हमारे यहां हर महीने का कोई न कोई देवता है और कोई न कोई ग्रंथ। माघ महीने में महाभारत के शांति और अनुशासन पर्व को पढ़ने की बात कही गई है। यह सूर्य के उत्तरायण होने का समय होता है और उसी की प्रतीक्षा में भीष्म पितामह महाभारत के युद्ध के बाद भी काफी दिन तक शर-श्यया पर पड़े रहे थे। युद्ध खत्म हो जाने के बाद उसमें हुए विनाश ने महाराज युधिष्ठिर को काफी विचलित किया। उनके मन में यह इच्छा हो आई थी कि राज-पाट छोड़कर वन में चले जाएं और संन्यास आश्रम में रहें। उनके दुख को समाप्त करने की उनके भाइयों, शुभ चिंतकों और भगवान कृष्ण जैसे सुहृदयों ने बहुत कोशिश की। व्यास ऋषि के प्रवचन के बाद उन्होंने राज-पाट चलाते रहने का फैसला भी कर लिया मगर दुख उनके मन से निकल नहीं पाया। इन्हीं दिनों भगवान कृष्ण ने उन्हें शर-श्यया पर पड़े भीष्म पितामह के पास जाने और उनसे नीति धर्म का उपदेश ग्रहण करने का सुझाव दिया था। महाभारत के शांति पर्व और अनुशासन पर्व में भीष्म पितामह के उपदेशों का ही वर्णन है।
इस ग्रंथ को हमारे यहां पुराने समय में बहुत महत्व दिया जाता रहा है। कहा गया है कि चारों वेद, अट्ठारहों पुराण, सारे धर्मशास्त्र, व्याकरण, ज्योतिष, छंदशास्त्र, शिक्षा कल्प और निरुक्त यानी सभी वेद-वेदांग हमें जो कुछ बताते हैं उसका ज्ञान अकेले महाभारत से मिल जाता है। महाभारत के शांति पर्व और अनुशासन पर्व का भी बहुत महत्व बताया जाता रहा है। जिस तरह श्रीमद्भागवद् गीता ब्रम्ह तत्व की व्याख्या करके मोक्ष का रास्ता दिखाती है उसी तरह ये दोनों पर्व नीति की व्याख्या करके सनातन धर्म का रास्ता दिखाते हैं। इनको श्रद्धा से तो हमेशा ही पढ़ा जाता रहा है। लेकिन उन्हें तुलनात्मक विवेचन की दृष्टि से भी पढ़ने की जरूरत है। दुनिया की दूसरी सभ्यताओं में भी ऐसे ग्रंथ लिखे गए हैं जिनमें समाज को चलाने और व्यक्ति के आचरण को अनुशासित करने की नीतियों का ब्यौरा दिया गया है। दूसरे धर्माें में भी इस तरह के ग्रंथ रचे गए हैं। महाभारत से उनकी तुलना करते हुए हम दुनिया की कहीं अधिक पैनी समझ पा सकते हैं।
आज भी दुनिया जिस तरह के कानूनी ढांचे और उनकी बुनियादी अवधारणाओं से चलाई जा रही है उसका अपना नैतिक आधार है। इस आधार की पर्याप्त जांच-परख नहीं हुई है। पिछले पचास-सौ साल में दुनिया भर में यूरोप की जिस औद्योगिक सभ्यता का विस्तार हुआ है उसने यूरोप के राजनैतिक ढांचे और सामाजिक दृष्टिकोण के बारे में एक अंध स्वीकृति पैदा कर रखी है। अगर यह स्वीकृति गहरे सोच-विचार और जांच-परख के बाद हुई होती तो दुनिया के दूसरे देश और सभ्यताएं इस ढांचे को और उसके पीछे के विचारों को अपने यहां अधिक आत्मविश्वास और कल्पनाशीलता से लागू कर सकते थे। ऐसा नहीं हुआ इसलिए जब भी उनके सामने कोई समस्या आती है उनके हाथ-पांव फूलने लगते हैं और उन्हें पश्चिमी देशों के विशेषज्ञों की शरण लेनी पड़ती है।
यह सिलसिला हमें तो शुरू कर ही देना चाहिए। अगर हम अपने देश के संविधान और देश को चलाने के दूसरे आधुनिक मान लिए गए विचारों और मान्यताओं की तुलना महाभारत के शांति पर्व और अनुशासन पर्व से करना चाहें तो उसके दो तरीके हो सकते हैं। एक तरीका तो वह है जिसके द्वारा आज हमारे विश्वविद्यालयों में आज की संस्थाओं और विचारों को कसौटी मानकर पुरानी संस्थाओं और विचारों को जांचने की कोशिश की जाती है। यह तरीका भी उपयोगी हो सकता है अगर हम आज की संस्थाओं और विचारधाराओं को ठीक से समझ लें। वे किन परिस्थितियों की देन हैं और किन उद्देश्यों के लिए गढ़ी गई हैं इसे थोड़ी तटस्थता से समझ लिया जाना चाहिए। उनके बारे में आज जो अंध मोह बना हुआ है उसे एक तरफ सरका कर ही यह समझ हासिल की जा सकती है। तुलना दरअसल संस्थाओं की और विचारधाराओं की उतनी नहीं होती जितनी उनके उद्देश्य की होती है। क्योंकि संस्थाओं और विचारधाराओं का स्वरूप तो हमेशा बदलता ही रहता है।
लेकिन तुलना के लिए एक दूसरा तरीका भी इस्तेमाल किया जाना चाहिए। सौ-डेढ़ सौ बरस पहले तक हमारे यहां ऐसे पंडितों की कमी नहीं थी जो हमारी पुरानी शास्त्रीय कसौटियों के आधार पर पश्चिमी संस्थाओं और विचारधाराओं की जांच रहे थे। हो सकता है उनके जमाने में पश्चिमी सभ्यता के इतिहास और स्वरूप के बारे में उतनी जानकारी न उपलब्ध हो जितनी आज है। अगर उपलब्ध रही भी हो तो वे शायद इतने साधन संपन्न नहीं बचे थे कि इस जानकारी तक अपनी पहुंच बना लेते। जिन लोगों की पहुंच हो सकती थी उन्होंने तो आखिर एक तुलनात्मक विवेचन किया ही था। उदाहरण के लिए महात्मा गांधी ने कम से कम भारत और यूरोप में पैदा हुई सभ्यता का गहरा तुलनात्मक खाका खींचा है। उन्होंने जो कुछ भी कहा और लिखा है उसे न केवल हमारे देश में बल्कि दुनिया भर में गंभीरता से लिया गया। उनकी बातों से सहमति और असहमति अपनी जगह रह सकती है। लेकिन यह कोई नहीं कह सकता कि गांधीजी ने आज की दुनिया को समझने के लिए पुरानी और गलत कसौटियों का सहारा लिया था।
यह अफसोस की ही बात है कि वह वही तुलनात्मक दृष्टि आज उतनी नहीं दिखाई देती। अपने पुराने पंडितों को हमने शिक्षा और पांडित्य के दायरे के बाहर खदेड़ दिया है। नए पंडितों में कम ही लोग ऐसे हैं जिनको पुराने शास्त्रीय ज्ञान की गहरी तो क्या साधारण समझ भी हो। अगर उन्हें पुरानी शास्त्रीय कसौटियों का इस्तेमाल करना हो तो उनकी भारतीय वाङ्मय की जानकारी बहुत गहरी और समृद्ध होनी चाहिए। इस तरफ हमारे ज्ञान-विज्ञान को बढ़ाने में लगे लोगों का ध्यान नहीं गया, यह बहुत अफसोस की बात है। देश में दस-बारह केंद्र तो ऐसे होने चाहिए थे जहां पुरानी शास्त्रीय परम्परा मे ऊंची शिक्षा दी जा सके और जहां से निकले हुए लोग आज की दुनिया को अपनी कसौटियों पर कस सकें।
हमारी परंपरागत शिक्षा के कुछ केंद्र आज भी बचे हुए हैं और वहां अध्ययन-अध्यापन की कड़ी भी बनी हुई है। लेकिन इन केंद्रों को पूरे समाज में जो आदर और सम्मान मिलना चाहिए, उनकी प्रतिभा और योग्यता का जिस तरह उपयोग होना चाहिए वह सबकुछ नहीं हो रहा। इसलिए इन केंद्रों की शिक्षा-दीक्षा में वह उत्साह और सोद्देश्यता नहीं बची जो उनके शास्त्रीय ज्ञान को तेजस्विता दे सके। उदाहरण के लिए काशी में आज भी पुरानी पाठशालाएं चलती हैं। विभिन्न दर्शनों और संप्रदायों के कुछ ज्ञानी लोग भी अब तक बचे हुए हैं। कुछ दिन पहले एक उनमें काफी आत्म सम्मान और अपने ज्ञान की महत्ता का बोध भी दिखाई देता था। वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय से इन पंडितों को जोड़ने की जब पहले पहल कोशिश की गयी तो पंडितों ने इस प्रस्ताव को तिरस्कारपूर्वक ठुकरा दिया। उन्होंने कहा कि वे ज्ञान के दुकानदार नहीं हैं इसलिए वेतनभोगी होकर विश्वविद्यालय परिसर तक चल कर पढ़ाने क्यों जाएं। तब विश्वविद्यालय ने ही समझदारी दिखाई थी और तय हुआ था कि छात्र ही उनके पास पढ़ने जाएंगे और वेतन नहीं गुरु दक्षिणा ही दी जाएगी। अब शायद ऐसे लोग न बचे हों और बचे भी होंगे तो उंगलियों पर गिरने लायक ही होंगे। इन पुराने केंद्रों को फिर से जीवंत बनाया जा सकता है। अगर हम अपनी पुरानी शास्त्रीय परंपरा के महत्व को ठीक से समझ लें। ज्यादातर लोगों में तो यह नादानी से भरा हुआ विचार बैठा हुआ है कि इन पंडितों के पास किताबी और आज के जमाने के ख्यालसे निरर्थक ज्ञान ही है। अधिकांश लोगों को यह बात नहीं समझ में आती कि हमारे इस शास्त्रीय ज्ञान ने चार-पांच हजार बरस तक फलती-फूलती रही हमारी सभ्यता के हर बारीक और मोटे-ताने बाने को खड़ा होने में मदद की थी। कोई भी सभ्यता अटकन-पच्चू की तरह नहीं हो जाती। उसके पीछे काफी बड़ी वैचारिक तैयारी और व्यावहारिक कुशलता की जरूरत होती है।
नादानी से भरा हुआ एक दूसरा विश्वास यह है कि हमारे देश में तो बड़ी भारी विविधता है। इसलिए देश में कोई एक सभ्यता नहीं रही। हर जगह की अपनी सभ्यता रही है और उसके अपने विचार और संस्थाएं रही हैं। यह विचार और संस्थाएं किसी शास्त्रीय चिंतन के आधार पर नहीं निकलीं बल्कि सहज बुद्धि से निकली थीं और जहां जैसी जरूरत पड़ी वैसा ताना-बाना खड़ा कर लिया गया। यह बात तो मूर्खतापूर्ण ही है। हमारी सभ्यता का शास्त्रीय आधार तो था ही देशभर के बारे में हमारे पंडितों को अच्छी जानकारी भी रहती थी और वे उसके उचित अनुचित का निर्णय करते थे। दक्षिण भारत के बारे में लिखी अपनी प्रसिद्ध किताब मे बर्टेन स्टीन ने एक किस्सा दिया है। मद्रास प्रेजीडेंसी के शुरू के ही दिनों में जब यूरोप के कुछ विद्वान तमिलनाडु के पुराने इतिहास को समझने में लगे थे तो उन्हें वहां की दाएं बाजू सेनाओं की गुत्थी समझ में नहीं आई थी।
जब अंग्रेज प्रशासकों से सहायता ली गई तो खोज करने पर पता चला कि इसका जवाब मदुरै के पंडितों के पास हो सकता है। वहां के पंडितों ने इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश की। जब वह नहीं सुलझी तो उन्होंने सुझाव दिया कि उसे पुरी पंडितों के पास भेजना चाहिए। उन्हें इस बात का जरूर अंदाज होगा। पुरी के पंडितों को भी इस गुत्थी को सुलझाने में सफलता नहीं मिली। उन्होंने फिर यह सुझाव दिया कि गुत्थी काशी के पंडितों के पास भेजी जाए क्योंकि वहां सबसे बड़े विद्वान हैं और उन्हें अंदाज जरूर होगा। अंग्रेजों की समस्या काशी के पंडित भी नहीं सुलझा पाये। मगर इसकी वहज यह नहीं थी कि उन्हें तमिलनाडु में क्या होता रहा है इसकी जानकारी नहीं थी। वजह शायद यह थी कि अंग्रेज विद्वानों ने सवाल तो अपनी समझ के हिसाब से रखे थे। हमारे पंडित उस तरह से चीजों को देखने के आदी नहीं थे। इसलिए उनसे कोई जवाब नहीं बन पड़ा होगा।
जब तक हम अपने शास्त्रीय चिंतन की इस परंपरा का तेज नहीं लौटाते हमें अपना वर्तमान और भविष्य सुधारने में सुविधा और सहूलियत दिखाई नहीं देगी। उसके लिए जो सहज आत्मविश्वास और समझबूझ चाहिए वह हमारे भीतर नहीं आ पाएगी। अपने इस शास्त्रीय चिंतन की कसौटी से हम आज की दुनिया और उसकी संस्थाओं व उसके विचार को जांच परख सकते हैं। इस जांच परख में हमारी अपनी कसौटियां भी सान पर चढ़ेंगी। उनके बारे में भी नये सिरे से मनन और चिंतन होगा। उन कसौटियों का अर्थ और स्वरूप भी बदलेगा। हो सकता है कई कसौटियां हमें छोड़नी भी पड़ें। लेकिन अपनी कसौटियों के पीछे की सनातन दृष्टि को हमें छोड़नें की जरूरत नहीं पड़ सकती। यह बात तो सब मानते ही हैं। हमारी सनातन दृष्टि की श्रेष्ठता हमारे ही यहां नहीं दुनिया भर में स्वीकारी जाती रही है।
इस काम की अब तक जो उपेक्षा हुई है उसने कई समस्याएं खड़ी कर दी हैं। हमारे शास्त्रीय चिंतन का बहुत सा बहुमूल्य हिस्सा तो पराधीनता के दौर में नष्ट हो गया। जो बचा है उसके भी अर्थ और उद्देश्य के बारे में अनेक गलतहमियां फैल गई हैं। पिछले करीब सौ साल में हमारे शास्त्रीय ग्रंथों की काफी उलटी-सीधी व्याख्याएं होती रही हैं। इन सभी व्याख्याओं को तो हमें अग्नि के हवाले करना पड़ेगा। ये व्याख्याएं हमारे शास्त्रीय चिंतन की अविच्छिन्नता के आड़े आ रही हैं। हमारे शास्त्रों और ज्ञान-विज्ञान के दूसरे ग्रंथों की सही व्याख्याओं के लिए हमें उनकी आंतरिक संगति देखनी पड़ेगी।
अभी तो यह हिसाब नहीं लगाया गया कि हमारे देश में और हमारी पुरानी सभ्यता की परिधि में रहे दूसरे देशों में हमारे ज्ञान-विज्ञान के ग्रंथों की कितनी पांडुलिपियां उपलब्ध हैं। उकी संख्या 60-70 लाख से लगाकर करोड़ों तक बतायी जाती है। अगर हम उसमें तिब्बती या दूसरे बौद्ध साहित्य के ग्रंथों को भी जोड़ लें जो हमारे ज्ञान विज्ञान की स्थाीय शाखाओं के रूप में फले फूले तो यह संख्या और अधिक बढ़ जायेगी। इन सब ग्रंथों के बारे में देश के दस-बीस केंद्रों में पूरी जानकारी रहनी चाहिए और हजार-पांच सौ विद्वानों को उन ग्रंथों की पूरी जांच पड़ताल में बैठा लेना चाहिए। इस पर हजार-पांच सौ करोड़ रुपया खर्च करना पड़े तो हिचकिचाना नहीं चाहिए। उससे ज्यादा पैसा तो हम सफेद हाथी बने हुए अपने आज के विश्वविद्यालयों पर हर साल खर्च करते हैं।
यह काम जरूरी तो है लेकिन काफी नहीं होगा। अपने शास्त्रीय चिंतन की सही समझ तो हमें गुरु-परंपरा से ही मिल सकती है और गुरु-परंपरा के लिए यह जरूरी है कि हम अपने पुराने पंडितों के ज्ञान और प्रतिभा को उचित सम्मान देना शुरू करें। और उसका उचित उपयोग करने के लिए उत्सुक रहें। ये पुराने पंडित ही हमारे भीष्म पितामह हैं। भगवान कृष्ण ने महाराज युधिष्ठिर से भीष्म पितामह के पास जाने का आग्रह करते हुए कहा था ‘‘नर श्रेष्ठ भीष्मजीे स्वर्गवासी हो जाने पर यह पृथ्वी अमावस्या की रात के समान श्रीहीन हो जायेगी। इसीलिए आप गंगा-नंदन भीष्मजी के पास चलकर उनके चरणों में प्रणाम कीजिए और आपके मन में जितने संदेह हों उन सबको उनसे पूछिए। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थों के स्वरूप को, होता, उद्गाता, ब्रम्हा और अधवर्यु से संबंध रखने वाले यज्ञादि कर्मों को तथा चारों आश्रमों और राजाओं के समस्त धर्मों को आप उनसे पूछिए। कौरव वंश का भार संभालने वाले भीष्मरूपी सूर्य जिस समय अस्त हो जायेंगे उस समय सब प्रकार के ज्ञानों का प्रकाश नष्ट हो जायेगा। इसीलिए मैं आपको वहां चलने के लिए कह रहा हूं।’’ हमारे सामने भी लगभग वही स्थिति है जैसी महाराज युधिष्ठिर के सामने थी।
भारतीय सभ्यता के सूत्र से साभार