दिल्ली चुनाव से पहले जेएनयू में फीस बढ़ोतरी को नाहक मुद्दा बनाकर देश द्रोह का बीज डाला गया। सुनियोजित ढंग से फीस बढ़ोतरी मुद्दे को सीएए से जोड़ा गया। जेएनयू से एमयू जाधवपुर और दूसरे शिक्षण संस्थानों में आग लगाई गयी। फिर एकाएक जामिया से शाहीन बाग आ गया। शाहीन बाग में दिल्ली के 10 फीसदी और बाहर के 90 फीसदी लोग।
इन चुनावों में मीडिया के एक वर्ग सूडो सेक्युलर दिखाने के लिए दिल्ली की गोलीमार सियासत दिखा रहा था लेकिन बिहार में अफजल तेरे खून से इनक्लाब आयेगा के अर्थ मीडिया को नहीं दिख रहा था। सीएए से किसी की नागरिकता नहीं छीनी जायेगी, इसे मीडिया समाचार में भावानुवाद नहीं कर सका। हां, हैदराबाद के एक अदने से संसद को राम मंदिर से लेकर दिल्ली के चुनाव पर विशेष वक्ता बनाने में मीडिया ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहा।
सूडो सेक्युलरों को समझ में नहीं आ रहा कि पूरे देश को देशद्रोह बल्कि गृह युद्ध की आग में झौंकने की मंशा रखने वालों का पर्दाफाश और बहिष्कार करने के बजाए मीडिया (खास कर टेलीवीजन मीडिया) हीरो बनाने में क्यों लगा है। अक्सर, ऐसा लगता है कि मीडिया और तथाकथित बुद्धीजीवियों को मोदी-शाह के विरोध की वेदी पर देश को ही चढ़ा दिया है।
इन लोगों को यह दिखाई नहीं देता कि मोदी-शाह का विरोध करते-करते देश ही नहीं रहा तो ये लोग सेक्युलरिज्म की विषवेल को अपने घर के किस कौने में पौड़ायेंगे। मोदी-शाह का तर्कशील विरोध करने के बजाए ये लोग देश को तोड़ने वाले विष वृक्ष को अपनी ईर्ष्या के जल से सींच रहे हैं।
मोदी-शाह का विरोध करना है तो खुल कर करो न! ठीक वैसे ही करो जैसे अमेरिका में मीडिया के एक बड़े वर्ग ने ट्रंप का विरोध किया। अमेरिकी सिविल सोसाईटी के एक वर्ग ने ईरान से युद्ध की संभावनाओं पर भी ट्रंप का खुला विरोध किया लेकिन उन्होंने खामेनी या खामेनी की भाषा बोलने वालों को हीरो नहीं बनाया।
बीबीसी ने बोरिस जॉनसन का, उनकी नीतियों का विरोध किया लेकिन लंदन ब्रिज पर आतंकी उस्मान को ढेर किये जाने पर आयी जॉनसन की प्रतिक्रिया पर उंगली नहीं उठाई। उस्मान को पुलिस ने दिन के उजाले में सबसे सामने ढेर किया। केवल उस्मान ही नहीं अम्मान को भी ठीक उसी तरह से ढेर किया गया। बीबीसी तो क्या मीडिया के किसी भी वर्ग के साथ लिबरल और कंजरवेटिव किसी ने भी उस्मान और अम्मान के डे लाइट एनकाउंटर पर चूं तक नहीं की। महत्वपूर्ण यह है कि अदालत से जमानत पर आये दोनों संदिग्धों के पास एनकाउंटर के समय कोई फायर आर्म्स नहीं था। मानवाधिकार के लिए सबसे अधिक सहिष्णु इंग्लैण्ड की जनता ने उस्मान या अम्मान के डे लाइट एनकाउंटर पर सुरक्षाबल और सरकार की नीयत पर सवाल नहीं उठाए। किसी ने यह तक पूछने की आवश्यकता नहीं समझी कि उस्मान या अम्मान को 72 हूरों के पास पहुंचाने से पहले सुरक्षाबलों ने उन्हें जिंदा पकड़ने की कोशिश क्यों नहीं की ? अमेरिका हो या इंग्लैण्ड वहां के लोगों, वहां के मीडिया, वहां की सिविल सोसाईटी में देश-देश की सुरक्षा सर्वोपरि है। भारत में अधिकांश तथाकथित पढ़े-लिखे लोगों ने इंग्लैण्ड से आयातित ‘सेक्युलर’ शब्द का लबादा ओढ़ कर देश को फिर से 1947 से पहले की स्थिति में पहुंचाने की मुहिम छेड़ रखी है। जारिस अंसारी जैसे मौलाना चीख-चीख युद्ध का ऐलान करते हैं। मर जायेंगे या जीतेंगे का उद्धघोष करते हैं और सारा मीडिया, सारी सिविल सोसाइटी, नेता और बुद्धीजीवी शरीर पर तेल की मालिश कर फरवरी की गुनगुनी धूप का आनंद ले रहे हैं।
संसद में मीर जाफर सरीखे कांग्रेस के एक नेता कश्मीर इंटरनेशनल मुद्दा बनाते रहते हैं, मीडिया ने, जनता ने, बुद्धिजीवियों ने एक कान से सुना दूसरे से निकाल दिया। कुछ दिन पहले ब्रिटेन से आयरलैण्ड के अलग होने की बात कितनी दूर तक गयी थी। रेफरेंडम भी हुआ। क्या किसी आज तक सुना कि इंग्लैण्ड की मीडिया या विपक्षी दल के नेताओं ने कहा हो कि आयरलैण्ड इंटरनेशनल मुद्दा है। स्पेन से कैटेलोनिया की आजादी के बारे में तो सबको मालूम होगा। स्पेन की धरती के कितने नेताओं ने कैटेलोनिया को इंटरनेशल मुद्दा कहा है।
महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा सीट लाने के बाद भी बीजेपी सरकार शिवसेना के साथ सरकार नहीं बना पायी- बस इसी बात से सेक्युलर मीडिया, सिविल सोसाइटी, विपक्ष खुश है। झारखण्ड में बीजेपी हार गयी- बहुत अच्छा हुआ, 2014 में 78 फीसदी देश पर राज करने वाली बीजेपी अब बस 40 फीसदी में बची है। दिल्ली में भी फिर से बीजेपी न आ जाये, इसके लिए देश द्रोही विष बेल घर के बगीचे में पौड़ा रहे हैं। भस्मासुरों और रक्तबीजों को आयातित सेक्युलरिज्म की खुराक दे रहे हैं।
महामहिम एपीजे अब्दुल कलाम से लेकर आरिफ मुहम्मद खान, इरफान शास्त्री, शहनवाज, मुख्तार अब्बास, शाजिया इल्मी अगर काफिर हैं तो तुम्हारी क्या औकात … आंख रहते हुए अंधों और कानों के रहते हुए बहरों आपको न तो दिखाई देगा और न ही सुनाई देगा कि किस तरह खुले आम कहा जा रहा ‘ …उन्हें साथ लेकर हमने अपनी स्ट्रेटजी बदली है, हम अपना मकसद नहीं बदला है।’
गुलामी का इतिहास तो तुम्हें पढ़ने को मिला ही नहीं, गजैटियर्स पढ़ने और खंगालने का तुम्हारे पास समय है नहीं ‘…खून से इनक्लाब आयेगा और मरेंगे या जीतेंगे के…और …उन्हें साथ लेकर हमने अपनी स्ट्रेटजी बदली है, हम अपना मकसद नहीं बदला है’ कानफोड़ भौंपू चौबीस घण्टे बज रहे हैं- यह भी सुनाई नहीं दे रहा है …!!!
यही कल का इतिहास बन रहा है…अब भी नहीं सुधरे तो कल तुम्हारी औलादें तुम पर उसी तरह थूकेंगी जैसे अम्भी, जयचंद और मीर जाफर पर थूकती हैं।