अमेरिका के निशाने पर ब्रिक्स समूह के नौ देश हैं जिनमें भारत, रूस और चीन प्रमुख हैं. इस समूह में ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, मिस्र, इथियोपिया, संयुक्त अरब अमीरात और ईरान शामिल हैं. ब्रिक्स में शामिल होने के लिए मलेशिया और तुर्की जैसे देश भी सदस्यता के लिए आवेदन कर चुके हैं ट्रंप का कहना है कि अगर ब्रिक्स के देश दूसरी करेंसी का समर्थन करेंगे तो उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी. क्या वे ब्रिक्स के ज़रिए रूस को निशाना बनाना चाह रहे हैं या फिर उन्हें मजबूत डॉलर के कमजोर होने का डर सता रहा है? ट्रंप के मैसेज का सीधा मतलब ये है कि अमेरिका चाहता है दुनियाभर में डॉलर का जो दबदबा है वो बना रहे.” अमेरिकी मुद्रा डॉलर की पहचान एक वैश्विक मुद्रा की बन गई है. अंतरराष्ट्रीय व्यापार में डॉलर और यूरो काफी लोकप्रिय और स्वीकार्य हैं.
दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों में जो विदेशी मुद्रा भंडार होता है उसमें करीब 65 प्रतिशत अमेरिकी डॉलर होते हैं. डॉलर की मजबूती अमेरिकी अर्थव्यवस्था की ताकत का प्रतीक है. ट्रंप ने कोई नई बात नहीं कही है क्योंकि वो अपने चुनावी अभियान में भी ऐसी ही बात कर चुके हैं.
अमेरिका के चीन और रूस के साथ रिश्ते तनाव भरे रहे हैं. जानकारों के मुताबिक यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद चीन और रूस एक दूसरे के और करीब आए हैं. दोनों देश अमेरिका के दबदबे वाली विश्व व्यवस्था को खारिज़ कर बहुध्रुवीय दुनिया बनाने की बात कर रहे हैं. यही वजह है कि दोनों देश काफी लंबे समय से दुनिया में अमेरिका मुद्रा डॉलर की बादशाहत को चुनौती देने की कोशिशें कर रहे हैं. एक साल पहले चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा था कि वे एशिया, अफ्रीका के अलावा दक्षिण अमेरिकी देशों के साथ व्यापार अमेरिकी डॉलर की बजाय चीनी मुद्रा युआन में करना चाहते हैं. रूस के साथ तो चीन पहले से ही अपनी करेंसी युआन में व्यापार कर रहा है. इसी तरह की बात रूस भी कर रहा है, क्योंकि अमेरिका और पश्चिमी देशों ने उस पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगाए हैं.
अमेरिका, यूरोपीय संघ, ब्रिटेन और उसके कई सहयोगी देश रूस के कई बैंकों को अंतरराष्ट्रीय भुगतान के अहम सिस्टम स्विफ्ट से बाहर कर चुके हैं. ब्रिक्स देश ऐसी कोशिश कर रहे हैं. अगर वो कोई वैकल्पिक करेंसी नहीं भी बना पाते हैं तो वे कम से कम एक फ़ाइनेंशियल नेटवर्क बनाने की कोशिश तो कर रहे हैं. स्विफ्ट बैंकिंग इंटरनेशनल पर अमेरिका, यूरोप और पश्चिम के देशों का दबदबा है. जब किसी भी देश पर प्रतिबंध लगते हैं तो उसे इस सिस्टम से अलग कर दिया जाता है . जिस तरह से रूस पर प्रतिबंध लगे हैं उसे देखते हुए ब्रिक्स के देश यह सोच रहे हैं कि कहीं भविष्य में उनकी बैंकिंग ब्लॉक ना कर दी जाए. यही वजह है कि ये देश फ़ाइनेंशियल नेटवर्क बनाने की कोशिश रहे हैं.”
लेकिन क्या वाकई डॉलर के विकल्प की तलाश हो रही है? ब्रिक्स देश ऐसा प्लान बना रहे थे, लेकिन इतनी जल्दी ये होने वाला नहीं है. हालांकि कुछ पहल शुरू हो चुकी है. चीन युआन में ब्राज़ील के साथ डील कर रहा है. चीन ने सऊदी अरब के साथ करेंसी को लेकर समझौता किया है और भारत ने रूस के साथ ऐसा ही समझौता किया है. ऐसे ट्रेंड शुरू हुए हैं .लेकिन डॉलर के मुकाबले किसी करेंसी को खड़ा कर पाना बहुत दूर की बात है.
ब्रिक्स दुनिया की करीब 41 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करता है. वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के मुताबिक दुनिया के जीडीपी में ब्रिक्स की हिस्सेदारी करीब 37 प्रतिशत है. ब्रिक्स में शामिल संयुक्त अरब अमीरात और ईरान ऐसे देश हैं जिनका कच्चे तेल के बाजार पर दबदबा है. हाल के सालों में ब्रिक्स देशों ने आगे बढ़कर राष्ट्रीय सुरक्षा से लेकर आर्थिक विकास के कामों में एक दूसरे का साथ दिया है. साल 2015 में ब्रिक्स के देशों ने मिलकर न्यू डेवलपमेंट बैंक की स्थापना की थी, जिसका मुख्यालय चीन स्थित शंघाई में है. इस बैंक ने हाल के सालों में चीन से लेकर दक्षिण अफ्रीका तक, कई बड़ी परियोजनाओं को फंड दिया है और ये पैसा डॉलर की बजाय स्थानीय मुद्राओं में दिया गया है. जानकारों का मानना है कि आने वाले समय में इस तरह की कोशिशें डॉलर को चुनौती दे सकती हैं और इसी से निपटने के लिए ट्रंप तैयार नज़र आते हैं.
ट्रंप के ‘अमेरिका फर्स्ट’ के नारे में राजनीति भी है, अर्थव्यवस्था भी है और कूटनीति भी है. वो किसी भी तरह से इस नारे को नुकसान नहीं पहुंचने देंगे. ट्रंप को किसी भी बात का डर नहीं है. लेकिन उन्होंने मैसेज देने की कोशिश की है कि वो किसी देश के ऐसे कदम के साथ कैसे निपटेंगे और वो इस तरह की कोई भी अनुमति किसी को नहीं देंगे. कुछ देशों के समझौते से यह नहीं कहा जा सकता है कि डॉलर की स्थिति कमजोर हुई है. लेकिन एक बहस का शुरू होने बड़ी बात है. आज से 15-20 साल पहले ऐसी बहस का शुरू होना मुमकिन नहीं था .