इंदिरा गांधी की धूर्तताभरी चालबाजी

रामबहादुर राय

इमरजेंसी के 50 साल पूरे हो रहे हैं। देश में इमरजेंसी की घोषणा को इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र के बचाव में मजबूरन उठाया गया कदम कहा। उनके विरोधियों ने उसे बड़ा पाखंड बताया है। आखिर सच क्‍या है? यह प्रश्‍न आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना 50 साल पहले था।

झूठे शोरगुल मचाकर इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगवाई। जिसे उन्होंने लोकतंत्र के बचाव में मजबूरन उठाया गया कदम कहा। उनके विरोधियों ने उसे बड़ा पाखंड बताया। सच क्या है? यह प्रश्‍न जितना प्रासंगिक तब था, उतना ही आज इमरजेंसी के 50 साल पूरे होने के समय भी है। यह कौन नहीं जानता कि समय की धारा में सच को हमेशा के लिए किनारे करना संभव नहीं होता है! इमरजेंसी के सच पर प्रकृति का यह नियम पूरी तरह सटीक बैठता है। इंदिरा गांधी की इमरजेंसी के 50 साल पूरे हो रहे हैं।

याद करें कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी की रेडियो पर जब घोषणा की तब क्या कहा? पहली बात कही, ‘लोकतंत्र के नाम पर लोकतंत्र का चलना ही असंभव बना दिया गया।’ दूसरी बात कही, ‘कुछ लोगों ने तो सभी सीमाएं पार कर हमारी सेना को विद्रोह करने तथा पुलिस को भी बगावत करने के लिए उभाड़ना शुरू कर दिया।’ तीसरी बात कही, ‘मैं प्रधानमंत्री रहूं या न रहूं, यह महत्व की बात नहीं है। महत्वपूर्ण है प्रधानमंत्री का पद, जिसकी गरिमा व प्रतिष्‍ठा को योजनापूर्वक गिराने का प्रयास लोकतंत्र के हित में नहीं है।’ चौथी बात कही, ‘हमने यह सब पूरे धैर्य के साथ अब तक सहा। पर हमें पता चला कि शांति व्यवस्था को भंग करने वाले कार्यक्रम देशभर में चलाने की घोषणा की गई है। इसलिए राष्‍ट्र की अखंडता इस समय कठोर पग की मांग करती है।’ अंतिम बात उनकी निष्‍कर्ष स्वरूप थी, ‘इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर राष्‍ट्रपति ने आपात स्थिति की घोषणा की है।’

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रेडियो से अपने भाषण में ये पांच खास बातें बताई। 26 जून, 1975 की सुबह इन झूठी बातों पर मिली-जुली प्रतिक्रिया थी। उसके तीन स्तर हैं। तीसरे स्तर पर साधारण नागरिक हैं। उससे ऊपर वे हैं जो लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से किसी न किसी प्रकार से जुड़े हुए थे। आमतौर पर इमरजेंसी की जब भी चर्चा होती है कि तब क्या हुआ और क्यों हुआ तो इन्हीं दो छोरों से प्राप्त जानकारी की परिधि में विचार का घोर मट्ठा होता रहता है। सच को जानने के लिए इस समय एक ऐसा बड़ा स्रोत उपलब्ध है, जिसे अपनी समझ के लिए दूसरा स्तर कह सकते हैं। यह दूसरा स्तर क्या है? इसे जानना चाहिए। ऐसा भी नहीं है कि लोग इससे अनजान हैं। लेकिन इस दूसरे स्रोत पर जितना फोकस किया जाना चाहिए था उसका बड़ा अभाव है। इसके कारणों में गहरे उतरने का यह समय नहीं है।

दूसरे स्तर पर छिपे खजाने को आंख खोलकर देखने का यह समय है। इस खजाने में इंदिरा गांधी के आस-पास जो अत्यंत महत्वपूर्ण लोग थे उनके अपने संस्मरण हैं और डायरियां हैं। इन महत्वपूर्ण लोगों के अनेक प्रकार हैं। कुछ तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यालय में लंबे समय से खास पदों पर थे। दूसरे वे हैं जो इंदिरा गांधी के सामाजिक और राजनीतिक रूप से गहरे दोस्त थे। ऐसे लोगों की एक लंबी सूची है। इनके संस्मरण सत्य की उद्घोषणा करते हैं। उन लोगों ने इमरजेंसी के पहले, इमरजेंसी के दिनों में और बाद में अपने संस्मरण लिखे। वे उनकी डायरियों पर आधारित हैं। यादों के झरोखे से वे संस्मरण लिखे गए होते तो उतने प्रामाणिक नहीं होते जितने वे प्रामाणिक लगते हैं। ऐसे संस्मरणों में एक पुस्तक है, ‘आॅल दीज इयर्स।’

यह राज थापर की डायरियों के पन्नों से बनी है। यह दुर्लभ पुस्तक है। यह मेरी प्रिय पुस्तकों में से एक है। भारत की कम्युनिस्ट राजनीति को समझने के लिए इससे अधिक सत्यपरक दूसरी पुस्तक की जानकारी मुझे नहीं है। इसे प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव की अध्‍यक्षता में हो रहे कांग्रेस अधिवेशन के लिए तिरुपति जाते समय खरीदा था। वह तिरुपति अधिवेशन 1992 में था। यह पुस्‍तक तभी छपकर आई थी। तब से यह पुस्तक मेरे लिए एक संदर्भ ग्रंथ है। इस पुस्तक का बड़ा महत्व है। क्यों? यह जानने का विषय भी है। राज थापर वे बाद में बनी, बचपन में वह राज मल्होत्रा थीं। रोमेश थापर से विवाह के बाद रोमेश-राज थापर की जोड़ी उदित हुई। कम्युनिस्ट तौर-तरीकों से मन उखड़ने के बाद वे मुंबई से दिल्ली आ गए। चर्चित अंग्रेजी मासिक पत्रिका ‘सेमिनार’ निकाला। उसका प्रभाव राष्‍ट्रीय और अंतरराष्‍ट्रीय था। इसका एक बड़ा कारण बौद्धिक विमर्श में गंभीर हस्तक्षेप करने की ‘सेमिनार’ की क्षमता थी। उस रोमेश-राज थापर की इंदिरा गांधी से खूब छनती थी।

जिस दिन इंदिरा गांधी को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने प्रधानमंत्री पद से हटाया, उस दिन की डायरी में राज थापर ने लिखा कि ‘हम सुबह दफ्तर पहुंच गए। हाईकोर्ट के निर्णय की जानकारी मिली। विश्‍वास नहीं हुआ। इसलिए गिरिलाल जैन को पूछा। खबर सच थी।’ वे लिखती हैं, ‘गजब की मानसिक उत्तेजना थी। वास्तविक खतरे के संकेत दिखे। एक पहाड़ पिघलता नजर आया। ऐसी मानसिक स्थिति में सोचा कि इंदिरा गांधी इस पराजय को स्वीकार नहीं करेगी। अपनी पूरी ताकत से वे हमलावर होंगी। इसलिए रोमेश से मैंने कहा कि देर न हो जाए, तुम इंदिरा गांधी से मिलने का समय मांगो।’राज थापर का यह संस्मरण उनकी पुस्तक के 22वें अध्याय में है। जिसका शीर्षक है, ‘नसबंदी’। किसकी नसबंदी?अनुमान लगांएगे तो इमरजेंसी की मनमानियां याद आती जाएंगी! उसमें एक ‘नसबंदी’ भी है।

ऐसा संस्मरण कौन लिख सकता है? वही जो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से वैचारिक और घरेलू संबंध निभाता रहा हो। राज थापर ने इंदिरा गांधी के बारे में जो अनुमान लगाया वह सटीक था। उन्हें अंदर-बाहर से वे जानती थीं। उनके मनोभावों से परिचित थीं। उनकी कई कमियों को नजरअंदाज कर उनके राजनीतिक इरादों की वे प्रशंसक भी थीं। मानवीय मोह का एक बंधन भी था। फिर भी वे सजग थीं। दूर की आहटों को सुनने में समर्थ थीं। इसीलिए अपने सहजीवी, मित्र, पति और संपादक को सलाह दी कि इंदिरा गांधी को लोकतंत्र की ‘लक्ष्मण रेखा’ में ही रहने के लिए तत्क्षण प्रयास करना चाहिए। इसके लिए उनसे बात करना जरूरी है।

राज थापर जानती थीं कि इंदिरा गांधी की एक चांडाल चौकड़ी है। चापलूसों का वहां जमघट है। वे उन्हें चने की झाड़ पर चढ़ाएंगे। पर उनको भ्रम में रखेंगे कि जिस चने की झाड़ पर आप खड़ी हैं, वह एवरेस्ट है। राज थापर इंदिरा गांधी की परम हितैषी थीं। अगर न होतीं तो रोमेश थापर को इस तरह तत्पर होकर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से निजी मुलाकात करने के लिए कभी नहीं कहतीं। उनके संस्मरण का यह अंश अत्यंत भाव प्रधान है। हर शब्द बोलता है। मुहावरे की भाषा में कहें तो राज थापर के लिखे हर शब्द सिद्ध हैं। समय ने उन पर न धूल डाली है और न उसे इतिहास के अंधेरे में गिराया है। राज थापर की सलाह कहें, निर्देश कहें या आत्मीय आदेश, जो भी कहें, वह क्या था? ‘फौरन फोन करो।’ उसका रोमेश थापर ने पालन किया। उन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निवास पर फोन मिलाया। याद रखिए, वे दिन चलते-फिरते फोन के नहीं थे।

रोमेश थापर ने इंदिरा गांधी से मिलने का समय मांगा। राज थापर की डायरी में दर्ज है, ‘उषा का पलट कर फोन आया। मैडम (इंदिरा गांधी) सैकड़ों लोगों के बीच बनी हुई हैं। रोमेश चाहे तो आ सकते हैं। उनका स्वागत है। लेकिन इंदिरा गांधी उनसे अलग से मिल नहीं पाएंगी।’ इस सूचना में दो बातें हैं। फोन पर इंदिरा गांधी स्वयं नहीं आई। जो महिला उस समय फोन पर बैठी थी वह परिचित नाम है। उसने रोमेश थापर को जो जवाब दिया वह उसका अपना निर्णय नहीं रहा होगा। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से पूछे बगैर यह नहीं कहा होगा जो कहा। प्रधानमंत्री निवास में रोमेश-राज थापर का महत्व इसमें छिपा हुआ है। लेकिन अपने संस्मरण में राज थापर ने इस पर जो लिखा उससे पता चलता है कि रोमेश थापर का स्वभाव कैसा था। वे भीड़-भाड़ से बचने वाले व्यक्ति थे।

एक खतरा यह भी था कि वे उस समय प्रधानमंत्री निवास में जाते तो बात बहुत दूर तक पहुंचती। जिसमें सच्चाई कम होती। इसलिए रोमेश थापर नहीं गए। राज थापर ने इसे सही ठहराया। कुछ दिनों बाद इन्हें मालूम हुआ कि दोपहर में भोजन के दौरान इंदिरा गांधी ने अपने छोटे बेटे संजय गांधी को बताया कि रोमेश थापर मुझसे मिलना चाहते थे। संजय गांधी का उत्तर था, ‘निश्चित ही नहीं’। यह पहला अवसर था जब रोमेश-राज थापर को इंदिरा गांधी के असली चेहरे का दर्शन हुआ।‘इमरजेंसी’ थोपे जाने के बावजूद वे ‘सेमिनार’ निकालते रहे। राज थापर के संस्मरण में एक अध्याय है, ‘अकेले नहीं’। इस अध्याय में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यालय में प्रमुख सचिव प्रो. पृथ्वीनाथ धर का अंतरंग कथन है। जिसमें वे रोमेश-राज थापर से अपने सरकारी निवास पर टहलते हुए बात कर रहे हैं। उनका मत है कि इंदिरा गांधी ने धूर्तताभरी चालबाजी से इमरजेंसी लगवाई। यह बात जुलाई, 1975 की रात में हुई। क्योंकि ‘सेमिनार’ पर सेंसरशिप की तलवार लटक रही थी। इस सिलसिले में प्रोफेसर धर के घर पर जो अंतरंग वार्ता हुई उसमें उन्होंने अपना मन खोला। राजनीतिज्ञ और न्यायमूर्ति रहे मोहम्मद करीम छागला का भी यही मत था। इसे उन्होंने अपने संस्मरण में लिखा। वे भारत के शिक्षामंत्री भी थे। उन्होंने अपना मत संविधानगत प्रक्रियाओं के अध्ययन से बनाया होगा। लेकिन प्रोफेसर धर का मत इसलिए ज्यादा महत्व रखता है क्योंकि वे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यालय में 1973 से प्रमुख सचिव थे। वे 1977 तक अपने पद पर थे। एक बड़े अर्थशास्त्री थे। रोमेश थापर ने ही उन्हें 1965 में इंदिरा गांधी से मिलवाया था।

राज थापर के संस्मरण में एक अध्याय है, ‘अकेले नहीं’। इस अध्याय में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यालय में प्रमुख सचिव प्रो. पृथ्वीनाथ धर का अंतरंग कथन है। जिसमें वे रोमेश-राज थापर से अपने सरकारी निवास पर टहलते हुए बात कर रहे हैं। उनका मत है कि इंदिरा गांधी ने धूर्तताभरी चालबाजी से इमरजेंसी लगवाई। यह बात जुलाई, 1975 की रात में हुई।

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