अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण भारत के लिए ईरान से तेल खरीदना लगभग असंभव हो गया है। सऊदी अरब और इराक के बाद हम सबसे अधिक खनिज तेल ईरान से ही आयात करते थे। अब हमें वैकल्पिक स्रोत तलाशने पड़ेंगे। अंतरराष्ट्रीय बाजार से तेल खरीदना हमारे लिए मुश्किल नहीं है। लेकिन ईरान से हमें जिन अनुकूल शर्तों पर तेल मिलता था, वह अन्यत्र नहीं मिल सकता।
अमेरिका द्वारा ईरान पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों ने भारत के सामने दो कठिनाइयां पैदा कर दी हैं। अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण भारत के लिए ईरान से तेल खरीदना लगभग असंभव हो गया है। सऊदी अरब और इराक के बाद हम सबसे अधिक खनिज तेल ईरान से ही आयात करते थे। अब हमें वैकल्पिक स्रोत तलाशने पड़ेंगे। अंतरराष्ट्रीय बाजार से तेल खरीदना हमारे लिए मुश्किल नहीं है। लेकिन ईरान से हमें जिन अनुकूल शर्तों पर तेल मिलता था, वह अन्यत्र नहीं मिल सकता। ईरान से मिलने वाले तेल के दामों में काफी स्थिरता थी। उसके लिए भुगतान की अवधि भी लंबी थी और उसकी सुरक्षित आपूर्ति के लिए बीमा आदि की सुविधाएं भी थीं।
इतनी अनुकूल शर्तों पर हमें अन्यत्र तेल प्राप्त करना आसान नहीं होगा। ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध छह महीने पहले लागू हुए थे। लेकिन अमेरिका ने भारत समेत कई देशों को प्रतिबंधों से छह महीने की छूट दी हुई थी ताकि वे तेल की आपूर्ति के वैकल्पिक प्रबंध कर सकें। वह छूट मई में समाप्त हो गई। छूट समाप्त होने से पहले भारत सरकार द्वारा यह घोषणा की गई थी कि हमारी आवश्यकता भर तेल की आपूर्ति होती रहे, इसकी व्यवस्था कर ली गई है। वह व्यवस्था क्या है, यह अभी स्पष्ट नहीं है। पर इस बीच अमेरिकी सरकार की ओर से यह बयान आया कि वह यह सुनिश्चित नहीं कर सकती कि भारत को सस्ते दामों पर तेल मिल जाए। स्पष्ट है कि अमेरिकी कंपनियां भारत को तेल बेचने के लिए उतावली हैं। लेकिन वे हमें ईरान के दामों पर तेल बेचेंगी, यह गारंटी करने को तैयार नहीं है, भारत को अपनी आवश्यकता का अधिकांश तेल आयात करना पड़ता है।
इसलिए भारतीय अर्थव्यवस्था तेल के दामों से जल्दी प्रभावित होती है। जब तेल के दाम बढ़ते हैं तो हमारे सामने व्यापार संतुलन बनाए रखने का संकट भी पैदा हो जाता है। अगर विश्व बाजार में ईरान के तेल बेचने पर पाबंदी रहेगी तो तेल के दाम बढ़ सकते हैं। इससे तेल आयातक देशों की कठिनाइयां बढ़ेंगी। भारत के सामने दूसरी कठिनाई खाड़ी के देशों में कार्यरत भारतीय नागरिकों की सुरक्षा को लेकर है। खाड़ी क्षेत्र में लगभग 80 लाख भारतीय कार्यरत हैं, अगर अमेरिका और ईरान के बीच टकराव बढ़ता है तो खाड़ी क्षेत्र में कार्यरत भारतीय नागरिकों की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी। अगर युद्ध की नौबत आई तो बड़े पैमाने पर भारतीयों को खाड़ी क्षेत्र से निकालना पड़ेगा। पर 80 लाख लोगों को सुरक्षित भारत लाना एक असंभव काम है। अमेरिका और ईरान के बीच जिस तेजी से तनाव बढ़ रहा है, उसमें कोई छोटी-सी घटना भी चिनगारी का काम कर सकती है। हाल ही में सऊदी अरब ने दावा किया कि रियाद क्षेत्र में उसके तेल पंपिंग स्टेशन पर विस्फोटक से लदे ड्रोन से हमला किया गया।
सब जानते हैं कि यमन में गृहयुद्ध छिड़ा हुआ है, उसमें प्रछन्न रूप से ईरान और सऊदी अरब का हाथ है। ईरान जिन विद्रोहियों का समर्थन कर रहा है, उनमें अनेक आतंकवादी संगठन शामिल हैं। हाउती आतंकवादी संगठन सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात पर किए गए ड्रोन हमलों की जिम्मेदारी ले रहे हैं। ईरान इन हमलों के पीछे अपना हाथ होने से इनकार कर रहा है। लेकिन अमेरिका ने धमकी दी है कि खाड़ी क्षेत्र में उसके सहयोगी देशों पर किसी तरह का हमला हुआ तो वह चुप नहीं बैठेगा। अमेरिका ने ईरान को केवल धमकी ही नहीं दी। अमेरिका में युद्ध की तैयारी के संकेत भी मिलने आरंभ हो गए हैं। अमेरिका के कार्यवाहक रक्षामंत्री ने रक्षा तैयारियों की एक योजना प्रस्तुत करते हुए बताया है कि अमेरिका के एक लाख 20 हजार सैनिकों को खाड़ी में भेजा जा सकता है। अगर अमेरिकी रक्षा प्रतिष्ठान इतने बड़े पैमाने पर अमेरिकी सैनिक खाड़ी क्षेत्र में भेजने की योजना बनाता है तो वह काफी गंभीर स्थिति होगी। अमेरिका ने 2003 में जब ईराक पर हमला किया था तो उसमें एक लाख 30 हजार अमेरिकी सैनिकों का इस्तेमाल किया गया था।
इराक में लड़ाई जितनी एकतरफा थी, उतनी ईरान में नहीं होगी। ईरान में अमेरिकी फौज को अधिक बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ सकता है। अब तक डोनाल्ड ट्रम्प बाहरी लड़ाइयों में अमेरिका की संलिप्तता के खिलाफ बोलते रहे हैं। इसी आधार पर वे सीरिया और अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों को वापस बुलाना चाहते हैं। इन दोनों जगह अब अधिक अमेरिकी सैनिक नहीं हैं। फिर भी उसे डोनाल्ड ट्रम्प ने अपनी विदेश नीति का एक लक्ष्य घोषित कर रखा है। इसलिए अभी यह कह सकना मुश्किल है कि डोनाल्ड ट्रम्प क्या अमेरिका को ईरान के साथ युद्ध में झोंकने के लिए तैयार होंगे? अगर अमेरिका को ईरान के साथ स्थल युद्ध में उतरना पड़ा तो उसके लिए और अधिक अमेरिकी सैनिकों को युद्ध में झोंकना पड़ेगा। इन सब परिस्थितियों को देखते हुए अमेरिका भी यथासंभव युद्ध से बचने की कोशिश करेगा। फिर भी तनाव बढ़ने पर कभीकभी स्थितियां नियंत्रण से बाहर हो जाती है।
राष्ट्रपति बनने के बाद डोनाल्ड ट्रम्प लगभग हर मुद्दे पर आक्रामक मुद्रा अपनाए रहे हैं। उनकी यह आक्रामक मुद्रा केवल मुद्रा हैं या वे अपने लक्ष्य पाने के लिए युद्ध का जोखिम भी उठा सकते हैं, इसके बारे में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। पर दूसरे महायुद्ध के बाद से अमेरिका निरंतर एक से दूसरे युद्ध में उलझता रहा है। इस सिलसिले में उसके शांति की बात करने वाले राष्ट्रपतियों का भी रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं है। ईरान में अमेरिका के दो लक्ष्य दिखाई देते हैं। उसका घोषित लक्ष्य तो ईरान को एक नए नाभिकीय समझौते के लिए मजबूर करना है जो उसकी नाभिकीय शक्ति बनने की महत्वाकांक्षा पर पूर्णविराम लगा दे। बराक ओबामा के समय ईरान के साथ पश्चिमी शक्तियों का जो नाभिकीय समझौता हुआ था, उसके अनुसार केवल दस वर्ष तक ईरान के नाभिकीय कार्यक्रम पर रोक लगी थी। डोनाल्ड ट्रम्प शुरू से इस समझौते के आलोचक रहे हैं।
उनका मानना है कि ईरान को इतना विवश किया जाना चाहिए कि वह नाभिकीय शक्ति बनने की अपनी महत्वाकांक्षा छोड़ दे। इसके बिना पश्चिम एशिया में नाभिकीय हथियारों के प्रसार को नहीं रोका जा सकेगा। अगर ईरान नाभिकीय शक्ति बनता है तो इजराइल भी बनेगा। सऊदी अरब भी नाभिकीय हमले से अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करना चाहेगा। इस तरह ईरान का नाभिकीय कार्यक्रम पूरे क्षेत्र को अशांत बनाए रखेगा। ईरान का तर्क है कि अब तक उसने पिछले नाभिकीय समझौते का सभी शर्तों का पालन किया है। इसलिए भविष्य संबंधी आशंकाओं को लेकर उस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाना उचित नहीं है। अमेरिका का दूसरा लक्ष्य यह है कि ईरान पर इतना दबाव बनाया जाए कि उसकी आर्थिक समस्याएं विकट हो जाएं और ईरानी लोग अपने मजहबी शासन तंत्र के खिलाफ विद्रोह कर दें। अमेरिका को विश्वास है कि अगर ईरान का चार दशक पहले सत्ता में आया मजहबी शासन समाप्त हुआ तो ईरान का नया सत्ता प्रतिष्ठान अमेरिका के अनुकूल नीतियां अपनाएगा। अपने इसी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने पिछले दिनों ईरान के रिवोल्यूशनरी गॉर्ड को एक आतंकी तंत्र बताया था।
इसमें संदेह नहीं कि ईरान के लोग 1979 में अयातुल्ला खुमैनी के नेतृत्व में हुई मजहबी क्रांति से अब ऊब चुके हैं। पिछले चार दशक उन्हें काफी आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है। लेकिन अपनी कठिनाइयों के लिए वे अमेरिका को भी जिम्मेदार मानते हैं। इसलिए
अमेरिकी दबाव अक्सर ईरान की राजनीति में उल्टा ही प्रभाव डालता है। ईरान के कट्टर मजहबी नेता अमेरिकी विरोध की आड़ में अपनी स्थिति और मजबूत कर लेते हैं। भारत खाड़ी की आंतरिक राजनीति में बिना पड़े सभी पक्षों से अपने संबंध बनाए रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मई 2016 में ईरान की यात्रा की थी। पिछले वर्ष पहले दो महीने में ही इजराइल के प्रधानमंत्री नेतान्याहू और ईरान के राष्ट्रपति रूहानी को आतिथ्य प्रदान किया गया था। सऊदी अरब के युवराज मोहम्मद बिन सलमान फरवरी 2019 में भारत की यात्रा पर आए थे। इसके साथ-साथ संयुक्त अरब अमीरात ने पहली बार पाकिस्तान के कड़े विरोध के बावजूद इस्लामिक सहयोग संगठन की विदेश मंत्रियों की बैठक में भारत को आमंत्रित किया था। खाड़ी के सभी देशों और इजराइल के साथ बराबर संबंध बनाए रखना अब भारतीय राजनय की बड़ी चुनौती होगी।
ईरान से हमारे संबंध केवल तेल के आयात तक सीमित नहीं है। ईरान में चाबहार बंदरगाह का निर्माण करके हमने अफगानिस्तान और मध्य एशिया के लिए अपना रास्ता खोला है। गनीमत है कि अमेरिका ने चाबहार बंदरगाह को आर्थिक प्रतिबंधों से बाहर रखा है। तेल के आयात के कठिनाई में पड़ जाने के बाद भी हम ईरान से अपने संबंध कैसे सामान्य बनाए रखेंगे, यह हमारे लिए बड़ी राजनयिक चुनौती होगी। ईरान के विदेश मंत्री जवाद जरीफ की हाल की भारत यात्रा के समय भारत उन्हें कोई ठोस आश्वासन देने की स्थिति में नहीं था।
अमेरिकी प्रतिबंधों को अमान्य करके ईरान से तेल खरीदना भी एक असंभव स्थिति है। यूरोपीय यूनियन के देश यूरो में ईरान से तेल की खरीद का विकल्प तलाशते हुए यह देख चुके हैं। नई सरकार को इन सब परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा।
जवाद जरीफ रूस और चीन के बाद अमेरिकी प्रतिबंधों से उपजी स्थिति पर बात करने के लिए पहल पर भारत आए थे। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने उन्हें इतना ही कहा कि नई सरकार भारत के वाणिज्यिक हितों, ऊर्जा सुरक्षा और परंपरागत संबंधों को ध्यान में रखते हुए फैसला करेगी। ईरान से तेल की खरीद बिल्कुल बंद करने के अमेरिकी दबाव को देखते हुए हमारे विकल्प सीमित हंै। अमेरिकी प्रतिबंधों को अमान्य करके ईरान से तेल खरीदना भी एक असंभव स्थिति है। यूरोपीय यूनियन के देश यूरो में ईरान से तेल की खरीद का विकल्प तलाशते हुए यह देख चुके हैं। नई सरकार को इन सब परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा। इन सब कठिनाइयों से उबरना हमारी कड़ी परीक्षा होगी।