संविधान के लक्ष्य का प्रस्ताव ‘सभी सदस्यों ने खड़े होकर स्वीकार किया।’ यह 22 जनवरी, 1947 की ऐतिहासिक घटना है। उसी से संविधान सभा को वैधानिक और आत्मिक बल मिला। संविधान निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। जवाहरलाल नेहरू ने जो प्रस्ताव रखा था, उस पर दो संशोधन आए थे। लेकिन पहला संशोधन ऐसा था जिसने जवाहरलाल नेहरू को थोड़ा निराश किया। इसे उन्होंने बहस के अपने जवाब में इस तरह स्वीकार किया-‘मैं इस बात के लिए अधीर हो रहा था कि हम लोग आगे बढ़ें। मुझे ऐसा अनुभव हो रहा था कि पथ में विलंब करके हम अपनी की हुई प्रतिज्ञा के प्रति झूठे बन रहे हैं। यह तो बहुत बुरा प्रारंभ था कि हम लक्ष्य संबंधी आवश्यक प्रस्ताव को स्थगित कर दें।’ अपनी मनोभावना को उन्होंने छिपाया नहीं।
जवाहरलाल नेहरू ने उस दिन कहा ‘… हो सकता है कि जो संविधान यह सभा बनाए, उससे स्वतंत्र भारत को संतोष न हो…।’ नेहरू का वह कथन आज भी प्रासंगिक है। कांग्रेसी, कम्युनिस्ट और उनके ही जैसे वे लोग जो बिना जाने-समझे लोगों को गुमराह कर रहे हैं कि संविधान खतरे में है, वे क्या नेहरू के कहे पर विचार कर स्वयं का सुधार करेंगे? क्या वे देश से माफी मागेंगे?
पर यह भी माना कि ‘मुझे इस बात में जरा भी संदेह नहीं है कि संविधान सभा ने अपनी बुद्धि से उस प्रस्ताव को स्थगित रखने का जो फैसला किया था, वह सही था।’ वास्तव में नेक इरादे से ही संविधान सभा के जाने-माने सदस्य और स्वाधीनता संग्राम के महत्वपूर्ण नेताओं में एक डॉ. मुकुंद राव जयकर ने संशोधन रखा था।
नेहरू ने उनकी मंशा को उचित ठहराते हुए कहा कि ‘हमने दो बातों पर हमेशा ध्यान दिया है। एक तो इस बात पर कि हमारा लक्ष्य तक पहुंचना नितांत आवश्यक है और दूसरे इस बात पर कि हम यथा समय और अधिक से अधिक एकमत हो अपने लक्ष्य पर पहुंचें।’ इसीलिए प्रस्ताव पर विचार एक माह के लिए स्थगित किया गया था कि मुस्लिम लीग भी संविधान निर्माण की प्रक्रिया में शामिल हो जाए।
देश-दुनिया को एक संदेश भी देना था कि कांग्रेस नेतृत्व तो ‘सबका सहयोग पाने के लिए बहुत इच्छुक है।’ नेहरू ने मुस्लिम लीग का नाम लिए वगैर कहा कि ‘दुर्भाग्य से उन्होंने अब तक आने का फैसला नहीं किया है और अभी भी अनिश्चय की अवस्था में पड़े हैं।’ चतुर राजनेता जवाहरलाल नेहरू ने कहा कि ‘मुझे इसका खेद है और मैं इतना ही कह सकता हूं कि वे भविष्य में जब आना चाहें आएं।’ वे अपने प्रस्ताव को सिर्फ संविधान बनाने तक सीमित नहीं समझते थे बल्कि वे उसके व्यापक और दूरगामी प्रभाव से सबको परिचित भी करा रहे थे।
इसीलिए उनका कहना था कि ‘यह प्रस्ताव भूखों को भोजन तो नहीं देगा पर यह उन्हें आजादी का, भोजन का और सबको अवसर देने का विश्वास दिलाता है।’ प्रस्ताव पर बहस के अपने जवाब की शुरुआत उन्होंने इन्हीं शब्दों में की। संविधान के मूल प्रणेता वास्तव में नेहरू ही थे। संविधान सभा के पांचवें दिन जवाहरलाल नेहरू ने लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव रखा था। तारीख थी- 13 दिसंबर, 1946। उस पर दो चरण में बहस हुई।
पहला चरण छह दिनों का था। जिसमें प्रस्तावक सहित 24 सदस्य बोले। दूसरा चरण 20 जनवरी, 1947 को शुरू हुआ। इस चरण में 17 सदस्य बोले। जवाब देने वाले नेहरू को अगर शामिल कर लें तो यह संख्या 18 हो जाती है। इस प्रकार कुल 42 सदस्यों ने संविधान के लक्ष्य पर अपने विचार रखे थे। जिस समय संविधान का लक्ष्य स्वीकार किया गया, उस समय मुस्लिम लीग और रियासतों के प्रतिनिधि नहीं थे। संविधान सभा में कांग्रेस ही थी। जो सदस्य कांग्रेस के नहीं थे, वे भी उसके ही सहयोग से संविधान सभा में पहुंचे थे। जवाहरलाल नेहरू की इच्छा, समझ और भारत के बारे में विचार से संविधान सभा न केवल गठित हुई बल्कि संचालित भी होती रही। संविधान सभा को स्पष्ट हो गया था कि मुस्लिम लीग नहीं आएगी। लेकिन रियासतों के प्रतिनिधि तो आना चाहते थे। उन्हें रोके रखने का प्रावधान कैबिनेट मिशन ने कर रखा था।
इससे रियासतों के प्रतिनिधित्व में बाधा थी। उसे जल्दी दूर किया जाना चाहिए। यह मांग भी थी कि जब तक रियासतों के प्रतिनिधि नहीं आते तब तक इंतजार करें। इस पर नेहरू ने कहा कि ‘अगर वे (रियासतों के प्रतिनिधि) यहां (संविधान सभा में) मौजूद नहीं हैं तो इसमें हमारा दोष नहीं है। यह दोष तो मूलत:उस योजना का है जिसके अधीन हम कार्यवाही कर रहे हैं। हमारे सामने यही रास्ता है।’
नेहरू सचमुच अधीर थे। उनका यह वाक्य प्रमाण माना जा सकता है जब वे कहते हैं कि ‘चूंकि कुछ लोग यहां नहीं उपस्थित हो सकते, इसलिए क्या हम अपना काम स्थगित रखेंगे?’ वे इसका जवाब देते हैं-‘इसलिए हम इस प्रस्ताव को या और कामों को महज इसलिए स्थगित नहीं रख सकते कि कुछ लोग यहां मौजूद नहीं हैं।’ अवश्य ही उन्होंने रियासतों को एक आश्वासन दिया कि ‘हम लोग रियासतों के अंदरूनी मामलों में दखल नहीं दे रहे हैं।’ इसे ही समझाते हुए नेहरू का तब कथन था कि ‘यह कल्पना भी मुझे ग्राह्य है कि भारतीय लोकतंत्र के अंतर्गत राजतंत्र भी रह सकते हैं।’ इसमें उन्होंने एक शर्त लगा दी कि ‘यदि प्रजा ऐसा चाहती हो।’ उस समय की परिस्थितियों के दबाव में नेहरू को यह भी कहना पड़ा था कि ‘इस प्रस्ताव में रियासतों के शासन के लिए हम कोई खास पद्धति निर्धारित नहीं कर रहे हैं।’ इस बारे में उनका निर्णायक स्वर यह था कि ‘हम लोग स्वतंत्र सर्वसत्ता संपन्न भारतीय गणतंत्र के लिए एक संविधान बनाएंगे।’ पंडित जवाहरलाल नेहरू के उस भाषण में एक वादाखिलाफी भी है, जो सचेत भारतीय को आज भी हर तरह से कष्ट पहुंचाती है। जानने का विषय है कि वह क्या है? कांग्रेस ने हमेशा यह संकल्प दोहराया कि स्वतंत्र भारत ब्रिटेन से अपना संबंध विच्छेद करेगा।
इसका एक गहरा कारण था। स्वाधीनता आंदोलन में उत्पन्न राष्ट्रीय स्वाभिमान के तर्क से वह संकल्प पैदा हुआ था। इसके ठीक उलट नेहरू कह रहे हैं कि ‘हम ब्रिटिश जनता के साथ, ब्रिटिश कॉमनवेल्थ के सारे देशों के साथ दोस्ताना सलूक रखना चाहते हैं।’ अपने इस प्रस्ताव को उन्होंने ‘सद्भावना जाहिर करने की एक कोशिश’ बताई। वे जानते थे कि इसका विरोध होगा। उसे क्षीण करने के लिए महात्मा गांधी के दोस्ती और सद्भावना के व्यवहार का वास्ता दिया।
नेहरू अक्सर अपना बचाव ऐसे ही करते थे। वे लक्ष्य संबंधी प्रस्ताव को हर मर्ज की रामबाण दवा समझते थे। इतना तो था ही कि वह प्रस्ताव संविधान की एक रूपरेखा प्रस्तुत कर रहा था,जिसमें महात्मा गांधी के सपने का भारत ओझल था। नेहरू ने अपने भाषण में उन आशंकाओं को भी चिह्नित किया जो तब उठ रहे थे। भारत विभाजन का खतरा सबसे बड़ा था।
इसलिए उन्होंने संविधान सभा के मंच से भारत की जनता को उसकी जिम्मेदारी बताई। उसमें नेतृत्व का दायित्व भी शामिल था। संविधान सभा के नेतृत्व ने अपना दायित्व निभाया होता तो महात्मा गांधी के सपनों का संविधान बनता। जवाहरलाल नेहरू ने उस दिन कहा कि ‘संविधान सभा ऐसा समझे कि अब क्रांतिकारी परिवर्तन शीघ्र ही होने वाले हैं। क्योंकि जब किसी राष्ट्र की आत्मा अपने बंधनों को तोड़ बैठती है तो वह एक अनोखे ढंग से काम करने लगती है और उसे अनोखे ढंग से काम करना ही चाहिए। हो सकता है कि जो संविधान यह सभा बनाए, उससे स्वतंत्र भारत को संतोष न हो। यह सभा आने वाली पीढ़ी को या उन लोगों को, जो इस काम में हमारे उत्तराधिकारी होंगे, बांध नहीं सकती।’ वह आज भी प्रासंगिक है।
कांग्रेसी, कम्युनिस्ट और उनके ही जैसे वे लोग जो बिना जाने-समझे लोगों को गुमराह कर रहे हैं कि संविधान खतरे में है, वे क्या नेहरू के कहे पर विचार कर स्वयं का सुधार करेंगे? क्या वे देश से माफी मागेंगे? जिस जवाहरलाल नेहरू ने साफ-साफ समझा और समझाया कि संविधान में बदलाव का हर पीढ़ी को अधिकार है, उस महान नेता का नाम जपने वाले उनको ही लज्जित करने पर अमादा हैं। ऐसे लोगों को नेहरू का वह भाषण बार-बार पढ़ना चाहिए।
संभवत: ऐसे ही लोगों के लिए उन्होंने यह भी कहा था कि ‘इसलिए हमें अपने काम के छोटे-मोटे ब्यौरों पर माथापच्ची नहीं करनी चाहिए। ये ब्यौरे कभी भी टिकाऊ न होंगे अगर उन्हें हमने झगड़ा करके तय कर पाया। उसी चीज के टिकाऊ होने की संभावना है जिसे हम सहयोग से एकमत होकर पाएंगे। संघर्ष करके, दबाव डालकर, धमकी देकर हम जो कुछ भी हासिल करेंगे वह स्थाई नहीं होगा। वह तो केवल एक दुर्भावना का सिलसिला छोड़ जाएगा।’
भारत की महानता पर उन्हें गर्व था। वे मानते थे कि भारत विश्व रंगमंच पर अपनी बड़ी भूमिका निभाएगा। इस दृष्टि से नेहरू ने दो प्रवृतियों में दुनिया को देखा। रचनामूलक मानव प्रवृति और विनाशमूलक दानव प्रवृति। भारत रचनामूलक प्रवृति का वाहक बनेगा, यह विश्वास उन्हें था। जवाहरलाल नेहरू ने अपने भाषण के अंत में कहा कि ‘यह प्राचीन भूमि विश्व में अपना समुचित और गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त करे और संसार की शांंति और मानव कल्याण की उन्नति के लिए अपना पूरा हार्दिक सहयोग दे।’ संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने सदस्यों से कहा कि ‘आपके वोट देने का समय अब आ गया है।’ ‘अवसर की महत्ता को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक सदस्य अपने स्थान पर खड़े होकर समर्थन दे।’ एक बड़े संकल्प के पूरा होने का वह क्षण था। संविधान सभा के सदस्य उस भावना से भरे हुए थे। इसलिए सदस्यों ने अध्यक्ष के निर्देश का अक्षरश: पालन किया। संविधान सभा की कार्यवाही में तो सिर्फ शब्द ही लिखे हुए हैं, जो किसी को भी उस अतीत में पहुंचा कर भावविभोर हो जाने के सोपान बनने में समर्थ हैं।