यह हमारे राजनीतिक-बौद्धिक जीवन का बैरोमीटर है कि जिस संस्था के काम से पिछले सौ साल से पूरी दुनिया प्रभावित हो रही है, और ठीक राजधानी दिल्ली में जिस का मुख्यालय है – उस के बारे में हम नगण्य जानते हैं। कोरोना के आकस्मिक दुर्योग से ही तबलीगी जमात का नाम अभी घर-घर पहुंचा। तभी यह भी पता चला कि बड़े-बड़े लोगों को उस के बारे में कुछ पता नहीं।
‘तबलीग’ यानी प्रचार को इस्लामी शब्दावली में ‘दावा’ भी कहते हैं। जिस का अर्थ है, आमंत्रित करना, प्रेरित करना, उस पर बल देना। सो तबलीगी जमात सच्चा इस्लाम अपनाने, और हरेक गैर-इस्लामी चीज छोड़ने का प्रचार/दावा करती है। इस में खान-पान, रहन-सहन, कपड़े-लत्ते, भाषा-बोली, विचार-मान्यताएं, दोस्ती-दुश्मनी, आदि सब कुछ शामिल है। अपने जीवन के सभी काम प्रोफेट मुहम्मद के वचन, कर्म और मॉडल पर ढालना। तबलीगी जमात का बड़ा सरल संदेश है – ‘ऐ मुसलमानों! मुसलमान बनो।’
इस के संस्थापक मौलाना मुहम्मद इलियास (1885-1944) थे। पहले सहारनपुर मदरसा में पढ़ाते थे, पर मदरसों का काम असंतोषजनक पाकर इस्तीफा दे दिया। तबलीग का मिशन आरंभ किया। निजामुद्दीन मरकज इस का केंद्र बना। आज विश्व में इस के 15 करोड़ से अधिक सदस्य कोई सौ देशों में फैले हुए हैं। इस के सम्मेलन विभिन्न एसियाई देशों में होते रहते हैं। इस का सालाना जमावड़ा मक्का में हज के बाद दूसरा सबसे बड़ा होता है। इस के प्रसिद्ध अनुयायियों में भारत के पूर्व राष्ट्रपति जाकिर हुसैन, पाकिस्तानी पूर्व राष्ट्रपति फारुख लेघारी, मुहम्मद तरार, क्रिकेटर शाहिद अफरीदी, इंजमामुल हक और दक्षिण अफ्रीकी खिलाड़ी हाशिम अमला आदि रहे हैं।
मौलाना वहीदुद्दीन खान की पुस्तक ‘तबलीगी मूवमेंट’ (1986) से इस के बारे में प्रमाणिक जानकारी मिलती है। मौलाना इलियास जैसे सचेत मुस्लिमों को यह देख कर भारी रंज होता था कि दिल्ली के आस-पास जो लोग मुसलमान बनाए गए, वे सदियों बाद भी बहुत चीजों में हिन्दू रंगत लिए हुए थे। उदाहरण के लिए, वे गोमांस नहीं खाते थे; अपनी चचेरी बहनों से शादी नहीं करते थे; कई हिन्दू पर्व-त्योहार मनाते थे; देवी-देवताओं का भी आदर करते थे; धोती पहनते, कुंडल, कड़ा धारण करते थे; चोटी रखते थे। यहां तक कि अपना नाम भी हिन्दुओं जैसे भूप सिंह, नाहर सिंह, आदि रखते थे। कुछ तो कलमा पढ़ना भी नहीं जानते थे। बल्कि जो पक्का मुसलमान कायदे से नमाज पढ़ता होता, उसे कौतुक से देखने लगते थे। अलवर में 19वीं सदी के अंत में बंदोबस्त अफसर रहे अंग्रेज मेजर पियोले ने लिखा है कि ‘‘मेवाती मुसलमान अपनी परंपराओं और आदतों में आधे हिन्दू थे।’’ इसी से क्षुब्ध होकर मौलाना इलियास ने मुसलमानों को सही बनाने का मिशन, यानी तबलीग शुरू की।
मुसलमानों में हिन्दू प्रभाव का कारण मौलाना इलियास ने उन का मिलजुल कर रहना समझा था। इस का सीधा उपाय उन्हें हिन्दुओं से अलग करना था, ताकि मुसलमानों को ‘बुरे प्रभाव से मुक्त किया जाए।’ मौलाना वहीदुद्दीन अपनी पुस्तक में इस की तारीफ करते लिखते हैं कि कुछ दिन तक लगातार इस्लामी व्यवहार का प्रशिक्षण देकर उन्हें ‘नया मनुष्य बना दिया गया’। इस कूट मुहावरे का अर्थ यह कि प्रशिक्षु मुसलमानों को अपनी जड़ से उखाड़, दिमागी धुलाई करके, हर चीज में हिन्दुओं से अलग किया गया। तरह-तरह के उपाय से उन्हें हिन्दुओं के प्रति दुरावपूर्ण बना कर खालिस इस्लामी बनाया गया। खास तरह की पोशाक, दाढ़ी, खान-पान, बोल-चाल, आदि अपना कर। इसी को ‘नया मनुष्य’ बनना कहा जा रहा है। तबलीग प्रशिक्षित मुसलमानों ने वापस जाकर स्थानीय मेवातियों में वही प्रचार किया। मस्जिदों की संख्या तेजी से बढ़ी। इस से ‘पूरा मेवात पूरी तरह बदल गया।’ यही तबलीग का मिशन है। हिन्दुओं के साथ मिल-जुल कर रहने वाले मुसलमानों को पूरी तरह विलग करना। उन्हें पूर्णतः शरीयत पाबंद बनाना। पूर्वजों के रीति-रिवाजों से घृणा रखना। दूसरे मुसलमानों को भी यही प्रेरणा देना।
तबलीगी काम को महात्मा गाँधी द्वारा खलीफत आंदोलन (1919-24) के सक्रिय समर्थन से भारी ताकत मिली। उस के एजेंडे को अप्रत्याशित बल मिला। आखिर स्वयं सर्वोच्च हिन्दू नेता गाँधी इस्लामी सिद्धांत को सुंदर सर्टिफिकेट (‘नोबल फेथ ऑफ इस्लाम’) देकर उस का और प्रोफेट का प्रचार कर रहे थे। यह भारतीय इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था! इतना ही नहीं, जिस एक काम से अंततः काफिरों की, यानी हिन्दुओं की रक्षा हो सकती थी, उसे बंद करवा दिया। अर्थात्, आर्य समाज का शुद्धि प्रयास। उस से मानवीय जीवन-शैली के प्रति आकर्षण रखने वाले मुसलमानों को स्वेच्छा से अपने पूर्वजों के धर्म में आने का एक रास्ता मिला था। गाँधी जी ने उसे रोक दिया।
पाकिस्तानी विद्वान प्रो. मुमताज अहमद के अनुसार खलीफत जिहाद का लाभ जिन नेताओं को हुआ, उन में मौलाना इलियास भी थे। खलीफत से बने आवेश का लाभ उठाकर मूल इस्लाम और आम मुसलमानों के बीच दूरी पाटने, तथा उन्हें हिन्दू समाज से तोड़ने में आसानी हुई। जो मुसलमान मिलाजुला जीवन जीते रहे थे, वे हिन्दुओं के सचेत दुश्मन बन बैठे। खलीफत के बाद तबलीग का काम इतनी तेजी से बढ़ा कि जमाते उलेमा ने एक गोपनीय बैठक में तबलीगी काम को स्वतंत्र रूप में चलाने का फैसला किया।
हालांकि, मौलाना वहीदुद्दीन के अनुसार, ‘‘आर्य समाज के शुद्धि प्रयासों से नई समस्याएं पैदा हुईं, जो मुसलमानों को अपने पुराने धर्म में वापस ला रहा था। मेवाती मुसलमानों की मजहबी-सांस्कृतिक दुर्बलता के कारण आर्य समाजियों को भारी सफलता मिली।’’ यही स्वामी श्रद्धानन्द पर जमात के कोप के कारण का भी संकेत है। स्वामी श्रद्धानन्द की हत्या के बाद ही वह पहली बार प्रमुखता से (1927) समाचारों में आया था। पुलिस ने हत्या के सूत्र निजामुद्दीन स्थित तबलीगी जमात केंद्र से जुड़े पाए थे।
तब से गंगा में बहुत पानी बह चुका है। हाल के दशकों में तबलीगी जमात के कारनामे सारी दुनिया में देखे गए। 1992 में अयोध्या में बाबरी ढांचे के विध्वंस के बाद भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश में अनेक हिन्दू मंदिरों पर हमले में इस का नाम आया था। फिर 2001 में न्यूयॉर्क पर आतंकी हमले के बाद तो वैश्विक इस्लामी आतंकवाद पर विविध देशों में तबलीगी जमात का नाम बार-बार उभरता रहा। जाने-माने सुरक्षा विशेषज्ञ और पूर्व-गुप्तचर अधिकारी बी. रामन के अनुसार पाकिस्तान और बंगलादेश में तबलीगी जमात के संबंध हरकत उल मुजाहिदीन, हरकत उल जिहादे इस्लामी, लश्करे तोयबा, जैशे-मुहम्मद, आदि विविध इस्लामी आतंकवादी संगठनों से पाए गए हैं।
हरकत-उल-मुजाहिदीन ने तबलीगी जमात के साथ अपने संबंधों को स्पष्ट स्वीकार किया था, कि ‘दोनों ही सच्चे जिहादियों का अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क है।’ 1980 के दशक में छह हजार से ज्यादा तबलीगी हरकत उल मुजाहिदीन के कैंपों में प्रशिक्षित हुए, जो अफगानिस्तान में जिहाद लड़ने गए थे। (साउथ एसिया एनालिसिस ऑर्ग, 15 सितंबर 1999)। हरकत उल मुजाहिदीन ने ही दिसबंर 1998 में एयर इंडिया विमान का अपहरण कर कंधार में उतार कर बंधक बनाया था। जिस के बाद यहाँ वाजपेई सरकार ने मौलाना मसूद अजहर समेत चार कुख्यात आतंकवादियों को छोड़ा था। फिर गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में 59 हिन्दू तीर्थयात्रियों को जिंदा जलाने वाले कांड में गिरफ्तार लोगों में मौलाना उमरजी भी तबलीगी नेता था (इंडिया टुडे, 24 फरवरी 2003)। वही उस कांड के ‘मास्टरमाइंड’ के रूप में चर्चित हुआ था।
फ्रांसीसी सुरक्षा अधिकारियों ने तबलीगी जमात को उग्रवाद के ऑफिस का बगल वाला कमरा (‘एंटी-चेम्बर’) कहा था। यह विशेषण अकारण न था। प्रसिद्ध फ्रांसीसी अखबार ल मोंद (25 जनवरी 2002) के अनुसार फ्रांस में सक्रिय उग्रवादियों में 80% तबलीगी जमात से आए हैं।
अमेरिकी एफ.बी.आई. के अनुसार अल कायदा अपने रंगरूट तबलीगी जमात के माध्यम से चुनता रहा है (न्यूयॉर्क टाइम्स, 14 जुलाई 2003) और अमेरिका में जमात की अच्छी संख्या है। विभिन्न आतंकी संगठन तबलीगी जमात के रायविन्द, पाकिस्तान स्थित केंद्र जाकर अपने रंगरूट बनने के लिए आमंत्रित करते रहे हैं। पाकिस्तानी गुप्तचर सूत्रों के अनुसार पाकिस्तान-अफगानिस्तान के आतंकी कैंपों में 400 अमेरिकी तबलीगियों ने प्रशिक्षण लिया है। (यू.एस. न्यूज एंड वर्ल्ड रिपोर्ट, 10 जून 2002)। अमेरिका में लगभग 15 हजार तबलीगी मिशनरी सक्रिय हैं, जिन्हें वहां सुरक्षा के लिए खतरा माना जाता है। (आर्कीव दे साइंस सोसियाल दे रिलीजियों, पेरिस, जनवरी-मार्च 2002)
मोरक्को में 2003 में कासाब्लांका सिनागॉग पर बड़े आतंकी हमले के सिलसिले में सुरक्षा अधिकारियों ने 60 से अधिक तबलीगियों पर मुकदमा चलाया था (फाइनेंशियल टाइम्स, लंदन, 6 अगस्त 2003)। उस हमले का मास्टरमाइंड तबलीगी यसुफ फिकरी था, जिसे मृत्युदंड दिया गया था। (बीबीसी न्यूज, 12 जुलाई 2003)। फिलीपीन्स सरकार ने तबलीगी जमात को सऊदी धन ला-लाकर इस्लामी आतंकवादियों को पहुँचाने का माध्यम, तथा फिलीपीन्स में पाकिस्तानी जिहादियों को आड़ देने का आरोप लगाया था। (मनीला टाइम्स, 12 अक्तूबर 2001)। उजबेकिस्तान अधिकारियों ने तबलीगी जमात पर चार सौ उजबेकियों को आतंकी कैंपों में भेजने का आरोप लगाया था। (स्ट्रेटेजिक एफेयर्स, नई दिल्ली, 1 फरवरी 2001)
ऐसे अंतरराष्ट्रीय उदाहरण के बावजूद, कुछ लोग तबलीगी जमात के ‘शान्तिपूर्ण प्रचार’, इस के ऊपरी गैर-राजनीतिक स्वरूप तथा जिहाद में अंतर करते हैं। यह इस्लामी सिद्धांत व इतिहास के प्रति साफ अज्ञान दर्शाता है। वे परख नहीं करते कि प्रचार किस चीज का किया जाता है? प्रोफेट मुहम्मद के हू-ब-हू अनुकरण का अर्थ क्या है? काफिरों के प्रति प्रोफेट की नीति क्या थी? इस का बेलाग उत्तर तीनों मूल इस्लामी ग्रंथों – सीरा, हदीस, और कुरान – में उपलब्ध है। कि शान्तिपूर्ण प्रचार और हथियारबंद जिहाद, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसे केवल जगह, समय और काफिरों की स्थिति देख कर तय किया जाता है कि कब क्या करना है। साथ ही, एक ही समय कोई मुसलमान एक प्रकार का, जबकि अन्य दूसरे प्रकार का काम करते हैं। वे एक-दूसरे को विविध तरीकों से सहयोग देते हैं, जिस का निर्देश और रास्ता भी स्वयं प्रोफेट मुहम्मद ने बताया था।
इसलिए, काफिरों द्वारा किसी को ‘अच्छा’ और किसी को ‘गलत’ मुसलमान मानना एक भ्रम है। वे अपनी मानवीय इकहरी नैतिकता से ऐसी कल्पना कर लेते हैं। सारी स्थिति को इस्लाम की दोहरी नैतिकता की नजर से समझने की जरूरत महसूस नहीं करते। इन बातों की पुष्टि मौलाना वहीदुद्दीन की उक्त पुस्तक से भी होती है, जिस में तबलीगी जमात का इतिहास बड़े गर्व से बताया गया है। वहीदुदीन बड़े कद्दावर मुस्लिम हैं। टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे बड़े-बड़े अंग्रेजी पत्रों में इन के लेख, साक्षात्कार आते थे। इसलिए तबलीगी जमात पर वहीदुद्दीन के विचार जानना अतिरिक्त रोचक व प्रमाणिक है। मौलाना वहीदुद्दीन संघ-परिवार के भी बड़े प्रिय रहे हैं! इस हद तक कि वे आर.एस.एस. द्वारा गठित ‘सर्वपंथ समादर मंच’ के उदघाटनकर्ता और संस्थापक सदस्य हैं। इस हेतु वे अप्रैल 1994 में नागपुर में डॉ. हेगड़ेवार की समाधि पर निमंत्रित किये गये थे। वे संघ-परिवार के ‘आदर्श मुस्लिम’ और ‘राष्ट्रवादी मुस्लिम’ हैं।
उन्हीं वहीदुद्दीन के शब्दों में, ‘‘तबलीगी जमात एक महान आंदोलन है जिस ने अल्लाह के काम में एक नया उत्साह भरा। इस के संस्थापक मौलाना इलियास का परिवार अपना वंश वलीउल्लाह परिवार से जोड़ता है जिन्हें अल्लाह ने इस्लाम में आई विकृति सुधारने को चुना था। जो विकृति तैमूर (बाबर) परिवार की गलत समझ से आ गई थी।’’ नोट करें, यहाँ वहीदुद्दीन बादशाह अकबर की ‘गलत समझ’ का संकेत कर रहे हैं जिस ने हिन्दुओं के प्रति उदार नीति आरंभ की थी। यह भी, कि वलीउल्लाह (1703-62) वही हैं जिन्होंने अफगानिस्तान के अहमद शाह अब्दाली को भारत पर हमला कर पुनः इस्लामी राज बनाने का न्योता दिया था।
आगे वहीदुद्दीन बताते हैं कि मौलाना इलियास को यह देख कर रोष होता था कि सूफी हजरत निजामुद्दीन (1238-1325) की कोशिशों से यहां जो गंवार, देहाती लोग मुसलमान बने, वे सदियों गुजर जाने के बाद भी बहुत चीजों में हिन्दू आदतें रखते थे। इस में जिसे ‘हजरत निजामुद्दीन की कोशिशें’ कहा गया, वह सुलतान बलवन के समय का जिहाद था। बलवनों, खिलजियों, और तुगलकों ने बहादुर मेवाती हिन्दुओं पर जुल्म करके उन्हें घसीट कर मुसलमान बनाया था। अनेक सूफियों ने हमलावरों को बुला कर कई हिन्दू शासकों को खत्म करवाया, मंदिर तोड़े और वहीं पर अपने अड्डे बनाए। उन्होंने खुद भी जिहाद लड़ा और जिहादियों को प्रशिक्षित किया। उन्हीं में जो मारे जाते थे, उन्हें शाहिद व शहीद कहा जाता था।
हजरत निजामुद्दीन भी मोइनुद्दीन चिश्ती (1141-1236) के चेले थे, जो मध्य एसिया से शहाबुद्दीन गोरी के हमले के दौरान अजमेर आए थे। अजमेर में प्रसिद्ध शिव-मंदिर का ध्वंस करके चिश्ती ने वहीं अड्डा बनाया। जिसे आज सूफी-दरगाह कह कर हिन्दू नेता भी नियमित चढ़ावा चढ़ाते हैं। जबकि उसी की मदद से शहाबुद्दीन गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को मारा था। खुद मोइनुद्दीन चिश्ती के शब्दों में, “हम ने पिथौरा को जीवित पकड़ा और उसे इस्लामी सेना के सुपुर्द किया।” (एस. ए. ए. रिजवी, ए हिस्ट्री ऑफ सूफीज्म इन इंडिया)।
उसी तर्ज पर हजरत निजामुद्दीन की ‘कोशिशें’ थीं, जिस की असलियत छिपाकर वहीदुद्दीन ने उन की और मौलाना इलियास की तारीफें लिखी हैं। बहरहाल, तबलीगी जमात का पहला बड़ा सम्मेतन 1941 में निजामुद्दीन में हुआ, जिस में 25 हजार मुसलमान आए थे। इलियास की 1944 में मृत्यु के बाद उन के बेटे मुहम्मद युसुफ जमात के प्रमुख बने। उन्होंने तबलीग फैलाने के लिए पूरे भारत और विदेशों की यात्राएं कीं। तब अरब से भी मुसलमान निजामुद्दीन और देवबंद आने लगे। इस तरह, तबलीग एक अखिल भारतीय और अंतरराषट्रीय आंदोलन बनता गया।
वहीदुद्दीन के अनुसार, ‘‘मौलाना युसुफ के अनुसार धरती पर हमारा दबदबा सुधारा हुआ जीवन जीने पर निर्भर है। उन्होंने कहा, ‘प्रोफेट के नमूने का अनुकरण करो। जो ऐसा नहीं करते और दूसरों को भी नहीं करने कहते, वे अल्लाह द्वारा वैसे ही तोड़ दिए जाएंगे जैसे वह अंडे के खोल के साथ करता है… प्रोफेट की कोशिशों से जैसे ही (मुसलमान) लोगों ने खुद को सुधारा, वैसे ही अल्लाह ने रोमनों और फारसियों पर अपना जलजला भेज दिया।’ ’’
इस तरह वहीदुद्दीन तबलीगी जमात के कसीदे काढ़ते हैं। या तो संघ परिवार के दिग्गजों ने कभी वहीदुद्दीन को पढ़ने की जरूरत नहीं समझी, अथवा उन्हें मौलाना की साफ बातें भी समझ न आईं! उस पुस्तक में एक अध्याय है, ‘उम्मा-नेस: इस्लामी ब्रदरहुड’। इस में मौलाना युसुफ का एक भाषण है जो उन्होंने अपनी मृत्यु से तीन दिन पहले रावलपिंडी, पाकिस्तान में 30 मार्च 1965 को दिया था। उस में मौलाना ने कहा: ‘‘उम्मा की स्थापना अपने परिवार, दल, राष्ट्र, देश, भाषा, आदि की महान कुर्बानियां देकर ही हुई थी। याद रखो! ‘मेरा देश’, ‘मेरा क्षेत्र’, ‘मेरे लोग’, आदि चीजें इस्लामी एकता तोड़ने की ओर जाती हैं, और इन सब को अल्लाह बाकी किसी भी चीज से ज्यादा नामंजूर करता है।… राष्ट्र और अन्य सामुदायिक समूहों के ऊपर इस्लाम की सामूहिकता सर्वोच्च रहनी चाहिए। मुस्लिम भाईबंदी ही इस्लाम का सर्वोच्च सामाजिक आदर्श है। प्रोफेट के अंतिम हज में दी गई सीख इसी पर आधारित है। जब तक यह आदर्श न पा लिया जाए तब कर इस्लाम पूरी तरह नहीं आ सकता।’’
यह सब वहीदुद्दीन ने गदगद होकर लिखा है। उन्होंने निजामुद्दीन मरकज में अपने पहले अनुभव (1966) का वर्णन इस प्रकार किया है, ‘‘निजामुद्दीन औलि या के मजार के पास स्थित बंगला-वाली मस्जिद सुधार के केंद्र के रूप में दशकों से प्रसिद्ध है। आज यह वैश्विक आंदोलन का केंद्र है। हम इस की तुलना शरीर में हृदय से कर सकते हैं। जैसे हृदय से रक्त-संचार पूरे शरीर में होकर फिर हृदय में वापस पहुंचता है। वैसे ही यहां से जाने वाले लोग फिर वापस आकर अपने को भावनात्मक रूप से रीचार्ज करते हैं, ताकि फिर नए उत्साह से यात्रा कर सकें।’’ वहीदुद्दीन ने निजामुद्दीन मरकज में होने वाली मजलिसों में अमीर (जमात के प्रमुख) द्वारा अलग-अलग क्षेत्रों में भेजे जा रहे तबलीगियों के नाम पढ़ कर घोषित करने, उन के एक-एक कर उठकर अमीर से जाकर हाथ मिलाने, फिर उन से दुआ पाने वाले दृश्य की तुलना गदगद होकर इस कल्पना से की है, ‘‘जब प्रोफेट मुहम्मद मजलिसे-नवाबी में बैठकर मुसलमानों का आहवान करते थे और उन्हें दस्तों में दूर-दूर भेजते थे ताकि जाहिलों को इस्लाम का संदेशा दें।’’
जिन काफिरों ने प्रोफेट मुहम्मद की जीवनी मूल स्त्रोतों से नहीं पढ़ी है, वे सोच भी नहीं सकते कि वहीदुद्दीन विह्वल होकर किस चीज को याद कर रहे हैं! साथ ही, चतुराई और मक्कारी से किस सच को छिपा रहे हैं। प्रोफेट ने कभी, कहीं, कोई शांतिपूर्ण उपदेशक या प्रचारक नहीं भेजा था। निरपवाद रूप से उन के तमाम दस्ते सैनिक अभियान और हमले होते थे। जिस के द्वारा एक के बाद एक अरब कबीलों और पास के इलाकों को तलवार के जोर से इस्लाम में शामिल किया गया। जिस ने भी इंकार किया, उन्हें खत्म कर डाला गया। उन की संपत्ति लूट ली गई। उन के परिवार गुलाम बनाकर बेचे गए। यह सब इस्लाम के तीनों मूल ग्रंथों में असंदिग्ध रूप से, बारं-बार, और प्रमाणिक तफसील के साथ दर्ज है।