संविधान सभा ने अपने लिए जो उद्देश्य निर्धारित किए, क्या उसे वह प्राप्त कर सकी? अत्यंत पीड़ादायक तथ्य है कि संविधान सभा को अपने उद्देश्य परिवर्तित करने पड़े। ऐसा क्यों हुआ? क्यों संविधान सभा की उद्देश्य संबंधी आशा फलीभूत नहीं हुई? क्यों उसे निराशा के अंधड़ और आंधियों के तूफान में से अपनी राह बनानी पड़ी? कैसे पंडित जवाहरलाल नेहरू ब्रिटिश जाल में फंसे और बेबस हो गए? इसके कारणों से इतिहास भरा पड़ा है। स्पश्ट है कि कारण एक नहीं, अनेक थे। कांग्रेस के नेतृत्व का अपना-अपना स्पष्टीकरण भी है। याद रखें कि संविधान सभा ने बड़े उत्साह से 22 जनवरी, 1947 को अपने उद्देश्य निर्धारित कर लिए थे। उनमें आठ बातें थी, लेकिन उन्हें पांच हिस्सों में यहां बताया जा सकता है। पहला यह कि अविभाजित भारत के लिए संविधान का निर्माण किया जाना था, जिसमें संप्रभुता जनता में निहित होगी। दूसरा यह कि भारत राज्यों का महासंघ होता। तीसरा यह कि केंद्र के पास अधिकार थोड़े होते और राज्यों को स्वायत्तता होती। चौथा यह कि अल्पसंख्यकों, दलित, पिछड़े और जनजातियों को संरक्षण का आश्वासन दिया गया था। पांचवां कि भारत को विश्व में अपना गौरवशाली और योग्य स्थान प्राप्त करना था।
संविधान सभा का वह दूसरा सत्र था, जो तीन दिनों बाद यानी 25 जनवरी को स्थगित हो गया। उसी सत्र में 24 जनवरी, 1947 को पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने सलाहकार समिति का प्रस्ताव रखते हुए इसे चिह्नित किया कि संविधान सभा से जनता की उम्मीदें बहुत अधिक हैं। उन्होंने मुस्लिम लीग को चेतावनी भी दी। उन्होंने कहा “अल्पसंख्यक का प्रश्न एक चट्टान बन गया है। इस चट्टान पर कितने ही विधान इससे टकराकर नष्ट हो चुके हैं।“ उन्होंने कहा, “अब जरूरी हो गया है कि एक नया अध्याय शुरू किया जाए।” उन्होंने जो प्रस्ताव रखा था उस पर संविधान सभा में उपस्थित अल्पसंख्यक सदस्यों की सहमति थी। लेकिन मुस्लिम लीग की अनुपस्थिति से बड़ा खतरा पैदा हो गया था। उससे सारा देश चिंतित था। मुस्लिम लीग दोहरी रणनीति पर चल रही थी। संविधान सभा का उसने बहिष्कार कर रखा था। लेकिन वाइसराय वैवल की हमदर्दी और पंडित जवाहरलाल नेहरू की एक भूल का उसने फायदा उठाया। जिससे मुस्लिम लीग अंतरिम सरकार में शामिल होने में सफल हो गई।
इतिहास की यह एक उलझन रही है। जिसे इतिहास की गुत्थी समझा जाता रहा है, वह सुलझ गई है। रहस्य उजागर हो गया है। लार्ड माउंटबेटन के ए.डी.सी. रहे नरेंद्र सिंह सरीला ने मूल दस्तावेजों का अध्ययन कर अपनी पुस्तक ‘विभाजन की असली कहानी’ में लिखा है कि “2 सितंबर, 1946 को जैसे ही नेहरू को प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई वाइसराय वैवल ने उन पर मुस्लिम लीग को अंतरिम सरकार में शामिल करने के लिए इस तर्क पर दवाब डालना शुरू किया कि यह सांप्रदायिक शांति और एकता के हित में होगा।” वे यह जानते थे कि नेहरू को यह बात अत्यंत प्रिय लगेगी। वैवल ने नेहरू से इस विषय पर 11,16,26 और 27 सितंबर को बात की। किंतु नेहरू इस बात पर दृढ़ रहे कि पहले जिन्ना संविधान सभा में शामिल होकर केबिनेट मिशन योजना को स्वीकारने का प्रमाण दें। अगर जिन्ना ऐसा करते तो वे भारत की अखंडता को स्वीकार करते। वैवल यह जानते थे कि जिन्ना ने सीधी कारवाई की घोषणा अपनी निराशा में की थी। लेकिन 16 अगस्त की उस कार्रवाई से कोलकाता में 22 हजार लोग मारे गए। इसे जिन्ना ने अपनी ताकत माना। नेहरू ने वैवल के सामने सही शर्त रखी थी। लेकिन अचानक और वह भी उस दिन जिस दिन महात्मा गांधी का जन्मदिन था, नेहरू ने वाइसराय वैवल को लिखा कि आप जिन्ना से बात करें। वैवल को इसी की उत्कट अभिलाषा थी, जो उन्हें मिल गई। नेहरू ने बाद में गांधीजी के एक सहयोगी सुधीर घोष को बताया कि वैवल कई दिनों से मेरे उपर दबाव डाल रहे थे। मैंने उकताकर उन्हें कह दिया कि वे जिन्ना से बात कर सकते हैं।
वाइसराय वैवल यही चाहते थे। उन्होंने जिन्ना से बात की। जिस जिन्ना ने अंतरिम सरकार में शामिल होने के लिए नेहरू के निमंत्रण को ठुकरा दिया था, उसने वैवल की सलाह मान ली। अंतरिम सरकार में मुस्लिम लीग का प्रवेश जिन्ना और वाइसराय वैवल की बड़ी जीत थी। साथ ही साथ अखंड भारत का वादा करने वाली कांग्रेस की वह भारी पराजय थी। उसी दौरान एक के बाद दूसरी भयंकर घटनाएं घटित होने लगीं। उन घटनाओं ने संविधान सभा के कर्णधारों की आशाओं पर पानी फेर दिया। उन्हें उम्मीद थी कि जिस तरह मुस्लिम लीग अपनी नानुकुर के बाद अंतरिम सरकार में शामिल हो गई, उसी तरह वह संविधान सभा में भी देर से ही सही, पर अवश्य सम्मिलित होगी। इसी उम्मीद से संविधान सभा ने अपने काम-काज को बढ़ाने के लिए जो कुछ कमेटियां बनाई थीं, उनमें मुस्लिम लीग के लिए भी स्थान रखा गया था। अगर ऐसा हो जाता तो भारत की एकता बनी रहती। वह उद्देश्य भी संविधान सभा प्राप्त कर लेती जिसका उसने संकल्प किया था।
लेकिन ऐसा नहीं हो सका। संविधान सभा के सत्रावसान को एक सप्ताह भी नहीं गुजरा था कि मुस्लिम लीग ने अपने पुराने रुख को एक निर्णायक फैसले में रूपांतरित कर दिया। इसे ज्यादातर इतिहासकारों ने महत्व नहीं दिया है। लेकिन इतिहासकार आर.सी. मजूमदार ने ‘स्ट्रगल फॉर फ्रीडम’ में लिखा है कि करांची में मुस्लिम लीग की कार्यसमिति ने 31 जनवरी, 1947 को केबिनेट मिशन योजना को अंतत: अमान्य कर दिया। हालांकि उसे संतुष्ट करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने एक स्पष्करण दिया था। लेकिन मुस्लिम लीग को तो सीधी कार्रवाई की सफलता से खून का चस्का लग गया था। इसलिए उसने सीधी कार्रवाई की नीति को पुन: दोहराया। जिसका फैसला उसने 29 जुलाई, 1946 को किया था। मुस्लिम लीग के इस निर्णय से स्पष्ट हो गया कि वह संविधान सभा में सम्मिलित नहीं होगी। उसका एजेंडा भारत का विभाजन है। मुस्लिम लीग को संविधान सभा में शामिल करने का अवसर देने के लिए पंडित नेहरू के कहने पर कांग्रेस कार्यसमिति ने अपने एक प्रस्ताव में संशोधन भी किया था। जिसका मुस्लिम लीग पर कोई अनुकूल प्रभाव नहीं पड़ा।
इतिहासकार ताराचंद की यह टिप्पणी अत्यंत सटीक है, “परंतु जिन्ना ने कोई रियायत नहीं की।“ इसका प्रभाव तो पड़ना ही था। इसे ताराचंद ने इस प्रकार लिखा है-“ऐसा मालूम होता था कि सहयोग का द्वार दृढ़ता से बंद हो गया है। 5 फरवरी को 9 गैरमुस्लिम लीगी सरकारी मैंबरों ने मांग की कि लीग के सदस्यों को त्याग पत्र दे देना चाहिए।“ जिसे उन्होंने गैरमुस्लिम लीगी सदस्य कहा है,वे वास्तव में कांग्रेस और सिख के प्रतिनिधि थे। वे अंतरिम सरकार में मंत्री थे। जो 2 सितंबर, 1946 को बनी थी। जिसका नेतृत्व पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल कर रहे थे। जिसमें इनके अलावा 9 सदस्य कांग्रेस से थे और एक सिख प्रतिनिधि थे- सरदार वलदेव सिंह। मुस्लिम लीग ने अपनी रणनीति बदली। वह अंतरिम सरकार में शामिल हुई। उसके पांच सदस्य मंत्री बने। जिसका नेतृत्व लियाकत अली खां कर रहे थे। मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों को स्थान देने के लिए जवाहरलाल नेहरू ने अपने तीन सहयोगियों शरद चंद्र बोस, शफात अहमद खां और अली जहीर को हटाया। अंतरिम सरकार में मुस्लिम लीग के शामिल होने से एक उम्मीद बनी कि वह सहयोग का रुख अपनाएगी। कांग्रेस ने वाइसराय से पूछा और उन्हें याद दिलाया कि मुस्लिम लीग को जिन शर्तों पर शामिल किया गया है, क्या वह उन पर कायम रहेगी?
इस पर वाइसराय वैवल ने उत्तर दिया कि जिन्ना ने “मुझे आश्वस्त किया है कि मुस्लिम लीग का इरादा सरकार में और संविधान सभा में सहयोग करने का है।“ जिन्ना ने वाइसराय को यह भी आश्वासन दिया था कि “मैं जल्दी ही लीग की काउंसिल बुलाकर उस प्रस्ताव को रद्द करवा दूंगा जिसमें केबिनेट मिशन की योजना को नामंजूर किया गया है।“ इतिहासकार ताराचंद ने लिखा है कि “कांग्रेस, मुस्लिम लीग और भारत सरकार-ये तीनों ही उस समय कल्पना लोक में विचरण कर रहे थे। इनमें से प्रत्येक के ध्येय दूसरे से भिन्न थे। कांग्रेस ऐसी मिली जुली सरकार चाहती थी जो संयुक्त उत्तरदायित्व का निर्वाह करे। वह समान लक्ष्यों का अनुसरण करे। उसको भ्रमवश यह विश्वास था कि अंतरिम सरकार में सम्मिलित हो जाने के बाद मुस्लिम लीग किसी-न-किसी भांति भावी कार्य में सहयोग करने के लिए प्रेरित हो जाएगी। उधर मुस्लिम लीग का ध्येय दूसरा ही था। जिसे मुस्लिम लीग के एक नेता गजनफर अली खां ने इन शब्दों में घोषित किया था कि “हम अंतरिम सरकार में इसलिए जा रहे हैं कि हमारे अभीष्ट ध्येय पाकिस्तान के लिए संघर्ष हेतु हमको वहां पैर टिकाने के लिए स्थान मिल जाएगा।“
मुस्लिम लीग के दूसरे नेता लियाकत अली खां ने भी एक प्रेस कांफ्रेस में कहा कि “भारत का भविष्य तभी सुरक्षित रहेगा जब हिन्दू और मुसलमान को पूर्ण स्वतंत्रता मिल जाएगी।“ उन्होंने नेहरू का नेतृत्व स्वीकार करने से इंकार कर दिया था। यहां यह याद करना जरूरी है कि लियाकत अली खां पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री बने। जिन्ना ने अपने इन दोनों सहयोगियों के विचारों का खुलेआम समर्थन किया और घोषित किया कि “अंतरिम सरकार को ऐसा कोई काम नहीं करने दिया जाए जिसका प्रशासनिक दृष्टि से या परिपाटी की दृष्टि से किसी भी प्रकार भारत के भावी संविधान के प्रश्न पर विपरीत प्रभाव पड़े। यदि कोई ऐसा प्रयास किया जाएगा जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमारी पाकिस्तान की मांग पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकेगा तो हम अवश्य ही ऐसा नहीं होने देंगे।“ जिन्ना का यह बयान ‘द इंडियन एनुअल रजिस्टर’ में दर्ज है।
अंतरिम सरकार का अनुभव अत्यंत कटु था। मुस्लिम लीग ने लगातार सीधी कारवाई का दायरा बढ़ाया। सरकार में मतभेद और कलह बढ़ते गए। वाइसराय वैवल मुस्लिम लीग के हमदर्द थे। जब अंतरिम सरकार के 9 मंत्रियों ने मांग की कि मुस्लिम लीग के मंत्री इस्तीफा दें तो उसे वैवल ने लियाकत अली खां को बताया। लियाकत अली खां ने जो तर्क दिया वह वैवल की दुविधा बढ़ाने वाला था। उनका तर्क था कि केबिनेट मिशन योजना को कांग्रेस और सिखों ने भी नहीं माना है। इसलिए वे अंतरिम सरकार में रहने के योग्य नहीं हैं। उसी समय जवाहरलाल नेहरू ने मांग की कि मुस्लिम लीग के मंत्री इस्तीफा दे दें। यह बात 13 फरवरी, 1947 की है। उसके ठीक दो दिन बाद सरदार पटेल ने चेतावनी दी कि अगर मुस्लिम लीगी मंत्री सरकार में बने रहते हैं, तो कांग्रेस के सदस्य अपना त्याग पत्र दे देंगे। इस तरह कांग्रेस नेतृत्व ने मुस्लिम लीग और वाइसराय वैवल पर अपना दबाव बनाया। मांग की कि करांची प्रस्ताव के आधार पर मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि अंतरिम सरकार से इस्तीफा दें।