भारत में 15 अगस्त को ब्रिटिश शासन से मुक्ति के रूप में याद किया जाता है। इस आधार पर यह मान लिया जाता है कि समस्त भारतवासी उससे पहले अंग्रेजों की और उससे भी पहले मुस्लिम शासकों की पराधीनता में थे। यह भ्रामक धारणा 19वीं सदी के अंग्रेज इतिहासकारों ने प्रचारित करनी आरंभ की थी। इसके आधार पर कार्ल मार्क्स ने यह घोषित कर दिया था कि भारत सदा विदेशी शक्तियों से आक्रांत और पराजित होता रहा है और इसका कारण उनकी सामाजिक जड़ता है। दुर्भाग्य की बात है कि यह भ्रामक धारणा ही हमारे अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों की स्मृति में बैठ गई। ब्रिटिश शासन की समाप्ति के बाद यह धारणा भारतीय इतिहास की सही समझ के आधार पर समाप्त हो जानी चाहिए थी। लेकिन स्वतंत्र भारत की शिक्षा-दीक्षा ने उसे मजबूत ही किया है।
आम पढ़े-लिखे लोगों में यह भावना कितनी गहरी बैठी हुई है, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने अपने एक भाषण में हमारी हजार वर्ष की गुलामी का उल्लेख किया था। यह भ्रामक धारणा शैक्षिक जगत में व्याप्त नेशन स्टेट की अवधारणा के कारण फैली है। यूरोप में भी नेशन स्टेट का विचार 19वीं सदी में ही पैदा हुआ था। अधिकांश नेशन स्टेट 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध की देन है। भारत इस तथाकथित पराधीनता काल में किसी भी शासन से बड़ा था। दिल्ली में 1206 में दिल्ली सल्तनत की नींव पड़ी थी। पर 14वीं शताब्दी में खिलजी वंश के शासन में ही उसका उत्तर और मध्य भारत तक विस्तार हो पाया था। मुगल या ब्रिटिश शासन में भी कभी पूरा भारत उनके आधीन नहीं रहा। भारत का लगभग 40 प्रतिशत भाग इस काल में भी भारत के अपने राजाओं के आधीन रहा था।
इस अवधि में भारत के लोगों ने भी अपने अनेक विशाल और धर्मशील शासन स्थापित किए। दक्षिण का विजयनगर साम्राज्य इसका एक बड़ा उदाहरण है। वह 1336 से 1646 तक रहा। 1645 में स्थापित हुआ मराठा साम्राज्य अपने उत्कर्ष काल में मुगल साम्राज्य से अधिक विशाल था। वह मुगलों के बर्बर शासन के मुकाबले धर्मशील तो था ही, वह भी 1812 तक चला। पर भारतीयों के लिए किसी शासन का विशाल या विदेशी होना महत्वपूर्ण नहीं था। उनके लिए इस बात का अधिक महत्व था कि वह शासन धर्मशील, न्यायपूर्ण और प्रजा पालक है या नहीं। भारतीयों की शासन के बारे में कसौटी राजनैतिक नहीं सभ्यतागत थी। मुस्लिम शासकों और अंग्रेज शासकों से उनका विरोध उनकी शासकीय शैली और सभ्यतागत मान्यताओं के कारण था। इसलिए उन्होंने इन सभी शासकों को कभी अपना नहीं माना, उनका निरंतर विरोध करते रहे।
भारतीय इतिहास का ऐसा कोई दौर नहीं है, जब इन शासकों के विरुद्ध संघर्ष न हुआ हो। इस संघर्ष में कभी जीत हुई, कभी हार। इसलिए इस कालावधि को हम विपत्तिकाल तो कह सकते हैं, वह भारत का पराधीनता काल नहीं था। क्योंकि न केवल पूरा भारत कभी पराधीनता में नहीं गया, बल्कि अधिकांश समय भारत का बड़ा भाग स्थानीय राजाओं और पंचायतों के धर्मशील शासन में ही था। अंग्रेजों द्वारा भारत का जो इतिहास लिखा गया, उसमें अधिकांश वृत्तांत विदेशी शासकों पर केंद्रित रहा है। इस इतिहास में यह समझने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया कि भारतीय शासन प्रणाली में और इन विदेशी शासकों की शासन प्रणाली में क्या अंतर था। मुस्लिम शासक प्रजा पर अत्याचार और मंदिर तोड़ने के ही अपराधी नहीं थे। उन्होंने स्थानीय शासन को पूरी तरह सैनिक शासन में बदल दिया था। मुगल भारत के सब मनसबदार सेना से लिए गए थे। इसके अलावा उन्होंने कराधान का केंद्रीकरण करते हुए मनमाना कर वसूलने की नई परिपाटी शुरू की थी। अंग्रेज इतिहासकारों ने उसे शासन प्रणाली में सुधार तक की संज्ञा दे डाली। अंग्रेजों ने इससे एक कदम आगे बढ़कर कानून बनाने का अधिकार राज्य में सीमित कर दिया। 1857 के बाद प्रजा को शस्त्र रखने से प्रतिबंधित कर दिया। पंचायतों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। भारत में यह सब सभ्यतागत प्रश्न थे, केवल राजनैतिक नहीं। क्योंकि भारत में राजा को सदा समाज की व्यवस्थाओं का रक्षक माना गया था, समाज का नियंता नहीं।
यह सब बातें ध्यान में रखना इसलिए आवश्यक है कि 19वीं शताब्दी के अंत में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध जो आंदोलन आरंभ हुआ था, उसे केवल एक राजनैतिक आंदोलन के रूप में देखा गया है। ब्रिटिश शासन से मुक्ति इस आंदोलन का मुख्य लक्ष्य अवश्य था, लेकिन उसका यह एकमात्र लक्ष्य नहीं था। भारतवासियों में भारत की प्रतीति कभी एक राजनैतिक इकाई के रूप में नहीं, एक सभ्यतागत इकाई के रूप में ही रही है। उसकी ध्वनि आप 1870 में बंकिमचंद्र चट्टोपध्याय द्वारा लिखे गए गीत वंदेमातरम् में सुन सकते हैं, जिसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1896 के अधिवेशन में स्वयं रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने गाया था। इसी की ध्वनि बाल गंगाधर तिलक के 1890 के इस उद्घोष में थी कि स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। तिलक को स्वतंत्रता आंदोलन का पितामह कहा जाता है। हम जानते हैं कि उनके इस उद्घोष की प्रेरणा श्रीमद् भगवद्गीता थी। उसका यह मंत्र ही उनकी प्रेरणा था कि स्वधर्मे निधनं श्रेय, परधर्मों भयावह। बंग-बंग विरोधी आंदोलन को हमने जिस स्वदेशी व्रत के सहारे लड़ा और जीता था, वह हमारी सभ्यतागत मान्यताओं पर ही आधारित था। स्वामी दयानंद ने सबसे पहले जिस स्वराज्य का मंत्र फूंका था, वह केवल राजनीतिक अवधारणा नहीं थी। श्री अरविंद के हृदय में सनातन भारत ही विद्यमान था। उसी सनातन भारत की अलख जगाते हुए उन दिनों कांची परमाचार्य चंद्रशेखरेन्द्र सरस्वती अपने संन्यास धर्म का पालन करते हुए देशभर में घूम रहे थे।
इस समूचे दौर को समझने के लिए हमें उस समय दुनिया के अन्य भागों में क्या हो रहा था। इस पर भी सरसरी निगाह डाल लेनी चाहिए। दुनिया का 18वीं शताब्दी तक सबसे पिछड़ा क्षेत्र माना जाने वाला यूरोप 1800 तक उस समय की सभी बड़ी सभ्यताओं की देहरी पर पहुंच चुका था। चीन से लगाकर अरब क्षेत्रों तक सभी सभ्यताएं उसका दबाव अनुभव कर रही थीं। वे केवल एक राजनैतिक शक्ति नहीं थे, बल्कि एक नई सभ्यता के वाहक भी थे। यूरोपीय देशों की राज्य पोषित व्यापारिक कंपनियों और ईसाई मिशनरियों के माध्यम से वे अपनी राजनैतिक शक्ति और सांप्रदायिक प्रभाव फैलाने में लगे थे। यूरोप के भीतर निरंतर लड़े जा रहे युद्धों के दौरान उन्होंने तुर्कों से प्राप्त बंदूक और तोप को एक अत्यंत प्रभावी शस्त्र के रूप में विकसित कर लिया था।
अमेरिका जैसे विशाल क्षेत्र पर नियंत्रण ने उनकी समृद्धि और बौद्धिक सक्रियता बढ़ाकर यूनानी नगर राज्यों के समय विकसित मान्यताओं के आधार पर एक नई सभ्यता गढ़ने का अवसर दे दिया था। उसके आधार पर वे अपना जो सामरिक और भौतिक विकास कर पाए थे, उससे दुनिया की अन्य सभ्यताएं प्रभावी और चमत्कृत हो रही थीं। 1885 में जापान के फुकूजावा याकिची ने मंत्र दिया था कि जापान को नष्ट होने से बचना है तो उसे अपनी एशियाई सभ्यतागत परिधि से बाहर आकर यूरोपीय विश्व में शामिल हो जाना चाहिए। इस दृष्टि से जापान ने अपना जो रूपांतरण करना आरंभ किया, उसके बल पर उसने 1894 में चीन पर हमला कर दिया। 1905 में उसने युद्ध में रूस को परास्त कर दिया। पर यूरोप के बारे में उसकी सुविचारित धारणा यह बनी कि उसका विज्ञान और प्रौद्योगिकी देवप्रेरित है, जिसने उसे सामरिक रूप से अत्यंत शक्तिशाली बना दिया है। पर उनकी सामाजिक और राजनैतिक दृष्टि राक्षसी है और जापान को उससे बचना चाहिए। दूसरे विश्व युद्ध में पराजय के बाद जापान को अपना अर्थतंत्र और राजनैतिक तंत्र भी बदलना पड़ा। पर अपने समाज को उसने यूरोपीय प्रभाव से बचाने की भरपूर कोशिश की।
भारत के मुकाबले उस समय चीनी और अरब पूर्ण रूप से पराधीन थे। अरब लोगों के हाथ से 950 ईस्वी के आसपास राजनैतिक शक्ति तुर्कों के हाथ में आने लगी थी। 1037 सेल्जुक तुर्कों की सत्ता स्थापित हुई। 1299 में उस्मानी साम्राज्य के नेतृत्व में आने के बाद अरबों की रही-सही शक्ति भी समाप्त हो गई और यह तुर्क साम्राज्य 1922 तक चला। चीन में पौने तीन सौ वर्ष स्वशासन के बाद एक बार फिर चीन 1644 में पराधीनता में चला गया था। चीन का यह विदेशी मांचू शासन 1912 तक रहा। चीन को अफीम युद्ध के दौरान यूरोपीय शक्तियों के सामने जो अपमानजनक पराजय झेलनी पड़ी, उसने उनमें गहरी आत्महीनता की भावना पैदा की थी। 1919 में चीन में 4 मई से जो आंदोलन शुरू हुआ, उसने चीनियों में अपने अतीत से कटने और यूरोपीय दृष्टिकोण अपनाने के लिए आग्रह पैदा किया। इसी अवधि में चीन में कम्युनिस्ट मजबूत हुए, जिन्होंने बाद में सांस्कृतिक क्रांति के दौरान चीन की सभी सभ्यतागत मान्यताओं को बुर्जुआ घोषित कर दिया था और आम चीनियों से उससे दूरी बनाने के लिए कहा था।
1922 में पराजय के दो वर्ष बाद तुर्कों ने 1924 में खलीफा का पद समाप्त कर दिया था और अपने आपको यूरोपीय सभ्यता में ढालने का अभियान शुरू कर दिया था। 18वीं शताब्दी में शुरू हुए वहाबी आंदोलन ने सऊदी परिवार से मिलकर 1744 में एक इस्लामी राज्यसत्ता की नींव डाली थी, पर वह काफी कमजोर थी। 1932 में ही सऊदी अरब को एक आधुनिक राज्य के रूप में स्थापित होने में सफलता मिली। 1979 में ईरान में इस्लामी क्रांति हुई। इस सबसे अंतर्मुखी इस्लामी शक्तियां अवश्य पैदा हुई, पर वे विध्वंसक शक्तियां ही हैं। उनके पास कोई विधायी दृष्टि नहीं है। वे शरिया शासन का नाम भले लेती हैं, लेकिन दुनिया में कहीं भी वास्तविक शरिया शासन लागू करना उनके लिए संभव नहीं हो पाया। इसलिए इस्लाम को आधार बनाकर बनी राजनैतिक सत्ताएं भी यूरोप के अनुकरण पर अपने जीवन को संयोजित करने के लिए विवश है। इस नाते इन सभी सभ्यताओं ने यूरोप की भौतिक उन्नति से प्रभावित होकर उसका रास्ता ग्रहण कर लिया है।
भारत के एक बड़े हिस्से में 1300 से 1700 तक लगभग 400 वर्ष मुस्लिम शासन रहा। यह मुस्लिम आक्रांता इस्लामी आवेश से भरी लुटेरी सेनाओं का नेतृत्व करते हुए भारत आए थे। अपने शासन में उन्होंने मध्य एशिया, ईरान और अफगानी क्षेत्रों से शामिल हुए सैनिकों को ही महत्व दिया। उनसे शासित क्षेत्रों में भारतवासी सैन्यकर्म से बाहर हो गए। ईस्ट इंडिया कंपनी और बाद में ब्रिटिश सेना में सैन्य कर्म से बाहर हुए यही लोग उत्साह से शामिल हुए थे। इसलिए हिन्द स्वराज में गांधी जी ने कहा था कि अंग्रेजों ने हमें पराजित नहीं किया, हमी ने सत्ता उनको सौंप दी। फिर भी चीनियों या अरबों की तरह भारतीयों ने विदेशी शासन कभी स्वीकार नहीं किया था। वे उससे निरंतर संघर्ष करते रहे थे। मराठाओं के उदय के बाद मुस्लिम शासन और उसकी बर्बरता की स्मृति समाप्त हो चली थी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस पूरे दौर में भारतीय समाज ने अपनी गतिशीलता बनाए रखी थी।
मराठा साम्राज्य बाद में आंतरिक कलह से बिखर गया। इसी ने ब्रिटिश शासन का मार्ग प्रशस्त किया। पर इस तथ्य के बावजूद कि ब्रिटेन यूरोपीय उत्कर्ष की 19वीं शताब्दी की अग्रणी शक्ति था हम उससे चकित या चमत्कृत नहीं थे। भारत के लोगों ने ब्रिटिश शासन या यूरोपीय सभ्यता को अपनी शासन प्रणाली या अपनी सभ्यता से श्रेष्ठ नहीं माना। हम जानते हैं कि 19वीं शताब्दी में यूरोप में जो वैचारिक क्रांति और ज्ञानात्मक विकास हो रहा था, उस पर काशी के पंडितों की नजर थी। 1849 में जब ब्रिटिश सरकार ने काशी गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज के प्रिंसिपल वेलेन्टाइन को यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान पर काशी के पंडितों की राय जानने के लिए कहा था तो पंडितों की उस पर नकारात्मक प्रतिक्रिया ही थी। काशी के पंडितों की तरह देशभर में फैले विद्या केंद्रों में पंडित यूरोप के विचारों को देख, समझ और अस्वीकार कर रहे थे। उन्होंने भारतीय शास्त्री परंपरा के सामने उन्हें हेय समझा था।
यही वजह है कि 19वीं शताब्दी के अंत में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को केंद्र बनाकर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध राजनैतिक आंदोलन आरंभ हुआ तो उसके नेताओं में अपनी सभ्यता की श्रेष्ठता का विश्वास था। दादाभाई नैरोजी और सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने ब्रिटिश शासन की आर्थिक लूट और राजनैतिक भेदभाव के जो प्रश्न उठाए थे, उसमें भारतीय सभ्यता के गौरव का भाव न रहा होता तो ब्रिटिश शासन की उनकी आलोचना उतनी प्रभावोत्पादक न हुई होती। बाल, लाल, पाल, स्वामी श्रद्धानंद या मदन मोहन मालवीय की प्रेरणाएं तो स्पष्ट ही थीं। पर 1919 में तब इस आंदोलन का स्वरूप ही बदल गया, जब उसकी कमान महात्मा गांधी के हाथ में पहुंची। महात्मा गांधी की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि उन्होंने इस राजनैतिक संघर्ष को सभ्यतागत संघर्ष में बदल दिया।
महात्मा गांधी में यूरोपीय सभ्यता और भारतीय सभ्यता की जितनी गहरी समझ है, उतनी उस समय के किसी और नेता में दिखाई नहीं देती। राष्ट्रीय आंदोलन को वे जो सभ्यतागत स्वरूप देने वाले थे, उसकी पहली झलक तो 1884 में ही मिल गई थी। वे अब्दुल्ला सेठ के साथ हुए वकालत संबंधी अनुबंध का एक वर्ष बिताकर भारत लौटने वाले थे। विदाई समारोह में अखबार में छपी एक सूचना पर उनका ध्यान अटक गया। स्थानीय नेटाल विधान परिषद एक कानून बनाकर यह कहते हुए वहां बसे भारतीयों का मताधिकार समाप्त करने वाली थी कि उनमें लोकतंत्र की समझ और योग्यता नहीं है। गांधी जी इसका प्रतिकार करने के लिए वहां रुके, विधान परिषद को ज्ञापन भेजकर तर्क दिया कि यूरोपीय विद्वानों के अनुसार भी यूरोपीयों ने चुनाव की प्रणाली प्राचीन भारतीय नगर परिषदों से सीखी है, फिर वे कैसे कह सकते हैं कि भारतीयों में लोकतंत्र की योग्यता नहीं है। उसके बाद वे तीस वर्ष दक्षिण अफ्रीका में ही रहे। इसी अवधि में उन्होंने सत्याग्रह का राजनैतिक उपयोग किया और यम नियमों से राजनीति के मूल आधार प्राप्त किए।
महात्मा गांधी में यूरोपीय सभ्यता को लेकर न कोई दुविधा थी और उसके प्रति किसी तरह का मोह था। बीसवीं शताब्दी के आरंभ में यूरोपीय जाति अपनी जिन उपलब्धियों के आधार पर अपनी सभ्यता को संसार की और मानव इतिहास की सबसे उन्नत सभ्यता बता रही थी, उसे उन्होंने 1909 में लंदन से दक्षिण अफ्रीका जाते हुए पानी के जहाज से यात्रा के दौरान लिखी अपनी एकमात्र पुस्तक हिन्द स्वराज में तिरस्कृत कर दिया। उन्होंने यूरोपीय डेमोक्रेसी को नकारने के लिए ब्रिटिश पार्लियामेंट को वेश्या की संज्ञा दे डाली। उन्होंने मशीनीकरण पर आधारित अर्थतंत्र को मानव विरोधी बताते हुए यूरोपीय औद्योगिक क्रांति को सकारात्मक घटना मानने से इनकार कर दिया। उन्होंने यूरोपीय शिक्षा को नीतिविहीन घोषित किया और इंजीनियरों, वकीलों और डॉक्टरों की उपयोगिता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिए। पश्चिमी सभ्यता का ऐसा सांगोपांग तिरस्कार किसी और देश या राजनेता में नहीं मिलता। 1915 में भारत लौटने के बाद उन्होंने अपने विचारों को कार्य रूप देना आरंभ किया था। सबसे पहले उन्होंने भारतवासियों को ब्रिटिश शासन के भय से मुक्त किया।
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्घाटन के समय 1916 में वायसराय की रक्षा में लगे रहने वाले तंत्र पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि-‘मृत्यु की आशंका में इस तरह मृत्यु समान जीवन जीने से तो लॉर्ड हार्डिंग के लिए मर जाना बेहतर होगा।’ उस समय वायसराय के बारे में ऐसी बात कहने की कोई कल्पना नहीं कर सकता था। गांधी जी के इस भाषण की सूचना कानोंकान पूरे देश में फैल गई। दूर महाराष्ट्र में बैठे युवक बिनोवा को लगा कि आजादी की लड़ाई लड़ने के लिए भारत माता का कोई सपूत आ गया है और वे पैदल ही गांधी जी से मिलने चल दिए। इसके एक वर्ष बाद चंपारण सत्याग्रह आरंभ हुआ और गांधी जी ने अंग्रेज मजिस्ट्रेट के सामने कहा कि सरकार के गलत कानून को तोड़ना वे अपना धार्मिक कर्तव्य समझते हैं। यह कहकर उन्होंने यूरोपीय सभ्यता में राजा या राज्य को ला गिवर मानने की परंपरा को चुनौती दे डाली।
उन्होंने अपने आंदोलन का आधार अहिंसा को बनाया था। लेकिन देश में उनका पहला बड़ा आंदोलन रॉलेट बिल के विरुद्ध था, जिसे ब्रिटिश प्रशासन भारत के सशस्त्र क्रांतिकारियों का दमन करने के लिए लाया था। गांधी जी की अहिंसा शांतिवादी की अहिंसा नहीं थी। उन्होंने कहा कि 1857 के बाद अंग्रेजों ने भारत के लोगों के हथियार रखने पर पाबंदी लगा दी थी। निःशस्त्र होकर वे भयग्रस्त हो गए और अंग्रेजी शासन को उखाड़कर नहीं फेंक सके। उन्हें शस्त्र धारण करवाने के लिए ही गांधी जी ने पहले महायुद्ध के समय भारतीयों को ब्रिटिश सेना में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया था।
पहले महायुद्ध के कारण हुई बड़े पैमाने पर भर्ती ने ब्रिटिश भारतीय सेना का अनुपात भी बदल दिया था। 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों ने अपनी सबसे बड़ी बंगाल रेजीमेंट को समाप्त कर दिया था, जिसमें बहुलांश उत्तर भारत के हिन्दू थे। उसके बाद नई रेजीमेंट में उन्होंने पश्चिम प्रांत से मुख्यतः मुसलमानों की भर्ती की थी और उन्हें मार्शल रेस बताते हुए हिन्दुओं के खिलाफ उकसाया था। इसी दंभ के आधार पर पाकिस्तान की सेना गठित हुई थी। महात्मा गांधी ने कहा था कि वे शस्त्र से भी बड़ा अस्त्र लेकर राजनीति में उतरे हैं। अहिंसा ब्रिटिश शासन ही नहीं, यूरोपीय सभ्यता के विरुद्ध भी एक कारगर हथियार सिद्ध होगी। अंग्रेजों के विरुद्ध उनका दूसरा हथियार भारतीय समाज की एकता थी। अंग्रेजों ने भारतीय समाज को बांटने के लिए 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना करवाई थी। मुस्लिम लीग ने अंग्रेजों के उकसावे पर अलग मताधिकार की मांग की और तिलक पर दबाव डालकर 1916 में लखनऊ पैक्ट करवा लिया। महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता संग्राम की कमान अपने हाथ में लेते ही इस पैक्ट को नकार दिया। गोलमेज सम्मेलनों में उन्होंने अंग्रेजों की अनुसूचित वर्गों को अलग मताधिकार देने की कोशिश भी विफल की, लेकिन अंत में अंग्रेज जवाहर लाल नेहरू और पटेल के माध्यम से भारत का बंटवारा करने में सफल हो गए।
महात्मा गांधी ने बार-बार यह स्पष्ट किया था कि वे देश को ब्रिटिश राज से मुक्त करने के लिए ही नहीं, यूरोपीय सभ्यता के प्रभाव से मुक्त करने के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं। उनका संघर्ष इंडिपेंडेंस के लिए नहीं, स्वराज्य के लिए है। स्वराज एक वैदिक शब्द है और उसकी ध्वनि जितनी राजनीतिक है, उतनी ही सभ्यतागत भी है। गांधी जी जानते थे कि यूरोपीय सभ्यता वर्गभेद पर आधारित है। यूनानी काल से यह वर्गभेद चला आ रहा है, जिसमें आबादी का बहुलांश गुलामी का जीवन जीने के लिए अभिशप्त रहा है। गुलाम रखा जाता रहा यही वर्ग 18वीं-19वीं शताब्दी में खेती से खदेड़े जाकर सर्वहारा बना और औद्योगिक क्रांति ने उन्हें मजदूर बना दिया। इसी वर्ग के लिए कार्ल माक्र्स ने सर्वहारा की क्रांति की कल्पना की थी। लेकिन माक्र्स के अनुयायियों-लेनिन और माओ ने कम्युनिस्ट शासन की निरंकुश तानाशाही के जरिए उन्हें फिर गुलामी में जकड़ दिया। उसके विपरीत गांधी जी ने भारतीय सभ्यता के वर्णाश्रम धर्म के आदर्श को सामने रखा, जिसमें गुणों के आधार पर बनते-बदलते वर्ण समाज के प्रति अपने धर्मों से बंधे होते हैं। वर्ग संघर्ष के मुकाबले यह परस्पर निर्भरता की व्यवस्था है।
गांधी जी ने कांग्रेस का नेतृत्व हाथ में लेते ही कांग्रेस को राजनैतिक वर्ग की जगह तभी भारतवासियों की संस्था बना दिया था और उसे रचनात्मक कार्यक्रम देकर उसका चरित्र ही बदल दिया था। गांधी जी का दूसरा बड़ा आंदोलन नमक सत्याग्रह था, जिसके द्वारा उन्होंने राज्य के कर लगाने के अबाधित अधिकार को चुनौती दी थी। भारत में कर परंपरा द्वारा निर्धारित रहा था और उसमें परिवर्तन समाज की स्वीकृति के बिना संभव नहीं था। यूरोपीय डेमोक्रेसी राज्य तंत्र के असीमित विस्तार के सहारे विकसित हुई थी। गांधी जी ने राज्य को सीमित करके ग्राम स्वराज्य स्थापित करने का नारा दिया। उन्होंने 1919 के अपने पहले आंदोलन में ही प्रतिबंधित पंचायतों को फिर से शासन में भागीदार बनाने की मांग रख दी थी। भारतीय सभ्यता का यह संघर्ष उन्होंने भारत माता के सपूत के रूप में शुरू किया था। यह बड़ा संघर्ष है और अंग्रेजी शासन से मुक्ति या महात्मा गांधी के अवसान से समाप्त नहीं हो गया है। अयोध्या में राम जन्मभूमि पर भगवान राम के एक भव्य मंदिर का निर्माण उसी की कड़ी है। उसके शिलान्यास के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ठीक ही देश की आजादी के संघर्ष और राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के संघर्ष का स्मरण एक-दूसरे के पूरक के रूप में किया था।