महात्मा गांधी जन्मशताब्दी के साल भर चले समारोहों से प्रेरित होकर देश उस रास्ते पर भले ही न चला हो, लेकिन उसकी एक उपलब्धि हिंदी पत्रकारिता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण रही। क्रांतिकारी रुझान वाले रामनाथ गोयनका महात्मा गांधी की प्रेरणा से सविनय अवज्ञा की ओर मुड़े थे और आजादी के आंदोलन की अलख जगाने के लिए इंडियन एक्सप्रेस को खड़ा किया था। आजादी के बाद वह उसी विरासत को संभालते रहे और उसके लिए जाने – माने गए। उस रामनाथ गोयनका से प्रभाष जोशी का मिलन हुआ। वह मिलन गांधी जन्मशताब्दी के कारण हुआ।
रामनाथ गोयनका से भिन्न प्रभाष जोशी विनोबा भावे से प्रेरित थे। धारा वही थी, वक्त का फर्क था। रामनाथ गोयनका को पहले दिन से ऐसे पत्रकार की जरुरत थी जो हिंदुस्तानी हिंदी का मालिक हो। जिसे वो सुबोध भाषा कहते थे। वह संस्थान बनाने में उनका हाथ बंटाए अगर गाँधी शताब्दी के कामकाज के लिए प्रभाष जोशी दिल्ली नहीं आते तो उनका मिलना कब होता कहा नहीं जा सकता। उन दिनों जयप्रकाश नारायण फिर से देश में नए राजनीतिक प्रयोगों के सोच विचार में लगे हुए थे। उसके लिए उन्होंने कर्नाटक में मैसूर की टिप्प गुंडनहल्ली पहाड़ी पर 1972 के गर्मियों में विमर्श के लिए चुनिंदा लोगों को बुलाया था। वहीं और बातों के अलावा अंग्रेजी साप्ताहिक एवेरीमेंस निकालने का निश्चय हुआ। उसी क्रम में जेपी के कहने पर प्रभाष जोशी एक दिन बहादुरशाह जफ़र मार्ग की इंडियन एक्सप्रेस बिल्डिंग गए। जहां तब एक गेस्ट हाउस भी था। उनकी रामनाथ गोयनका से वहीं मुलाकात हुई।
सर्वोदय में उनका लिखा एक राजनीतिक लेख रामनाथ गोयनका को पसंद आया था। ‘ उन्हें मेरी हिंदी अच्छी लगी थी ‘। उसी बातचीत में रामनाथ गोयनका ने कहा कि ‘आप जानते हैं हमारा एक हिंदी अख़बार था जनसत्ता। हिंदी के बड़े बड़े धुरंधर महारथी उसे चलाते थे, लेकिन उसकी भाषा बड़ी क्लिष्ट होती थी। मैं उनसे कहता कि ‘आप ऐसी भाषा क्यों नहीं लिखते जो पान वाले की समझ में आए और तांगे वाले की भी। हमारा एक तमिल अख़बार है उसमें तो ऐसी ही भाषा होती है, पर हिंदी का अख़बार तो मेरी समझ में भी न आए। और माइंड यू मैंने हिंदी प्रचार का बहुत काम किया है। भारत भारती मुंह जबानी आती है …. लेकिन देखो उ उ इन से मैं कहूं कि भैया इतनी क्लिष्ट हिंदी मत लिखो तो मेरी कोई सुने नहीं। ‘
‘एक दिन मैं उनके दफ्तर चला गया। वहां मैं पूछता रहा कि ऐसी कठिन हिंदी लिखना ही क्यों जरुरी है। वे करें लंबी -चौड़ी बातें। हम ये हैं, हम वे हैं। मैंने कहा की होंगे लेकिन हिंदी ऐसी लिखिए कि थोड़ा -बहुत पढ़ा लिखा आदमी भी समझ जाए। पर वे तो उठ खड़े हुए। घेर लिया मुझे। कहा कि श्रीमान आप धनी हैं लेकिन आपके कहने पर हम अपनी मातृ भाषा के साथ बलात्कार नहीं कर सकते। मैंने कहा कि रामनाथ आज बुरे फंसे। वहां से तो मैं जैसे तैसे निकल आया। पर फिर आ के मैंने नोटिस दिया और अख़बार बंद कर दिया। कोई रास्ता ही नहीं था। वे महारथी सुनने को तैयार ही नहीं हों।’
यह उस जनसत्ता के आखिरी अध्याय की कहानी है जो 1952 में निकला था। जो बात उन्होंने प्रभाष जोशी से पहली मुलाकात में कहीं । उसी तरह का जिक्र रामनाथ गोयनका की जीवनी में हैं। वे संविधान सभा के सदस्य थे। उसी दौरान 1948 में उन्होंने इंडियन न्यूज़ क्रॉनिकल लिया। वह मोरी गेट में था। वही अख़बार बाद में दिल्ली का इंडियन एक्सप्रेस बना। हर महीने उसे पचास हजार रुपये का घाटा होता था। उन्हें ये सुझाया गया कि हिंदी अख़बार हो तो अंग्रेजी अख़बार को मदद मिलेगी। इस योजना में जनसत्ता निकला। उसके पहले संपादक प्रो. इंद्र वाचस्पति थे। उनके बाद वेंकटेश नारायण तिवारी संपादक हुए। आखिरकार 1954 की मई में उसे बंद करने का फैंसला रामनाथ गोयनका ने किया। उनकी जीवनी ‘वारियर ऑफ़ फोर्थ इस्टेट, रामनाथ गोयनका ऑफ़ द एक्सप्रेस’ में इसका बहुत संक्षिप्त उल्लेख है।
बी. जी. वर्गीस ने लिखा है कि रामनाथ गोयनका चाहते थे कि जनसत्ता कांग्रेस समर्थक अख़बार हो। वह पंथ-निरपेक्ष हो और पाठकों के लिए सहज हो। वह 1953 में दिल्ली का सबसे बड़ा अख़बार था। वह 11 हजार छपता था और रामनाथ गोयनका उसे 20 हजार तक पहुंचाना चाहते थे। अख़बार को बंद करने में उन्होंने रफ़ी अहमद किदवई की सलाह ली थी। एक जानकारी यह भी है कि जनसत्ता के संपादक वैंकटेश नारायण तिवारी का रामनाथ गोयनका की राजनीति से मेल नहीं बैठा। क्या संपादक का लेखन शासन विरोधी था ? इसका सही जवाब देने वाले दो-एक लोग ही बचे हैं। उनकी यही धारणा है। ………………………….क्रमश: