की कार्यसमिति ने 1937 में तैयार किया था) स्वीकार करते हैं। इसमें हमारा स्वाधीनता का ध्येय, संविधान सभा की मांग थी।’ इस पत्र को जिन्ना ने नेहरू का मजाक माना। मधु लिमए ने लिखा है कि ‘जिन्ना तब तक राष्ट्रवादी थे। सहयोग के भाव में थे। लेकिन कांग्रेस के नकारात्मक रूख से अपमानित अनुभव कर वे बदले। अगर कांग्रेस ने जिन्ना को साथ रखा होता तो वे भारत से ब्रिटिश साम्राज्य को समाप्त करने में सहयोगी होते। अफसोस है कि ऐसा नहीं हुआ।’ 1937 ही वह वर्ष था जब हिन्दू-मुस्लिम संबंधों को भाई चारे में बदला जा सकता था। मधु लिमए ने निष्कर्ष निकाला है कि उसके बाद तो मेल-मिलाप का कोई तुक था ही नहीं।
जो अवसर आया था उसे कांग्रेस नेतृत्व ने गंवा दिया। उन दिनों कांग्रेस का नेतृत्व जवाहरलाल नेहरू कर रहे थे। जो भी तथ्य उपलब्ध हैं उनके आधार पर कहा जा सकता है कि उस दौरान हिन्दू-मुस्लिम संबंध की बाबत महात्मा गांधी और नेहरू में कोई बात नहीं हुई। दूसरी तरफ जिन्ना ने महात्मा गांधी से बात करने की कोशिशें की। गांधी ने उस समय उन्हें टाला। संदेश भिजवाया कि जिन्ना अगर बात करना चाहते हैं तो वे पहले मौलाना आजाद से बात करें। सुशीला नैय्यर ने अपने संस्मरण में लिखा है कि एक बार गांधीजी ने बताया कि जिन्ना उनसे मिलने आए थे। तब उन्होंने जिन्ना से कहा कि हिन्दू-मुस्लिम सवाल पर मैं डा. अंसारी से सलाह करता हूं। उनकी सलाह पर ही निर्णय करता हूं। जो जिन्ना को स्वीकार नहीं था। 1938 में गांधीजी ने घोषित किया कि डा. अंसारी अब नहीं रहे इसलिए वे अब मौलाना अबुल कलाम आजाद से परामर्श कर निर्णय करेंगे। उस दौर (1937-38) में जिन्ना ने सुलह की हर कोशिश की। वे तब तक भारत विभाजन के विचार से दूर थे।