15 जनवरी, 2000 को विवेक गोयनका का सभी लोगों को पत्र मिला जिसमें वे समूह के सीईओ बनाए गए। वे इंडियन एक्सप्रेस के प्रधान संपादक तो थे ही। यह नया जिम्मा उन्होंने लिया। उसके 22 दिन बाद यानि 7 फ़रवरी, 2000 को जनसत्ता के चंडीगढ़ और मुंबई संस्करण को बंद कर दिया गया। वैसे आदेश में यह शब्द नहीं था। कहा गया था कि फ़िलहाल स्थगित किया जा जा रहा है। यही कहा जाता है। कलकत्ता संस्करण भी बंद हो जाता अगर मारवाड़ी समाज में इज्जत घटने का सवाल न होता विवेक गोयनका की वहां ससुराल है।
अख़बार का घाटा कम करने के लिए जहां ये दो संस्करण बंद किए गए। वहीँ, दाम बढ़ा दिया गया। इसे अख़बार का प्रसार बहुत नीचे आ गया। उन दिनों अख़बार सत्तर हजार छप रहा था जो लगातार कम होता गया और 2008 में वह तीस हजार पर आ गया। एक वेबसाइट विस्फोट डॉट कॉम ने 29 दिसंबर 2008 के जनसत्ता का जायजा लिया। संपादकीय पेज के अलावा अख़बार के 11 पेजों में 78 खबरें छपी। इन ग्यारह पेजों में दो कॉलम (दिल्ली मेरी दिल्ली और आपकी शिकायतें) शामिल हैं। क्योंकि ये दोनों पेज केवल स्थानीय ख़बरों के लिए हैं इसलिए इसमें एजेंसी की कोई भूमिका नहीं हो ही नहीं सकती, क्योंकि एजेंसियां स्थानीय ख़बरों की सप्लाई नहीं करती। बाकि के नौ पेजों का विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे कि इन नौ पेजों में प्रकाशित 68 ख़बरों में से 59 ख़बरें सिर्फ एक एजेंसी के हवाले से प्रकाशित की गई हैं जिसका नाम है भाषा।
एकबारगी आपको यह यकीन ही नहीं होगा कि आप जनसत्ता अख़बार पढ़ रहे हैं या भाषा का प्रिंट संस्करण। पहले ही पेज पर 11 खबरे हैं जिसमें लीड स्टोरी के साथ 7 ख़बरें भाषा की हैं, दूसरे पेज पर 6 में 6 ख़बरें भाषा की हैं। सातवें पेज पर 8 में से 5 ख़बरें भाषा की हैं। आठवें और नौवें पेज पर 9 में से 8 ख़बरें भाषा की हैं, पेज 10 पर 13 में से 13 ख़बरें भाषा की हैं। पेज 11 पर 11 में से 11 ख़बरें भाषा की हैं और पेज 12 पर 6 में से 6 ख़बरें भाषा की हैं।
राजकिशोर ने ठीक ही लिखा है कि जनसत्ता के क्रमिक क्षय पर विचार करना एक दर्द भरा काम है। उनका विचार है कि हिंदी पत्रकारिता तीन संकटों से गुजर रही है। ये संकट और किसी पर हो या नहीं पर जनसत्ता पर जरुर है। अगर कोई खोजना चाहे तो जनसत्ता के क्रमिक क्षय के कारण इनमें मिल जाएंगे। प्रभाष जी एक अलग कारण बताते हैं –अरज जैसी स्थिति के कारण ही जनसत्ता जैसे अखबारों का जलजला कम होता गया क्योंकि प्रतिष्ठान विरोध जैसी चीजें अप्रासंगिक होती चली गई आज भी यही स्थिति है। इसमें यह जोड़ने की जरुरत है की जनसत्ता दोहरे अराज का मारा हुआ है। अन्दर और बाहर का अराज. वे कहते हैं कि आज हिंदी पत्रकारिता के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती बाज़ार को साधने की है। जिन अख़बारों में बाज़ार हावी है वहां पत्रकारिता नाम की समझ नहीं दिखाई पड़ती।
दूसरी चुनौती बदले राजनीतिक परिदृश्य को समझने और उसमें हस्तक्षेप करने की है। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय राजनीति में एक भिन्न प्रवृत्ति दिखाई दी। वह “बहुकेंद्रिकता” की प्रवृत्ति है। इस दौर में हिंदी पत्रकारिता का कैसे प्रभावशाली हस्तक्षेप हो, इसे अभी हिंदी वाले समझ नहीं पा रहे हैं। हिंदी, पत्रकारिता राजनीति को दरकिनार रख महज मनोरंजन या सूचना देने का काम नहीं कर सकती। जनसत्ता अख़बार सर उठाकर पत्रकारिता के लिए याद किया जायेगा। महात्मा गांधी ने हिन्द स्वराज के पहले पाठ में सौ साल पहले बताया था कि अख़बार का एक काम तो है लोगों की भावनायें जानना और उन्हें जाहिर करना, दूसरा काम है लोगों में अमुक जरुरी भावनायें पैदा करना, और तीसरा काम है अगर लोगों में दोष हों तो उनके दोष बेधड़क होकर उन्हें दिखाना, चाहे, इसमें कितनी भी मुसीबतें आयें। यही काम जनसत्ता करता था जिससे उसकी प्रतिष्ठा बनी।