एक पत्र-लेखक ने मुझे ‘प्रबुद्ध भारत’ का सितंबर का अंक भेजा है। इस अंक में संपादक ने मेरे उस उत्तर का प्रतिवाद प्रकाशित किया है, जो मैंने हाल ही में प्रकाशित उनकी लेख-माला ‘चरखा और खादी-विचार’ के संबंध में लिखा था। अगर इस प्रतिवाद से संपादक संतुष्ट हैं और पाठकों को भी संतोष होता है तो ठीक है; मैं और तर्क नहीं देना चाहता तथा अंतिम निर्णय समय और अनुभव पर छोड़ता हूं। लेकिन संपादक महोदय के उत्तर में एक बात तो विचारणीय है। संपादक ने मेरी उस टिप्पणी की उपादेयता को चुनौती दी है, जिसमें मैंने कहा था कि ‘तर्कों के आधार पर किए जा रहे विचार-विमर्श में सम्मानित दिवंगत पुरूषों के वचनों का हवाला देकर अनुमान निकालना श्रद्धास्पदों का अपमान माना जाना चाहिए।’
‘प्रबुद्ध भारत’ स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित संस्था का मुखपत्र है, इस कारण संपादक महोदय इस कथन से विशेषतया रूष्ट हुए हैं। लेकिन मैं तो अपनी बात को ठीक ही कहूंगा। मेरे विचार से तर्काश्रित वाद-विवाद में पंथ-विशेष के सदस्यों और उसके मुख-पत्रों को तो अपने पंथ के संस्थापक के वचनों को, घसीटने से बचना ही चाहिए; क्योंकि उन पर श्रद्धा न रखने वाला व्यक्ति कदाचित उक्त संस्थापक की वाणी को कोई महत्व ही न दे। यह ऐसा ही समझिए, जैसे श्रीकृष्ण के वचनों का उस व्यक्ति के लिए जो कृष्ण-भक्त नहीं है, कोई महत्व नहीं है। यह बात अनुभवसिद्ध है कि उन सभी बातों में जहां भावनाओं की अपेक्षा तर्क ही प्रधान माना जा रहा हो, महापुरूषों के लेखों से फिर चाहे वे कितने ही महान क्यों न हों, उदाहरण प्रस्तुत करना, अप्रासंगिक होता है तथा ऐसा करने से उन बातों के और अधिक उलझ जाने की संभावनाएं रहती है।
मैं संपादक महोदय और पाठकों के सामने यह बात स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैंने किसी महापुरूष के किसी कथन-विशेष के उल्लेख की आलोचना नहीं की है; मैंने यह सुझाव अवश्य दिया है कि उक्त वचनों का कोई निहितार्थ निकालने की अपेक्षा स्वयं पाठकों को इन बातों को समझने और अपने निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। उदाहरण के लिए, क्या तथाकथित ईसाइयों ने ईसा मसीह के सच्चे संदेश को नहीं तोड़ा-मरोड़ा है? क्या संदेहवादियों ने ईसा मसीह एक ही तरह के वाक्यों के बिलकुल विरोधी अर्थ नहीं निकाले हैं? इस प्रकार ‘भगवद्गगीता’ के उन्हीं श्लोकों के विभिन्न वैष्णव संप्रदायों ने क्या अगल-अलग और कभी-कभी तो विरोधी अर्थ तक नहीं निकाले हैं? किसी का वध करने के लिए भी क्या ‘गीता’ की गवाही पेश नहीं की जाती? मुझे तो वह बिल्कुल स्पष्ट लगता है कि तर्क की भी यह मांग है कि हमें किसी भी महापुरूष के, फिर चाहे जितने बड़े वे हों, वचनों को प्रमाण-रूप में प्रस्तुत करने का यत्न नहीं करना चाहिए। आश्चर्य की बात है कि जिस पत्र-लेखक ने मुझे ‘प्रबुद्ध भारत’ की प्रति भेजी थी, उसी ने भगिनी निवेदिता की दो परस्पर-विरोधी उक्तियां भी भेजी हैं। उक्तियां निम्म हैंः
अन्य लोगों की तरह उन्होंने (विवेकानंद) बिना सोचे-समझे यह स्वीकार कर लिया था कि मशीनों का प्रयोग खेती के लिए वरदान सिद्ध होगा, परंतु अब उन्होंने देख लिया है कि अमेरिका के किसान को अपने कई मील लंबे चौड़े खेत में मशीनों के उपयोग से भले ही अधिक लाभ हो, किंतु वही मशीनें भारत में छोटी-छोटी जोत के मालिक किसानों का थाड़ा बहुत हित करने के बजाए नुकसान ही अधिक करेंगी। दोनों देशों की समस्याएं भिन्न हैं, इसका उन्हें पूरी तरह विश्वास हो गया था। हर मामले में, जिनमें उत्पादन के बंटवारे की समस्या भी शामिल है, वे ऐसे सभी तर्कों को सशंक होकर सुनते थे जिनमें छोटे-मोटे हितों की उपेक्षा की बात कही जाती थी। इस प्रकार वे अनजाने ही अनेक मामलों की तरह, इस मामले में भी पुरातन भारतीय सभ्यता की भावनाओं को बनाए रखने के पक्ष में दिखाई देते थे। (‘मास्टर ऐज आई सॉ हिम’, पृष्ठ-231)
उनके (विवेकानंद) अमेरिकी शिष्य उनके उस वर्णन से सुपरिचित हो गए थे, जिसमें वे एक पंजाबी महिला का उल्लेख करते थे, जो चरखा कातते हुए, उसके स्वर में ‘शिवोष्श्हम शिवोष्श्हम’ की ध्वनि सुनती थी। इसका उल्लेख करते समय, उनके मुख पर, स्वप्निल सुख झलकने लगता था। (वही, पृष्ठ-95)
ये अंश स्वामीजी के विचारों को ठीक-ठीक ढंग से पेश करते हैं या नहीं, मैं कह नहीं सकता।
(अंग्रेजी से) यंग इंडिया, 26.9.1929