पूर्व राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने एक बार कहा था, “पत्रकारिता कोई पेशा नहीं, यह जन सेवा का माध्यम है. लोकतांत्रिक परंपराओं की रक्षा करने में तथा शांति और भाईचारे की भावना को बढ़ाने में इसकी विशिष्ट भूमिका होती है.” किंतु भारतीय पत्रकारिता जगत की वर्तमान स्थिति ऐसी नहीं है. आज देश में पत्रकारिता जगत का वैचारिक विमर्श धार्मिक-पंथीय विवादों पर केंद्रित नजर आ रहा है. यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए भारतीय पत्रकारिता धार्मिक अवलंबन पर विभाजित और आधारित हो चुकी है. ज़ब जनचेतना के प्रसार का सबसे बड़ा माध्यम खुद सांप्रदायिकता में डूब जाये तो समझिये की देश की राजनीतिक-सामाजिक स्थिति विद्रुप हो चुकी है. हालांकि यह कोई त्वरित घटना नहीं है बल्कि एक व्यवस्थित नकारात्मकता का परिणाम है.
स्वतंत्र भारत में पत्रकारिता के इतिहास पर नजर डालें तो प्रतीत होता है कि सत्ता के साथ रहना उसकी नियति रहीं है. पिछले पांच दशकों में भारतीय पत्रकारिता जगत ने पँथनिरपेक्षता के मानकों का सही ढंग से पालन नहीं किया है. 70 के दशक में ज़ब भारत में राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करते हुए वोट बैंक की राजनीति का दौर आरंभ हुआ तो पत्रकारिता जगत ने भी अपने पेशेगत सिद्धांतों को तजकर इस कुचक्र में भागीदारी की. 2014 के पूर्व की मुख्यधारा की पत्रकारिता देखे तो इसमें सनातन धर्म-संस्कृति के लिए पूर्वाग्रह और इस्लाम एवं ईसाई जैसे शामी पंथों के प्रति पक्षधरता का पुट बहुत स्पष्ट देखा जा सकता है.
किंतु 2014 के बाद पत्रकारिता का एक बड़ा वर्ग भारतीय मूल्यों-संस्कृति का समर्थक बन गया है किंतु ऐसा नहीं है कि यह श्रद्धा या पक्षधरता का भाव स्थायी रहेगा. जिन्हें भी ऐसा लगता है, वे भ्रमित हैं. आधुनिक पत्रकारिता के मूल्यहीन वैचारिकी को ना समझ पाने वाले ही ऐसी गलतफहमी पाल सकते हैं. आज जो पत्रकार मुखर रूप से दक्षिणपंथी राजनीति के समर्थन में बड़ी-बड़ी तकरीरे कर रहे हैं, एक समय इसी को सांप्रदायिक बताकर आलोचना करते नहीं थकते थे और इसे देश में अराजकता का सबसे बड़ा कारण मानते थे.
परंतु सत्ता मद से ग्रसित दक्षिणपंथी राजनीति के प्रेरकों और समर्थकों को भी यह समझना होगा कि धर्म के प्रति जागरूकता के प्रसार और उन्माद के फैलाव में अंतर होता है. इस बात में कोई संदेह नहीं है कि वर्तमान सत्ताधारी दल की सबसे बड़ी शक्ति उसकी धार्मिक गोलबंदी रही है. अतः सरकार द्वारा प्रश्रय प्राप्त मिडिया संस्थानों का धर्माधारित ख़बरों की तरफ झुकाव जितना स्वाभाविक है, उतना ही स्वभाविक उनका सत्ता संरक्षण में मुखर एवं प्रभावी होना है. लेकिन ऐसे सिद्धांतविहीन तत्वों को प्रश्रय देना राष्ट्र के भविष्य के लिए घातक होगा. कल ज़ब सत्ता परिवर्तित होगी तब राजनीतिक अनुकूलता देखकर पाला बदलने में माहिर ये अवसरवादी वर्ग दूसरे पक्ष के साथ खड़े होकर वही अनर्गल प्रलाप करेंगे जो आज कर रहे हैं. ऐसा नहीं कि धर्म-पंथ के विवादों पर विमर्श नहीं होना चाहिए किंतु इस पर ही पत्रकारिता का केंद्रीकरण अनुचित है. देश में रोजगार, शिक्षा, गरीबी जैसे अनगिनत मुद्दे है, जिनके प्रति पत्रकारिता जगत की अरुचि तथा अनदेखी अशोभनीय प्रतीत होती है.
आज भारतीय मिडिया की सांप्रदायिक भावना को लेकर घनघोर रुदाली चल रहीं है लेकिन ये शिकायती वही हैं जो एक लंबे दौर में ऐसे ही ‘एजेंड़ेवाली टारगेटड’ पत्रकारिता कर चुके हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि पहले यह वामपंथी वर्ग की सांप्रदायिकता सोच से कलुषित था, आज दक्षिणपंथी वर्ग हावी है. यहाँ अंतर केवल वैचारिक वर्ग की प्रभावशीलता का है, जो सत्ता संरक्षण से संचालित है.इन्हीं हालातों पर मोहसिन नकवी का शेर याद आता है,
“हर ज़ुर्म मेरी ज़ात से मंसूब है “मोहसिन”
क्या मेरे सिवा शहर में मासूम है सारे”
आज प्रतिपक्षी वामपंथी एवं छद्म गाँधीवादी पत्रकार जगत वर्तमान में व्याप्त दक्षिणपंथी प्रभावशीलता को लेकर इतना उद्वेलित होना समझ से परे है. सांख्य दर्शन के अनुसार, ‘कार्य मूलतः अपने कारण में विद्यमान है’ (असदकारणात् उपादान ग्रहणात् सर्वसंभवाभावात् शक्तस्य शक्यकरणात् करणाभावाच्च सत्कार्यम्– सांख्य कारिका; 9). यही पत्रकारिता जगत के इस संघर्ष का यथार्थ है.
वामपंथ प्रेरित पत्रकार वर्ग, जो वर्तमान में सत्ता संरक्षण से वंचित होने के कारण हाशिए पर धकेल दिया गया है, आज भले ही दक्षिणपंथी राजनीति और पत्रकारिता के गठजोड़ का आरोप लगा रहा है लेकिन वह स्वयं भी लंबे समय तक सत्ता संरक्षण का सुख भोग चुका है. और अपने स्वर्णिम काल में सत्ता समर्थन के बूते इतने आवेग में रहा करता था कि नि:संकोच सनातन समाज को अपमानित करता था. बल्कि वह आज भी अपने पुराने दुराग्रह को त्याग कर स्वच्छ पत्रकारिता करने को तैयार नहीं है.
वामपंथी पत्रकारिता की सनातन समाज के प्रति दुर्भावना के प्रमाण विपुल मात्रा में उपलब्ध हैं, जिनमें कुछ विशेष का उल्लेख प्रासंगिक होगा. लंबे अर्से तक समाचार पत्रों में ढोंगी बाबा, धूर्त तांत्रिक या पुजारी जैसे शब्द खबरों के शीर्षक बनते रहे हैं.अक्सर उन मामलों में अपराधी मुस्लिम होते हैं. लेकिन इन्हें ‘नजूमी या पीर-फकीर’ कहने के बजाय बाबा और तांत्रिक कहकर हिंदू समाज के पुरोहित वर्ग को कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है. ऐसा कहने का यह अर्थ नहीं कि हिंदू समाज में धार्मिक आवरण में लिपटे ढोंगी और धोखेबाज लोग नहीं है. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि चयनित शब्दों के माध्यम से किसी समाज विशेष को अपमानित करने और समुदाय विशेष के अपराध ढंकने का प्रयास किया जाए. स्पष्ट कहें तो यह सांप्रदायिक पत्रकारिता है.
वामपंथी पत्रकारिता की ऐसी मानसिक विद्रुपता के अनगिनत प्रमाण हैं. जैसे यही जो हैदराबाद की डॉक्टर के बलात्कार एवं हत्या के दोषियों को गरीब-मजलूम बताकर उनके लिए सहानुभूति बटोर रहे थे, आज बिलकिस बानो के लिए न्याय की माँग के अगुआ हुए हैं. वे जो बांग्लादेशी मुसलमानों और रोहिंग्याओं को मानवीय आधार पर देश में शरण देने की मुहीम चला रहे हैं वही पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले धार्मिक-प्रताड़ित हिन्दुओं को वापस भेजने की दलीलें दे रहे हैं, कि इससे देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ बढ़ेगा. दिल्ली दंगों के दौरान पुलिस पर बंदूक तानने वाले शाहरुख और झारखंड में अंकिता को जलाने वाले मुस्लिम अपराधियों को हिंदू बताना जैसे उदाहरण इस बात की पुष्टि करते हैं कि वामपंथी पत्रकारिता अभी भी पूर्ववत उसी नैतिकताविहीन वैचारिकी के धुंध से घिरा हुआ है जिसने उसे पतनशील बना दिया. निकट ही भाजपा आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय एवं ‘मेटा’ के रिश्तों को लेकर द वायर ने जिस तरह भ्रामक एवं गलत सूचनाएं दी एवं उससे उत्पन्न विवाद पर जिस तरह लीपापोती का प्रयास किया वो पत्रकारिता ही नहीं सार्वजनिक जीवन की सामान्य नैतिकता के भी विरुद्ध है. वैसे भी गौरतलब है कि ‘द वायर’ की ‘लीगी पत्रकारिता’ के तौर-तरीके ढँके छुपे नहीं हैं. लेकिन वामपंथ को समझने की आवश्यकता है कि दक्षिणपंथ के विरोध का ये अर्थ नहीं कि सारी पेशेगत नैतिकता एवं ईमानदारी को ताक पर रख दे.
हालांकि ऐसा आरोप वामपंथी बुद्धिजीवी वर्ग ने सदैव दूसरे पक्ष पर लगाया है. इतिहासकार प्रो. बिपिन चंद्र लिखते हैं, ‘आज के दिन भी सामान्य स्तर पर ऑर्गेनाइजर और पांचजन्य राजनीतिक स्थिति को देखते हुए कम या अधिक कटु ऐसे लेख प्रकाशित करती रहती हैं जो इस बात पर जोर डालते हैं कि हिंदू ही मूलतः भारतीय हैं और ‘भारत के इस्लामीकरण’ के खतरे पर शोर मचाते रहते हैं.’ इस आरोप का एक बिलकुल विपरीत पहलू है. पिछले कई दशकों से ये पत्रिकाएं कई ऐसे संकटों पर देश को सचेत करतीं आ रही हैं जो सांप्रदायिक नहीं बल्कि यथार्थ हैं, जैसे अवैध आव्रजन.
इसे भयावहता को कुछ आंकड़ों से समझा जा सकता है. उदाहरणस्वरूप राजस्थान के सीमांत इलाकों में जहाँ अन्य धार्मिक समुदायों की आबादी में केवल 8-10 फीसदी की बढ़ोतरी हुई, वहीं मुस्लिम जनसंख्या में 20-25 प्रतिशत की वृद्धि हुई. इसी प्रकार पिछले 10 वर्षों में उत्तर प्रदेश और असम के कई इलाकों में मुस्लिम आबादी में 32 प्रतिशत तक वृद्धि हुई है, जबकि संपूर्ण राज्य में यह दर 10-15 प्रतिशत ही है. इससे सम्बंधित केंद्रीय गृह मंत्रालय को भेजी गई रिपोर्ट के अनुसार भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी करीब 32 प्रतिशत तक बढ़ चुकी है. आज केंद्र से लेकर राज्य सरकारें भी इन अवैध घुसपैठियों से त्रस्त है. वही सर्वोच्च न्यायालय भी इस पर चिंता जता चुका है.
दूसरे ‘लव जिहाद’ का मामला, जिसको आज तक दक्षिणपंथी पत्र-पत्रिकाओं का अधिप्रचार (प्रोपगेंडा) माना गया, वह प्रत्यक्ष परिलक्षित हैं. दिल्ली में एक दलित लड़की को उसके मुस्लिम प्रेमी ने 35 टुकड़ों में काट दिया और यह कोई एकमात्र घटना नहीं बल्कि ऐसी से पूरे भारत में पुलिस के आपराधिक अभिलेखों में दर्ज है. दो वर्ष पूर्व कानपुर के किदवई नगर थाने में ऐसे ही एक मामला दर्ज होने पर विवाद बढ़ा जिसके पश्चात् इस मामले की जाँच के लिए एसआईटी का गठन हुआ जिसकी रिपोर्ट हैरान करने वाली थी. इसके अनुसार उन दो महीनों में कानपुर के विभिन्न थानों में ऐसे ग्यारह मामले दर्ज हो चुके थे. इनमें लिप्त अपराधियों को बाकायदा संस्थागत संरक्षण प्राप्त था और विदेशों से फंडिंग हो रही थी. सुरक्षा एजेंसियां इसे सुनियोजित षड़यंत्र बता रही हैं. इसका अर्थ हुआ कि वामपंथी पत्रकारिता के प्रभाव में राष्ट्र पर आसन्न संकट को पंथनिरपेक्षता के नाम पर अनदेखा किया गया या यूँ कहें कि वामपंथी पत्रकारिता ने धार्मिक तुष्टिकरण के नाम पर देश को गुमराह किया.
आज दक्षिणपंथी विचारधारा से प्रेरित पत्रकारिता संस्थानों जैसे सुदर्शन न्यूज के प्रभाव-प्रसार में अचानक वृद्धि का मूल कारण यही है. 2007 में स्थापित सुदर्शन न्यूज़ जिसका दर्शक वर्ग अत्यंत सीमित था, आज मुख्यधारा की पत्रकारिता में शामिल हो चुका ह. इसकी मूल वजह यह है कि दक्षिणपंथ से प्रभावित इसके जैसे समाचार चैनलों ने उन मुद्दों पर विमर्श खड़ा किया जिन्हें मुख्यधारा की वामपंथी मीडिया द्वारा बिल्कुल ही अनदेखा कर दिया था और यदि ये मुद्दे कभी दूसरे माध्यमों से सतह पर आये भी तो या तो इन्हें दबाने का प्रयास किया अथवा इन विषयों पर देश को बरगलाया और भ्रमित किया, जैसे लव जिहाद, हिंदू धार्मिक स्थलों पर सरकारी नियंत्रण, बांग्लादेशीयों का अवैध प्रवासन इत्यादि. उदाहरणस्वरूप 90 के दशक में तथाकथित ‘सेक्युलर’-वामपंथी मिडिया द्वारा कश्मीरी पंडितों के प्रति मुस्लिम समुदाय की आक्रामकता को उनके रोजगार के सीमित अवसर एवं अन्य आर्थिक समस्याओं से उपजे आक्रोश के रूप में प्रचारित किया गया कि किंतु वास्तव में यह समस्या कट्टरपंथी सांप्रदायिक मानसिकता की उपज थी. यही नहीं कश्मीरी हिंदुओं के नृशंस नरसंहार, उनके पलायन तथा धार्मिक स्थलों के ध्वँस पर वामपंथी मिडिया ने तब जो मौन धारण किया था, वह आज तक जारी है.
जबकि दक्षिणपंथी मिडिया ने इन खबरों पर बेबाक तरीके से सनातन समाज का पक्ष रखना प्रारंभ किया. नि:संदेह इससे हिंदू जनता की वैचारिक गोलबंदी बढ़ी. विशेष रूप से जब कोई देश धार्मिक-पंथीय टकराव की दिशा में बढ़ रहा हो तो पर अपने पक्ष की ख़बरों और उनको प्रसारित करने वाले संस्थानों की तरफ लक्षित जनता का झुकाव होता ही है. यही वजह है कि सुदर्शन न्यूज़ और उसके जैसे दक्षिणपंथ से प्रेरित पत्रकारिता संस्थानों की स्वीकार्यता बढ़ती गई है.
आज एनडीटीवी के एक क्रांतिकारी पत्रकार को ये शिकायत है कि उनको पुरस्कार मिलने की ख़बरें अख़बारों में नहीं छपती. लेकिन वे भूल रहे हैं कि ज़ब उनके वर्ग की वामपंथी मिडिया के प्रभाव का युग था तब हिन्दुओं के नरसंहारों की खबरों तक को तवज्जो नहीं मिलती थी. ये परिवर्तन चक्र प्रकृति के नियमानुसार है. इसलिए चाहें दक्षिणपंथ हो या वामपंथ सिद्धांतहीनता और मूल्यहीनता के आरोप के साथ आलोचना करने का नैतिक अधिकार किसी भी वैचारिक पक्ष को नहीं है. स्पष्ट कहें तो भारत में पत्रकारिता स्वार्थ और सहूलियतों के अनुरूप लचीली बनी रही है
किंतु इसकी एक धारा ऐसी भी रही है जो राग-द्वेष से मुक्त एवं निष्पक्ष पत्रकारिता की एक परम्परा का निर्वहन करती रही है. इसका बेहतरीन उदाहरण स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में ‘नेशनल हेराल्ड’ रहा था. ज़ब हैदराबाद रियासत में आर्य समाज ने निजामशाही के विरुद्ध आन्दोलन चलाया तब अखबारों में इसकी खबरें खूब छपती रहीं. किंतु अचानक हेराल्ड के अलावा अन्य सभी अखबारों ने इस पर बिल्कुल चुप्पी साध ली. एक दिन अचानक निज़ाम के एक दूत ने तत्कालीन सम्पादक रामाराव के दफ्तर आकर आर्य समाज की बुराई की तथा हेराल्ड को निज़ाम की तरफ से लाभ उठाने की पेशकश की. इसके पश्चात् सम्पादक ने उसे खदेड़ते हुए दरवाजे तक दौड़ाया. इस विषय में आर्य समाज ने संपादक रामाराव को एक आभार-पत्र भी लिखा था. इसी प्रकार त्रिपुरी अधिवेशन में उत्पन्न विवाद के दौरान नेशनल हेराल्ड ने सुभाषचंद्र बोस के समर्थन में काफी लिखा. ज़ब नेताजी अख़बार के कैसरबाग कार्यालय पर आये तब उन्होंने कहा था, ”यह नेहरू का अखबार मेरे प्रति बड़ा संवेदनशील रहा एवं ईमानदार रहा.” वास्तव में पत्रकारिता की निष्पक्षता का मानक ऐसे ही होते है. किंतु राजनीति की दुश्चरित्रता ने हेराल्ड की इस परंपरा को भी भ्रष्ट कर दिया.
हालांकि आज भी पत्रकारिता जगत में एक छोटा वर्ग पत्रकारिता के मूल्यों को आधार बनाकर बढ़ रहा है और इसी वर्ग ने राष्ट्र की उम्मीदों को जिंदा रखा है. इन पंक्तियों के लेखक से बातचीत में पद्मश्री से सम्मानित प्रतिष्ठित पत्रकार विजय दत्त श्रीधर कहते हैं, “पत्रकारिता सिर्फ अपने मूल्यों और सिद्धांतों के साथ होती है वह किसी भी सत्ताधारी दल, संगठन, धर्म या जाति के सामने नहीं बल्कि वह अपने मूल्यों और सिद्धांतों में निरपेक्ष होती है.” इस कथन की कसौटी पर कहीं भी हम पत्रकारिता जगत को सफल होते हुए नहीं देख सकते हैं. फिर भी एक नई शुरुआत का प्रयास किया जा सकता है, बस नियत होनी चाहिए.